Friday 15 July 2011

अज्ञेय के अंतरंग प्रसंग

अज्ञेय के विविध रूप थे। विविध अभिरुचियां थी। आभिजात्य वर्ग, संभ्रांत वर्ग की जीवन प्रक्रिया थी। वे अपना खर्च अपने लेखन से जुटा लेते थे। स्वयं अपना भोजन बना लेते थे और अपना सारा काम स्वयं करते थे। उनका भोजन साधारण शाकाहारी होता था। परन्तु उसमें भी विविधता होती थी। इसलिए वे स्यवं बाजार जाकर तरकारियां, फल रसोई का सामान खरीद लाते थे। बढ़ईगिरी भी कर लेते थे। जूता गांठ लेते थे, माली का काम तो प्रत्येक सुबह टहलकर आने के बाद करते थे। गमले की मिट्टी की खुदाई करना, खाद डालना, पानी डालना, पीली पत्तियों को चुनकर पेंड की जड़ में रखना आदि।

वर्ष 1985 में कलकत्ता में आयोजित साहित्य संगोष्ठी में  आए थे। भाषा परिषद में साहित्य समारोह था। कविता, कहानी आलोचना के विविध विषयों पर विचार-विमर्श चल रहा था। वे वक्ताओं के बेतुके वक्तव्यों से ऊब जाते थे। और सभा भवन के बाहर आकर मौन भाव से एक कोने खड़े हो जाते थे। मैं भी कभी-कभी उनके साथ उठकर आ जाता था। वे खड़े हुए थक जाते थे तब पीछे की सीट पर बैठने के लिए मुझे कहते थे। हम दोनों जाकर पीछे बैठ जाते थे। एक दिन बोले- आप जानते हैं कांस के बरतन कलकत्ता में कहां मिलते हैं? कांस के बर्तन में खाना काफी स्वास्थ्यप्रद होता है। पहले गांवों में कांस के बर्तन ही चलते थे। अब तो स्टील आ गया। यहां कहां मिलते हैं, मुझे खरीदना है। मैंने कहा कालीघाट में शायद मिल जाएं। उन्होंने कहा थोड़ा समय अभी है, चलिए घूम आते हैं। गाड़ी आ गई तो हम दोनों कालीघाट की दुकानों में कांसे के बर्तन खोजने निकल पड़े। वहां कई दुकान देखें, परन्तु बर्तन पसंद नहीं आए। हम वापस आ गए। रास्ते में अज्ञेय के साथ साहित्य चर्चा होती रही। जिसके बीच उन्होंने बताया कि मैं कविताएं लिखते-लिखते जब बोरियत का ऐहसास करता हूं तो अन्य विधा में काम करना शुरू कर देता हूं। शायद इसीलिए मैंने कविता के अलावा अन्य विधाओं में भी काम किया।  अज्ञेय ने जिस कर्म, कौशल, संदीजगी और लेखन-चिन्तन द्वारा अपने व्यक्तित्व को विश्व धरातल पर  प्रस्तुत किया, उसके लिए अज्ञेय का व्यक्तिगत जीवन भले ही विखराव भरा रहा हो, किन्तु वे विषपायी, साहित्य साधक, जीवन पर्यंत संघर्ष करते रहे। कर्मठता, अकेलापन, मौन उनके लेखन के खास आयाम थे। अतः अज्ञेय का जीवन का अंतिम पड़ाव, विषाद, वैराग्य और संबंधों की प्रवंचना का अद्भूत संमिश्रम रहा है।

1987 अप्रैल में भोपाल काव्य उत्सव में वे गए थे। उस उत्सव के वे केन्द्र बिन्दु बने रहे। वहां से दिल्ली लौटकर कुछ अस्वस्थ बोध कर रहे थे। एक दिन मैंने फोन किया तो बोले शरीर अब थकान सह नहीं पा रहा है। लम्बा आराम करने की इच्छा है, परन्तु अभी कई काम अधूरे है। मैंने विनम्रता पूर्वक कहा- कि कुछ दिनों के लिए कलकत्ता आ जाएं या नैनीताल अथवा दार्जिलिंग जाकर विश्राम कर लें। उत्तर में उनकी शांत, बुझी हुई आवाज आई। स्वदेश जी अब तो मुश्किल है। मैं उनकी असमर्थता समझ नहीं पाया।

वे चार अप्रैल को प्रातः साढ़े 7 बजे के करीब सीने में दर्द से व्याकुल होकर विस्तर पर लेट गए। दर्द बढ़ता गया। वे बिस्तर पर पड़े अकेले छटपटाते रहे। उन्होंने इलाजी को कई बार पुकारा। इला जी उस समय आसन कर रही थीं, बोली-थोड़ी देर में आती हूं। किन्तु वो दिल का भयानक दौरा था। वे चन्द मिनट उनके लिए बड़े कष्ट के थे। अकेले, असहाय और उसी हालत में बिना किसी उपचार या सहायता के अपना अस्तित्व त्यागकर हमसे बहुत दूर चले गए। आज सोचता हूं, एक महान लेखक का यह कैसा संबंध है? कैसा मेल है, कैसा मानव मूल्य है, पति के प्रति पत्नी का कैसा प्रेम है कि एक व्यक्ति अपने साथ रह रहे, दूसरे व्यक्ति के कष्ट को समझ नहीं पाता। 4 अप्रैल 1987 का यह प्रकरण मेरे लिए कभी न भूलने वाली घटना है। आज न अज्ञेय जी हैं और न ही इलाजी। किससे पूछूं कि संबंधों की विडम्बना के बीच हम अपना अस्तित्व कैसे सुरक्षित रख सकते हैं।

1938 में जेल की लम्बी त्रासदी झेलने के बाद अज्ञेय जी ने हारिल को पुकारा था। उनकी वह प्रसिद्ध कविता मेरे दिमाग में हमेशा याद रहती है।

उड़ चल, हारिल, लिए हाथ में यही अकेला, ओछा तिनका,
ऊषा जाग उठी प्राची में- कैसी बाट भरोसा किनका।
शक्ति रहे तेरे हांथों में - छूट न जाए  चाह सृजन की,
शक्ति रहे तेरे हाथों में - रूक न जाए गति जीवन की।।

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