Wednesday 28 March 2012

विनाश के समय

एक ऐसे भी समय की ओर दृष्टि जाती है
जहां नदियां सूखी पड़ी हैं
जंगल वीरान हैं
रास्तों के दोनों ओर हरियाली मिट गई है
हवा सूखी आहें ले रही है
आकाश का चेहरा मुरझा गया है। अकाल का
सन्नाटा छाया है धरती के आरपार
बदहाली की घिर गई है दीवार
एक ऐसे समय का चेहरा सामने आ जाता है
जब नदी-सागर-तट पर गहरा सन्नाटा छा जाता है
लहरें शांत, मौन, उदास है और चारो ओर विषमता का  धुन्ध भरा है
अग्रितप्त सूर्य तपा रहा धरती का ओर छोर
जीवन जल भुन कर राख हो रहा है
धरती पर उठ रहा है कर्ण भेदी आहत स्वर-हाहाकार
एक ऐसा भी क्षण दिखाई दे रहा है क्षीतिज के आरपार
जहां जीवन के सभी परिदृश्य बदल गए हैं
समय के अग्नि मेला में
जिजीविषा के सारे पैमाने जल गए हैं
आदमी अपनी हताशा की गठरी लादे
अभिशप्त-समय-पथ पर चल रहा है
थके पांव, पथ श्लथ, रक्त लथपथ
गत विगत की स्मृतियों को
हृदय की झोली में छिपाए मौन, स्वर
चलता जा रहा अनन्त यात्रा-पथ पर
नई सृष्टि-निर्माण करने
आशाओं के रिक्त घट भरने
खाली हृदय
नए घर की खोज करने
साधने अपना समय
विनाश के समय
                   21.03.2012


अंकुर की आत्माभिव्यक्ति
मैं अंकुर हूं मिट्टी के गर्भ से
छोटे से बीज से जन्मा, बादल, सूर्य-आलोक-ताप,
हवा और धूप की बाहों ने सहारा दिया
अंकुरित होकर ऊपर उठते ही
हवा ने चुम्बन दिया,
रोशनी ने आशिर्वाद
पंछी मेरे इर्द गिर्द अपने कल कूजन से
प्रसन्नता प्रकट करने लगे कि
जब बड़ा होकर वृक्ष बनूंगा, तब वे
मेरी शाख पर अपने नीड़ का निर्माण करेंगे

मैं कितना बड़ा, सघन, छायादार वृक्ष बनूंगा
कितना अपने फूलों, फलों से
प्रकृति की उष्मा के साथ मिलकर
कितना कुछ जड़, चेतन को
नवोल्लास, आनन्द से सरस, सारयुक्त,
सुन्दर, सौन्दर्य वान बनाऊंगा
चिड़ियों के कलनाद को हृदयंगम करता
सबको फल दूंगा
उस फल को अतीत और वर्तमान ने चखा है
मैने अकेले ही अपनी हरियाली की उष्मा
उन्मुक्त मन से ग्रहण किया और यह सीख ली
कि देते जाओ अपना सर्वस्व, पंछी, बन जंतु,
जन-जन के आनन्द के लिए समर्पण ही जीवन है।
समय से जो वरदान मिला है, बांटते जाओ,
मुझे इस बात का अहसास है कि
लोग मेरा फल खाएंगे, मेरी डालें काटेंगे
अपना घर सजाएंगे, बची टहनियां को
जलाएंगे। इस तरह आनन्द और अभिसप्त भरे जीवन में
हवा, धूप, धरती और आकाश ही मेरे सखा है
मेरे अस्तित्व विहीन होने पर भी मेरे बीजों से
नए नए अंकुर को नव जन्म देते रहेंगे
मेरे बाद भी
अपनी करुणा से मेरे रिक्त हृदयघट को भरते रहेंगे।

Saturday 24 March 2012

जिजीविषा के आयाम

जिजीविषा के आयाम
जब मैं अपनी जिजीविषा के ताने बाने बुन रहा था
चिन्तन के उद्यान में प्राण संवेदना की डालों से
सर्जना के विविध फूलों को चुन रहा था
तब सूर्य की सोनाली किरणों ने
बिहंसते हुए क्षीतिज के नीले कागज पर 
लाल रंगों से लिख दिया था -
क्या करोगे ये फूल? 

फिर जब कर्मों का बोझ लादे  अकेली नाव को उद्वेलित,
 उद्दाम सुनामीवत् समय-प्रवाह में नियंत्रित कर रहा था
मैं भाव-विभाव संबद्ध अपनी पतवारों से
अभिव्यक्ति की उठती गिरती लहरों को काटते हुए
नाव को हर तरह से बचा रहा था
तब नदी के दुकूलों ने कहा था-
यह यात्रा किस लिए, आखिर किसके लिए?
और फिर जब चेतना की निविड़ अंधेरी रात में
नए नए सपनों को आंखों के कैन्वश पर आंक रहा था
तब घनीभूत पीड़ा का अहसास
प्रवंचना की अधखुली खिड़की से झांक रहा था
सरसराती हवा ने जाते जाते कानों में कहा था-
यह जीवन किस लिए, किसके लिए....
                                     20.3.2012

यात्रा पथ

बहुत सारे असाध्य और दुर्गम रास्तों से
चलते हुए मैंने अपनी यात्रा संयोजित की
अनिष्ट सम्बन्धों से नाता तोड़कर
भवितव्य के साथ अपने को जोड़कर
आगे बढ़ता रहा, सफलता की
एक-एक सीढ़ियां चढ़ता रहा
बस अतीत की स्मृतियों से मुक्त नहीं हो पाया
और उन संदर्भों से जिनसे मन लगाया
प्रेम जैसी असाध्य बीमारी से बचता, बचाता
समय-सागर- तट पर चलता रहा
कभी तेज कदमों से चलते, कभी थककर बैठ जाता
प्रकृति के विविध सौंदर्य देख आह्लादित मन गाता
और अपनी यात्रा पर आगे बढ़ जाता.....

कभी सोचा नहीं था कि यात्रा में पग-पग पर
कितने विघ्न, कितनी कठिनाइयां आती हैं
परन्तु, अन्धकार भरे सघन वन, मरुथल,
ऊंचे, नीचे कंटकाकीर्ण पथ को पार कर
चलता रहा आशा और विश्वास के सहारे
श्लथपग, थक हारा, क्षत-विक्षत
प्रवंचना की कंटीली झाड़ियों से उलझते, बचते बचाते
अपनी मंजिल की ओर बढ़ता रहा...
समय की सीढ़ियां चढ़ता रहा...

                                             14.3.2012
अभियान
सावधान सावधान सावधान
मेरे रास्ते से हट जाओ
समेट लो अपने तामझाम
मेरे रथ के घोड़े शक्तिशाली, चपल, चंचल है
उन्हें दुर्गम, कंटकाकीर्ण पथ पर भागने का
अपने को बचाते हुए सुरक्षित
गन्तव्य की ओर तेजगति से जाने की समझ है
कर्म पथ पर मंजिल की ओर आगे बढ़ने की कूबत है
भले ही पथ के अवरोधों को हटाने कोई आए, न आए
मेरे पांचों घोड़े निर्बाध गति से चलते रहे हैं
भाग रहे हैं बिना कोई व्यवधान
सावधान सावधान सावधान
मेरा रथ द्रुतगामी है जो बिना ठहराव के
चलता जा रहा है समय की टेडी मेढ़ी पगडंडी पर
आदमी के विरुद्ध खडयंत्र करने वाले
रास्ते से हट जाओ, लोभ लाभ की खिड़की बंद करो
अपने मनसूबे की खिचड़ी कहीं और पकाओ
मेरा रथ चारचाक मजबूत है
मैं उसकी तथा पांचों घोड़ों की देख रेख करता हूं
रथ के पहियों को सक्रिय रखने के लिए
हर तरह से रख रखाव करता हूं
यह रथ मेरे विजय अभयान का सशक्त श्रोत है
पंच अश्व के अदम्य साहस से भरा
युग की नवता से ओत प्रोत है
यही तो समय के साथ चलेंगे
और साकार करेंगे विजय-अभियान
सावधान सावधान सावधान
                                       15 मार्च 2012


जीवन को बार-बार दोहराता हूं
मैं अपने जीने को बार-बार दोहराता हूं
जो कभी छन्द बद्ध तो कभी छन्दहीन कविता बन जाता है
समय के ताल पर निजता का गीत गाता हूं...
बाहर आदमी का संघर्ष जीता हूं
और भीतर आत्मबोध के प्याले में
संसृति का विष पीता हूं
मैं बार-बार अपने को जगाता हूं...
बाहर आजादी और खुशहाली से लड़ता हूं

अपंग, अपाहिज नारों पर
आजादी का बेसुरा गीत गाता हूं...

                16 मार्च 2012


आदमी का संघर्ष
मैंने आदमी के संघर्ष में शरीक होकर देखा है
आदमी किस तरह जीता है
कैसे सर-संघान करता है
कंधे पर खाली तूणीर टांगे
सत्ता की काली सड़क पर कैसे चलता है
विनार्थ नारों और वादों में कैसे पलता है
असहाय, अशक्त, हर तरह से हार मानकर
तेलहीन, वर्तिका विहीन प्रदीप की तरह जलता हुआ
असमय की हवा में बुझता हूं
आदमी खाता है सरकारी गोदामों का सड़ा हुआ अनाज
बाढ़, सूखा, दैवी विपदा से त्रस्त, भूख से पस्त
ऐने पौने दामों में अपने बच्चों, बहू को बेचता,
आत्महत्या करता है।
कोई उसके संघर्ष में साथ नहीं देता

आदमी कहीं का, किसी भी देश का हो
आजादी और अनाज के लिए
जीवन की बर्बरता झेलता है
और असहनीय संघर्षों का बोझ लादे
दुनिया से अस्तित्व विहीन हो जाता है
भूख की आत्मा की शांति के लिए
किसी मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा में
कन्फेशन-पाप-आत्मस्वीकृति के लिए
कोई भी पंडित, पुजारी, पादड़ी, इमाम,
क्षमा का आशीर्वाद नहीं देता।

                                  17.3.12

जीवन की आपाधापी में
यूं ही यू हीं नहीं जिया
जीवन के असंख्य अवरोधो को पार किया
जितना, जो कुछ पाया
उसे ही तो उन्हें दिया
जिन्हें चाहिए आजादी का नया सूर्य
आनन्दोल्लास
समय के साथ चलते हुए
कंटकाकीर्ण पथ पर
आगे बढ़ता रहा
सफलताओं की सीढ़ियां चढ़ता रहा
दुःख-सुख, मान-अपमान जीत-हार के बीच
गन्तव्य-पथ पर आगे बढ़ता रहा
समय-सागर-तट पर दूर, बहुत दूर
चलते हुए अपनी लघुता को स्वीकार किया
आह! मैंने किस किस तरह से जीवन की आपाधापी में
काले समय के हाथों गरल पिया
यूं ही, यूं ही नहीं जिया...
                                  19.3.2012

Monday 19 March 2012

खालीपन

हर दिन-भरता आकाश
अपनी खाली मुट्टियों में
प्रभाती-प्रकाश
हर दिन, क्षण-प्रति-क्षण
समुद्र छोड़ जाता तट पर
नव मुक्ता-कण-संप्रीति-उच्छवास
हर दिन
फूलों का सुगन्धित पराग
हवा के साथ मिलकर
दिशाओं को बांटता
नवोल्लास-आनन्द-प्रस्फुरण-नव-राग
हर दिन
पर्वत शिखर
घाटियों को देते हरीतिमा
और स्वयं ओढ़ लेते निर्मौन
सफेद बादलों का आवहरण पहन।
हर दिन
नदी दुकूलों को तराशती लहरों की छेनी से
मूर्तिकारों की तरह
उकेर जाती
एक अन्तरंग-कथा-शीर्षक
क्षण-प्रतिक्षण
हमारा अस्तित्व
समय-नदी में प्रवाहित होता है
नए संदर्भों से अन्तर्मन भिगोता है
और फिर उसे ही करता पंच-तत्वों को अर्पण
रिक्त होता है क्षण प्रतिक्षण।


Emptiness
Everyday the firmament
fills its empty space
with light at dawn

Everyday, morment after moments
the sea leaves its beach scattered with
new pearls and pebbles
of its pious love's aspirations
Everyday the fragrance of pollen of flowers
distributes together
with the breeze new stirrings of
bliss and joy of new love in all directions
Everyday peaks of mountains give
greanery to valleys
and themselves remain
clothed in cloud and
covered with intense lilence
Every day every moment
like sculptors
The new
cold chisels of waves cut and trim
both banks of great waterwasy
and a new title of inner story is created
every moment
Our existence is engraved
and flown by the river of time that
touchs our inner mind and then
surrenders it to the five elements
emptying every moment,
all the times

Friday 16 March 2012

छल की थाती

मैं अपनों से ही छला जाता हूं
फिर भी अपने पथ पर चलता चला जाता हूं
चलना और चलते जाना खाली हाथ
बिना साथ
अकेलापन और निस्तब्ध सन्नाटा घेरता है चारों ओर से
देखते देखते उम्र के अलावा में पिघलाकर
कर्म के हथौड़े से नए-नए रूपों में गढ़ा जाता हूं...

चलता है समय कभी हमारे साथ
कभी आगे आगे
और हम भागकर भी उसे पकड़ नहीं पाते
बस अपने अहम् की अन्धकारा में बंद रहते हुए
विघटित आस्था की गठरी लिए
खाली हाथ चलता जाता हूं..

हमारे भीतर राग-विराग, सुख-दुख, हर्ष-विमर्ष,
मान-अपमान, कर्म-अकर्म के दरख्तों को
उजाड़कर अपने साथ उन्हें भी जला जाता हूं
समय से किस तरह छला जाता हूं।

9 मार्च, 2012


जन-संदेश -गान
चुपचाप चुपचाप जीना नहीं
चुपचाप नहीं बहती नदी
चुपचाप नहीं लहराता सागर
चुपचाप नहीं घिरती मेधावली
इन सब में शब्द गान उजागर होता
चुपचाप सहना नहीं जीवन की त्रासदी
चुपचाप प्रेम-विष पीना नहीं...

धरती देती तरह तरह के सुख-आयाम
पर्वत देता शांति का संदेश
देता आकाश अंतहीन ऊंचाई
प्रकृति देती सौन्दर्य वैभव अभिराम
प्रेम व्रेम क्या है? बस दिल का लगाव है
दर्द की फटी चूनर सीना नहीं..

जब सब ओर हो अंधकार
एकाकी रास्ता हो, सुनामित पारावार
मंजिल तक चलना हमारा अधिकार है
आशा, विश्वास से, मनके उजास से
हमारे भीतर ही बसते खुदा, ईश्वर, ईशा, राम, घनश्याम
गुरुनानक, बुद्ध, महावीर, दिव्यज्योति, कृष्ण राम
जन-जन की पीड़ा अपनी है
खुदगर्जी का जीवन जीना नहीं
चुपचाप चुप चाप जीना  नहीं।


खोल दो पंख...
खोल दो अपने पंख
मेरे साथ उड़ना है
मुक्त आकाश में छितिजों के आर पार
नए-नए संदर्भों से मुक्त मन जुड़ना है
दुराशा, क्षोभ, दुःख, प्रवंचना के अंधकार को छोड़
व्यामोह, कलुष जीवन से नाता तोड़
प्राण में आशा और विश्वास का मंत्र लिए
विजय आनन्द गीत गाते, जन-जन में
समवेत स्वरों से यह अहसास जगाते हुए
कि हमें नई ऊंचाइयों से जुड़ना है
खोल दो पंख अपने असीम में
आत्म विश्वास लिए स्वच्छन्द उड़ना है।

12 मार्च, 2012

पत्थर तोड़ती औरत
वह दिन भर पत्थर तोड़ती है
शाम ढलने पर थकी हारी भूखी प्यासी
अपनी जर्जर झोपड़ी में लौटती है
जहां दो अदद आंखें प्रतीक्षा करती हैं
मां आएगी, रोटी बनाएगी, तब खाऊंगी
लेकिन घर पहुंचते ही मां तलाशती है
चावल, आटा, दाल, तेल, नोन
और फिर झोला उठाकर बाजार की ओर भागती है-
बच्ची घुटनों में मुंह डाल कहती है- मां चाकलेट लाना।
मां कुछ बोलती नहीं, आंखें सजल हो जाती हैं।
सोचती है दिन भर कठिन मेहनत करने पर
पचास रुपए मिले हैं, उनसे रोजमर्रा की चीजें
जुटा पाना कठिन होता है। नन्ही, अनजान
बिटिया की मांग को कैसे पूरी करूं।
मां शीघ्रता पूर्वक बाजार से सौदा शुलक लेकर
घर वापस आकर चूल्हा चला देती है
आंटे को गूंथते हुए आंसू चू पड़ते हैं।
लड़की रोती है, उसे चाकलेट नहीं मिले
एकाकी वैधव्य का बोझ लादे अकेली अबला
कैसे जिए, कैसे जिलाए छोटी सी बच्ची,
कैसे उसकी फरमाइसें पूरी करें।
वह अबोल, मौन पत्थर के देवता के सामने
मन्नत मांगती है - हे ईश्वर मेरी बेटी को
खुश रखो, इस अभावग्रस्त जीवन से मुक्त करो
वह बहरे देवता से सजल आंखों हाथ जोड़ती है
दिन भर पत्थर तोड़ती है।

Wednesday 14 March 2012

हमारे भीतर रेत-तट

सदियां, युग गुजर जाते हैं एक के बाद एक
मौसम परिवर्तन हो
अथवा सम्बन्धों का व्यामोह, आत्मबंधन
अथवा विछोह
सभी स्थितियों में प्रकारान्तर से मनुष्य छला जाता है

समय-महासागर-तट से
अस्तित्व की लहरें टकराती
अपने हाथों में स्मृतियों के रूप में
शंख, सीपियां, मोतियां, विविध उपादानों से भर
उद्वेलित मन से
चेतना-तट पर समर्पित कर
खाली हाथ वापस लौट जाती...

रह जाते रेत कण अतीत बनकर
लहराता हमारे भीतर. बाहर अभिव्यक्ति का समुद्र
चिन्तन की हथेलियां थामें,
कभी प्रगाढ़ आलिंगन बद्ध
मानव इतिहास की विविध परिवर्तनशील स्थितियां,
रुपाकार छवियां बनकर
हमारे भीतर कर्म की ज्योति जलाते हैं
यूं ही, यूं ही सदियां, युग गुजर जाते हैं।

                                                             भिलाई 6 मार्च 2012




युग परिवर्तन
युग, सदियां गुजर जाते हैं
एक बाद एक
मौसम परिवर्तन हो अथवा
सम्बन्धों का आत्मिमलन या विछोह
सभी परिस्थितियों में
प्रकारान्तर से मनुष्य बदलता है
मानव-महासागर-तट पर
समय के साथ ढलता है
अस्तित्व की लहरें कभी उद्वेलित, आक्रामक,
कभी शान्त तटस्थ प्रच्छालित करती
अपने हाथों में थामें अतीत की स्मृतियां
शंख, सीपियां, मोतियां, विविध रत्न लिए आती
और आह्लादित मन से
चेतना-तट को समर्पित कर लौट जाती
रह जाते हवा और धूप में तपते, सूखते
नीरवता के रहस्य-द्वार खोलते रेत कण
सहेजते तट की मर्यादा क्षण-प्रति-क्षण
लहराता रहता वर्तमान का सागर
मन में छिपाए ढेर सारी व्यथा
उकेरता अतीत की युद्धक-शांति-कथा
लहरों की हथेलियां थामें
आलिंगनबद्ध कहता जीवन सत्य
कि मनुष्य के भीतर भी एक समुद्र लहराता है
कर्म की लहरें आलोछाया के बीच
हृदय-तट से टकराती हैं और
स्मृतियों की रेत छोड़ जाती हैं
अतीत से नव संस्कृतियों के गहरे नाते हैं
जब भी सदियां, युग गुजर जाते हैं।

रायपुर से कलकत्ता 7 मार्च, 2012

चिन्तन की तराजू पर

चिन्तन की तराजू पर
मैं अपने को तौलता हूं दिन-प्रतिदिन
परन्तु अपना भार बता नहीं पाता
समय ही भारी पड़ता है
जो हमारी जगह स्वयं ही बैठ जाता अनस्वर
चिन्तन की तराजू पर...

संवेदना के संधि पत्र पर
दिशा सूचक दिनचर्याओं से
गुजरने का संकल्प लेता
मुट्ठियों में आत्म विश्वास भरता
अपने वजन को बढ़ाने का यत्न करता
नए-नए संदर्भों से जोड़ता नाता
मन के कलश में भरा समष्टिपरक जल
अभिव्यक्ति के चरणों में अंजुरी भर समर्पित कर देता
प्रतिदिन तौलता कर्म की गठरी का वजन
समय की तराजू पर...

चाहे जिस तरह जितनी तरह कोशिश करूं
भार का सही मूल्यांकन नहीं हो पाता
इस प्रक्रिया में
बहुत सा भार चला जाता
मित्रों, संबंधियों, आत्मीयों के आत्म-समायोजना में
बहुत कुछ भार बंट जाता प्रवंचना के आत्म क्रन्दन में
विनार्थ अनुबन्धन में
और अपने को संतुलित रखने के लिए
कुछ वजन घटाता, बढ़ाता वर्तमान के चौराहे पर
समय की तराजू पर...

                                            3 मार्च, 2012



शब्द-बोध
मैं पृथ्वी पर पहला कदम रखते हुए रोया था
और मां ने असीम स्नेह ममता से आह्लादित होकर
मुझे चूमते हुए कहा था- बेटे! रोते नहीं
अपने आंचल से ढक कर स्तनपान कराते हुए
वात्सल्य-गीत गाकर मेरे सिर, पीठ, कन्धों को थपथपाने लगी थी
वहीं से प्रारम्भ हुई मेरी शब्द-यात्रा
ग्रहण किए बहुत सारे शब्द-मंत्र

समय के चरखे पर
संवेदना के सूत कातते हुए ग्रहण किए
प्रकृति के विविध उपादान
चिन्तन-अनुचिन्तन के विविध रंगों से
धागों को रंग कर
अभिव्यक्ति के बनाए विविध वस्त्र
और उसी को बनाया आवरण
सजाए संवारे संवेदना कई कई तरह से सब दिन, सर्वत्र...

आज तक मां के आनन्द गीतों में
फूलों के रंगों में वनपाखी के कूजन में
सुख-दुख के आंसुओं में खोजता रहा जीवन का अर्थ
बनाए नए नए शब्द-सेतु
जिस पर चलते हुए महामानव के चरणों में अर्पित किए
विविधवर्णी अभिव्यक्ति के फूल
और समष्टि से पाया आशीष दान
हृदय की झोली भर स्नेह-शब्द-शस्त्र...

Saturday 10 March 2012

स्वदेश भारती के उपन्यास पर समीक्षा गोष्ठी सम्पन्न

नवगठित संस्थान साहित्य की चौपाल, छत्तीसगढ़ के तत्वावधान में राष्ट्रीय हिन्दी अकादमी, कोलकाता के अध्यक्ष डॉ. स्वदेश भारती के नक्सली समस्या पर केन्द्रित सद्य प्रकाशित उपन्यास आरण्यक पर सिंघई विला, भिलाई में 6 मार्च, 2012 को समीक्षा संगोष्ठी सम्पन्न हुई। उल्लेखनीय है कि प्रथम प्रमोद वर्मा काव्य सम्मान सहित अनेकों राष्ट्रीय सम्मानों से विभूषित  चौथे सप्तक के कवि डॉ. स्वदेश भारती के अब तक 24 काव्य संकलन 8 उपन्यास प्रकाशित हैं तथा 40 से अधिक ग्रन्थों का उन्होंने सम्पादन भी किया है। वरिष्ठ कवि एवं छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के महामंत्री श्री रवि श्रीवास्तव एवं युवा आलोचक डॉ. जय प्रकाश साव ने आरण्यक पर विशेष टिप्पणी दी। साहित्य की चौपाल के संयोजक श्री अशोक सिंघई ने आलेख प्रस्तुत किया जबकि शायर मुमताज ने गोष्ठी का कुशल संचालन किया व आभार भी व्यक्त किया। ज्ञातव्य है कि डॉ. स्वदेश भारती एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती उत्तरा 4 मार्च से 6 मार्च तक एक राष्ट्रीय संगोष्ठी के लिए प्रवास पर भिलाई आये हुए थे।

आलेख में कवि व समालोचक श्री अशोक सिंघई ने कहा कि किसी भी उपन्यास को जीवन का चित्र कुछ इस तरह प्रस्तुत करना चाहिए कि वह यथार्थ की वस्तुनिष्ठ प्रस्तुति करे। स्वदेश भारती जी का आलोच्य उपन्यास आरण्यक इस कसौटी पर कुन्दन की तरह खरा उतरता है। यह उपन्यास हमारे समय की  निरन्तरता में हमारे साथ-साथ ही बीतता है, संघर्षों, त्रासदियों और सभ्यताओं के साथ व्वस्थाओं की विफलताओं का एक बहुआयामी चिन्तक दस्तावेज है। आरण्यक का नायक भीमाराव समाज, धर्मों के तथाकथित झंडाबरदारों के अन्याय, शोषण और दुष्चक्रों के खिलाफ कमर कसता है, समझौते की भाषा न समझने वाला भीमा एक-एक कर समाज के सभी प्रभावी पात्रों के मुखौटों में जाता है, पर अंतहीन महाभारत के अभिमन्यु की तरह अपने पीछे कई प्रश्न छोड़ जाता है। आयशा, लाली, आशा जैसी महिला पात्रों के माध्यम से लेखक ने पुरुषवादी समाज के आदिम और बर्बर चेहरे को कई बार बेनकाब किया है। इस  उपन्यास में विचार असंभावित रूप में है जिन्हें हजम करने के लिए  उसमें समय का जल श्रमपूर्वक मिलाना होगा। यदि पाठक के पास धैर्य हो और वह परिश्रमी हो तभी वह चिन्तन के इस प्रकाश को मानसिक आंखों से देख सकेगा। इस सिम्फनी का पूर्णतः रसास्वाद करने के लिए पाठक को विश्व साहित्य की अमर रचनाओं और पात्रों से पाठक को सुपरिचित होना होगा। भारती जी का उपन्यास मुझे अपने तई कैडस्लिकोप जैसा लगता है जिसे जब-जब घुमा-घुमा कर देखा जाये तो हर बार नये बिम्ब, नये चित्र नये अर्थ और अंततः नये विचार उपस्थित होते जाते हैं। मनुष्य के आस्था, विश्वास और संघर्ष की कहानी है आरण्यक। कुल मिलाकर भारती जी आरण्यक एक ऐसा औपन्यासिक अरण्य है जो उसी को मानसिक जीवन जीने देगा जो आरण्यक में जाने, जी पाने की कला तथा कूबत रखते हैं।

लेखकीय उद्बोधन में डॉ. स्वदेश भारती ने कहा कि साहित्य में शिगूफेबाजी नहीं होनी चाहिए। लोकप्रिय लेखन के लिए बहुतेरे तथाकथित बड़े लेखकों ने ऐसा किया और साहित्य, विशेषकर उपन्यास विद्या को बहुत नुकसान पहुंचाया है। उन्होंने कहा कि मनुष्य अकेला आता है और अकेला ही चला जाता है और वह वस्तुतः अकेला ही चला जाता है। मनुष्य एकान्तिक और असहाय है। आम आदमी की व्यथा को यदि हम पाठकों तक नहीं लाते हैं तो अपने साहित्य कर्म से गद्दारी करते हैं तथा अपनी आस्था के स्वयं हत्यारे बन जाते हैं। मैंने अपनी रचनात्मकता में मनुष्य को अपने हृदय का प्यार दिया है। प्यार संघर्ष का ही दूसरा नाम है और इस संघर्ष में आत्म बलिदान और आत्म समर्पण होता है। हमें चाहिए कि मनुष्य की चेतना और व्यथा से जुड़ें तभी कुछ सार्थक लेखन संभव हो पायेगा।

उपन्यास पर अपना मन्तव्य व्यक्त करते हुए श्री कवि श्रीवास्तव ने कहा कि इस उपन्यास में मनुष्य के संज्ञान का सारा समय प्रतिबिम्बित होता है। इस उपन्यास से यह प्रतिध्वनि निकलती है कि मनुष्य एक अधबना मकान है जो कभी भी सम्पूर्ण नहीं हो पाता। उसके निर्माण में कुछ न कुछ कमियां रह ही जाती है और यही मूल बोध हमेशा सुधार और विकास की प्रेरणा स्रोत द्वारा होता है। यह उपन्यास पाठक की परीक्षा लेता है। यदि वह पहले पचास पृष्ठों तक पढ़ने का श्रम और समझने की क्षमता का परिचय दे सके तब ही यह उपन्यास उसे अपने अंतस् में प्रवेश करने देता है।

युवा आलोचक डॉ. जयप्रकाश साव ने विशेष टिप्पणी देते हुए कहा कि साहित्य की अन्य विधायें विषय में बधी हुई नहीं होती पर उपन्यास के लिए विषय पहली शर्त है। यथार्थ अपने नग्न रूप में उपन्साय में ही आता है और अपने समय की क्रूर सच्चाइयों को अभिव्यक्त करता  है। दिक्कत यह है कि अधिकांशतः लेखक शिल्प व कला के खेल में यथार्थ पर एक चमकदार लेप चढ़ा देते हैं जिससे यथार्थ की तल्लखगी कम हो जाती है तथा रचना मर्मस्पर्शी नहीं हो पाती। आरण्यक इसका अपवाद है और नग्न सच्चाइयों को पूरी तरह से सीधे ही प्रस्तुत करता है। नक्सलवाद की आतंकवादी और पूरी तरह से भटकती हुई मानवीय त्रासदी पर केन्द्रित यह उपन्यास विवरणमूलक गद्य, यथार्थ की वस्तुनिष्ठ तटस्थता का एक आदर्श है। इसमें विलक्षण पठनीयता है।

इस अवसर पर वरिष्ठ कवि श्री शरद कोकास एवं श्री नासिर अहमद सिकंदर, कवयित्री श्रीमती शकुन्ताल शर्मा, प्रो. सरोज प्रकाश, श्री प्रकाश, श्री एन. एन. पांडेय, श्री एस.एस. बिन्दा, शायर शेख निजामी, डॉ. नौशाद सिद्दीकी, श्री राधेश्याम सिन्दुरिया, श्री रामबरन कोरी कशिश, शायरा प्रीतिलता सरू, श्री शिवमंगल सिंह सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार व साहित्य प्रेमी उपस्थित थे। 

स्वदेश भारती का रायपुर, भिलाई में कार्यक्रम

दिनांक 6 मार्च 2012 को सिंघई विला भिलाई (छत्तीसगढ़) में कवि एवं उपन्यासकार स्वदेश भारती के ताजा उपन्यास आरण्यक पर विचार संगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें कवि एवं आलोचक अशोक सिंघई ने उपन्यास पर आलेख पाठ किया। साहित्यकार रवि श्रीवास्तव, डॉ. जयप्रकाश साव ने उन्यास की सर्जनात्मकता पर अपने विचार रखे और कहा कि आरण्यक को विश्व के महान उपन्यासकारों द्वारा लिखे गए उपन्यासों की श्रेणी में रखा जा सकता है। संगोष्ठी में काफी संख्या में कवि, साहित्यकार, पत्रकार उपस्थित थे, जिसमें मुख्य रूप से श्री शरद कोकास, श्री नासिर अहमद सिकंदर, कवियित्री श्रीमती शकुन्तला शर्मा, प्रो. सरोज प्रकाश, श्री प्रकाश, श्री एन. एन. पांडेय, श्री एस.एस. विन्द्रा, शायर शेख निजामी, डॉ. नौशाद सिद्दीकी, श्री राधेश्याम सिन्दुरिया, श्री रामबरन कोरी कशिश, शायरा प्रीतिलता सरू, श्री शिव मंगल सिंह आदि शामिल थे।

3 मार्च 2012 को नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति की बैठक भिलाई इस्पात संयंत्र के बोर्ड रुम में आयोजित थी,  जिसमें स्वदेश भारती विशिष्ट अतिथि थे। उन्होंने हिन्दी  प्रगति के विविध स्वरूपों पर प्रकाश डाला। इस अवसर पर उन्हें सम्मानित किया गया।

दिनांक 4 एवं 5 मार्च 2012 को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एवं कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय भिलाई, दुर्ग के तत्वावधान में छत्तीसगढ़ी और भोजपुरी का भाषाई एवं सांस्कृतिक अंतर्सम्बंध विष्यक राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी का उद्घाटन स्वदेश भारती ने किया। विशिष्ट अतिथि केन्द्रीय मंत्री श्री चरणदास महन्त थे। संगोष्ठी में श्री आर.पी. मिश्रा, अध्यक्ष छतीसगढ़ कल्याण समिति,  डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव,  अशोक सिंघई, राधे लाल साहू, श्री प्रकाश उदय, प्रो. तीर्थेश्वर सिंह, प्रो. संगम पांडेय, प्रोफेसर प्रमोद शर्मा, प्रकाश सूरज, प्रो. सुधीर शर्मा आदि ने भाग लिया।

स्वदेश भारती ने अपने उद्घाटन भाषण में कहा कि कोई भी भाषा बोलियों के अन्तरसंबंधों से पोषित होती है उसमें जनजीवन के भाषाई संस्कार का प्रभाव पड़ता है तथा अनेक शब्द लोक जीवन की बहुत सारी सांस्कृतिक गतिविधियों से जन्म लेते है। इस  प्रकार शब्दों का भंडार बढ़ता जाता है। भाषा का विकास होता है और नई  भाषाई संस्कृति जन्म लेती है।

Friday 9 March 2012

कविगुरु रवीन्द्रनाथ और बांग्ला साहित्य

बंग्ला साहित्य, लोक संस्कृति और बंगाली स्वाभिमान के केन्द्र विन्दु गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। एक संवेदनशील कवि हृदय, ठाकुर परिवार के राजकीय ठाठ बाट, ऐश्वर्य में पले, संभ्रांत मानसिकता से संपृक्त नहीं हो सका। कैशोर्य काल में उनके भीतर आत्म-सौंदर्य की विविध रूप छठा नव अभिव्यक्ति, नये-नये परिवेश में उत्सृज होने लगी। उनका मन चंचल पंछी की तरह कभी कलकत्ता में चितपुर स्थित भव्य प्रासाद के विशाल  प्रांगण में विचरता, कभी छत पर उमड़ते-घुमड़ते बादलों को देखकर अति प्रसन्न हो उठता। कालीदास के मेघ उनकी आत्मा को रस-अनुरक्त करते रहे।
गोरा साहबों की ऐय्याशी भरी रंगरेलियां, गरीब असहाय भारतीय मध्यवित्त परिवार की ललनाओं के रूप लावण्य का शोषण, दासता का तांडव तथा तथाकथित भद्र बंगाली महाशयों का अंग्रेजों के साथ मिलकर बंग बालाओं के चारित्रिक रूपकथा का दुखान्त पटाक्षेप, इन सभी घटनाओं का असर रवीन्द्रनाथ की किशोर चेतना को दुखी और अकेला छोड़ दिया। राज परिवार का कोई सुख उन्हें रास नहीं आता था। वे एक तरह से मन से दरिद्र राजवंशी थे। स्वतंत्र पंछी की तरह उन्मुक्त विशाल आकाश में उड़ना चाहते थे और यही सोच उन्हें शांतिनिकेतन के निर्जन आम्र, पलाश, नारियल के पेड़ों के बीच खींच ले गई जहां वे खूब लिख रहे थे, कविताएं, नाटक, कहानियां, उपन्यास, रम्य-रचनाएं आदि। रंग मंच भी स्थापित किया। 1901 में शांतिनिकेतन की स्थापना की। पौष मास की पूर्णिमा को स्कूल आरंभ किया। नाम रखा विश्व भारती। श्री निकेतन में हस्तशिल्प-स्कूल आरंभ किया। इसके लिए उन्होंने अर्थ जुटाने के प्रयास में पत्नी श्रीमती मृणालिनी देवी के गहने तक बेचे।
जब गांधी जी शांतिनिकेतन में कवि के आमंत्रण पर विशेष अतिथि के रूप में आए थे। गांधी जी को कवि ने कहा, हे महात्मा, आप धन्य हैं। आजादी की लड़ाई में मैं भी आपके साथ काम करना चाहता हूं। गांधी जी ने मुस्कराते हुए कहा- कवि गुरु आजादी की लड़ाई में आपका स्वागत है। उसी दिन से गांधी जी महात्मा कहलाए और कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर, कवि गुरु के नाम से प्रसिद्ध हुए।
कवि गुरु प्रतिदिन नियम पूर्वक चार बजे उठते थे। नित्य कर्म से निवृत्त होकर शांतिनिकेतन के भीतर-बाहर टहलते थे। फिर किसी वृक्ष की जड़ों पर बैठकर पंछियों का कलरव सुनते, कविताएं लिखते। कविगुरु की 1919 से 1939 तक की जितनी कविताएं हैं, उनमें किसी न किसी पंछी स्वर की अनुगूंज प्रच्छन्न रूप में सुनाई देती है। इस बात को रवीन्द्र संगीत की श्रेष्ठ गायिका सुचित्रा मित्रा ने एक बार बातों बातों में कह दिया। उनके गीत स्वरों में कोकिल, हारिल, मैना तथा अन्य पंछियों के बोल का माधुर्य मिश्रित है।
रवीन्द्रनाथ सिर्फ एक कवि, साहित्यकार की नहीं थे एक किसान के रूप में 1890 से 1941 तक शांतिनिकेतन के भीतर बाहर, पाठशालाओं, चिकित्सालयों, सड़कों, तालाबों, सहकारी बैंकों के गठन आदि का कार्य किया तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विकसित करने के लिए हर साध्य प्रयास किया जिससे किसानों की गरीबी से भ्रष्ट साहूकार, सूदखोर मनमाने ढंग से फायदा न उठा सकें। लोभी वकीलों के चंगुल से बचाकर मुकदमें बाजी के झंझटों से छुटकारा पा सकें। वे शांतिनिकेतन के गावों में स्वशासन प्रणाली विकसित करना चाहते थे और इसके लिए कारगर यत्न किए। वर्ष 1913 में उन्हें नोबुल पुरस्कार मिला।
उन्होंने उसमें से पचास प्रतिशत के लभभग कृषि सहकारी बैंक में निवेश किया जिसका गठन उन्होंने खानदानी जागीर वाले गांव पातिसर में किया था। इससे किसानों को कम ब्याज दर पर ऋण की सुविधा मिली और शांतिनिकेतन विद्यालय को निवेश की गई राशि के ब्याज से एक निर्धारित वार्षिक आय प्राप्त होती रही। रवीन्द्रनाथ के मन में जनजीवन के प्रति अद्भुत लगाव का भाव था। वे आम लोगों के जीवनस्तर को उठाने, उनके हर्ष और दुख-सुख, उनके प्यार और प्रतिकार, उनके बहादुरी के कारनामों, अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष से जुड़े रहे, एक खास किस्म का आत्मीय संबंध बनाए रखा। शांतिनिकेतन ग्रामीण, बनांचल में उन्होंने विकास की एक प्रक्रिया को जन्म दिया। उन्होंने सर्वधर्म समभाव समर्थन दिया। हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, आर्य, बौद्ध आदि की धार्मिक प्रवृत्तियों के प्रति तटस्थ रहे और शांतिनिकेतन ब्रह्म समाज मन्दिर की स्थापना कराई। उन्होंने किसी विशेष विचार धारा का अनुसरण नहीं किया। हमेशा जीवन पर्यंत अपनी आत्म-संवेदना को आरोपित होने नहीं दिया। उनके काव्य-जीवन के प्रथम और द्वितीय भाग में बंगला साहित्यकारों, विशेषकर आलोचकों ने उनकी कविताओं, नाटकों, कहानियों पर कटु मनोवृत्ति अपनाई। उन्हें नकारा। उन्हें राजकवि, गवैया, नचनियों आदि संबोधनों से दर किनार किया,  परन्तु 1913 में जब उन्हें नोबुल पुरस्कार मिला। वही विरोधी साहित्यकार महानगर कलकत्ता से झुंड बनाकर उनसे मिलने शांतिनिकेतन पहुंचने लगे। गुरुदेव ने ऐसे विकृत मानसिकता वाले साहित्यकारों से मिलना तक उचित नहीं समझा। वे खिसियाए, खाली हाथ मलते वापस चले गए। उनके जोड़ासांकों राजबाड़ी में भी कई उत्सव आयोजित किए गए; उसमें भी अहंवादी छुटभइए साहित्यकार आमंत्रित नहीं थे। फिर ऐसे साहित्यकारों ने अपनी हार मानी  और कवि के साहित्य पर सकारात्मक रुख अपनाया। उनके साहित्य को आलोचित विश्लेषित किया जाने लगा और रवीन्द्रनाथ को लेखन में अपना गुरु माना।
रवीन्द्रनाथ ने बेहद भावुक, कल्पनाशील, प्रकृति प्रेमी, सौंदर्य रस से परिपूर्ण, अद्वितीय विचार मग्न कोमल कविताएं लिखी। उन्होंने अतीत की स्मृतियों, वर्तमान के संघर्ष और भविष्य के अनदेखे सत्य से अपने को जोड़ा। जैसा कि स्वभावतः किसी भी कवि के हृदय को पहले प्यार की यादें सताती हैं। गुरुदेव भी इस मामले में अछूते नहीं रहे बल्कि दस कदम आगे बढ़कर प्रेमाभिव्यक्ति के गहरे में डूबकर अत्यंत कोमल कविताओं की रचना की। प्यार की यादें जब सताती हैं तो मनुष्य नितान्त अकेला होता है। मौन का कुहासा उसके चारों ओर घिर जाता है।
कवि कहते हैं - 
मैंने कहा था - मैं नहीं भूलूंगा
जब तुमसे आंसुओं से धूमिल आंखों से मेरी ओर देखा था
क्षमा करना, अगर मैं भूल गया
एक अरसा हुआ उस बात को
मेरी आत्मा पर छाप है तुम्हारी काली आंखों की
प्रेम का पहला काव्य पत्र, शर्मीला और सहज
उनके ऊपर तुम्हारे हृदय का हस्ताक्षर
समय ने फेरा था अपनी कूची का आघात प्रकाश
और छाया पथ पर
अगर आज का वसन्त होता है निस्तब्ध
पूर्व वसन्त का संगीत
अगर मेरी पीड़ा के प्रदीप की लौ
चुपचाप विदा हो गई
तो क्षमा करो
मैं इतना ही जानता हूं कि तुम मेरे जीवन में आई
और मेरा जीवन भर गया गीतों की ऐसी फसल से
कि जिसकी विपुलता का कोई अन्त नहीं।

कवि गुरु का अन्तर्मन हमेशा उद्गिन रहता था। इसीलिए वे भारत तथा विदेशों में अधिक यात्राएं करने के लिए कार्यक्रम बना लेते थे। 1912 में ग्यारह देशों की यात्राएं की। इन यात्राओं में कई सुप्रसिद्ध लेखकों के साथ परिचय हुआ। ईट्स, विलियम रोथेस्टाइन उनके अच्छे प्रशंसक बने। उन्हीं की सहायता से कवि ने अपने गीतों के संकलन गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद तैयार किया जिस पर उन्हें नोबुल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पुरस्कार से प्राप्त एक लाख बीस हजार रुपए शांतिनिकेतन को दे दिया। यायावरी प्रवृत्ति बड़े कवि का स्वभाव बन जाती है। कवि ने कई जगह अपने प्रवास के लिए घर बनवाए अथवा बना बनाया घर खऱीदा-दार्जिलिंग, कर्सियांग, रांची, कटक, पुरी आदि जगहों में कवि गुरु प्रायः जाकर रहते थे। प्रकृति के साथ उनका सम्मोहनक संबंध उनकी कविताओं को ऊर्जा प्रदान करता था। कवि के लिए प्रकृति-प्रेमी होना, स्वच्छन्द विचरण करना रचना प्रक्रिया के लिए जरूरी होता है। विविध संदर्भों  से जुड़ना, अपने को भीतर से खोलना कवि का स्वभाव होना चाहिए। समष्टि के प्रति प्रेम भावना की अभिव्यक्ति कविता का महान बनाती है। कवि गुरु अपने लेखन में बेहद व्यस्त रहते थे। बहुमत कम लोगों से मिलते थे और जब किसी से मिलते थे तो अपनी कविताओं पर चर्चा करने से बचते रहते थे। बस कुछ व्यक्तिगत बातें कर लेते और उठकर भीतर चले जाते। रवीन्द्रनाथ का अपना स्वभाव था, अपना मूड था, उसमें कोई दखलंदाजी नहीं। कोई व्यवधान नहीं। वे स्वतंत्र मनश्चेता के स्वच्छन्द कवि थे।
कवि गुरु ने बड़े आर्थिक संघर्ष से विश्वभारती का विस्तार किया, हिन्दी भवन की स्थापना की। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वान को हिन्दी भवन का प्राचार्य बनाया। उनमें हिन्दी, हिन्दुस्तान हिन्दू के प्रति असीम आदर भाव था, लेकिन वे ब्रह्म समाज का मंदिर भी शांतिनिकेतन में बनवाया। वे बंगला और हिन्दी को सहोदराएं कहते थे। बंगाल से बाहर जहां भी जाते बातचीत में हिन्दी का प्रयोग करते थे। उन्होंने गांधीजी के अनुरोध पर वर्ष 1920 में गुजरात विद्यापीठ के दीक्षान्त समारोह में हिन्दी में भाषण दिया और भी कई अवसर पर हिन्दी में बोले। कवि की वाणी में वाग्देवी विराजती थीं इसलिए भाषा का प्रवाह रुकता नहीं था। काव्य लेखन में वे महान थे। गुरुदेव ने बंगला कविता को नई भाव भूमि, नव संप्रेषण, छान्देयता और प्रकृति-छठा के विविध आयामों से समृद्ध किया। बलाका संकलन की चंचला कविता में कवि लिखते हैं -

रे कवि आज तुझको चपल चंचल बना डाला
नवल झंकार-मुखड़ा भुवन की इस मेखला ने
अलिखित पद संचरण की अहैतुक-निर्वाध गति
नाड़ियों में सुन रहा हूं कोई चंचल आवेग की पग-ध्वनि
वक्ष में रण रंजित दुःस्वप्न
कोई जानता नहीं
नाचती हैं रक्त में उदधि की लोल लहरें
कांपती हैं। व्याकुलता वनों की
याद दिलाती वह पुरानी बात-
युग-युग से चला हूं
स्खलित हो होकर
सदा चुपचाप रूप से रूप में ढलता हुआ
प्राण से प्राण में 
प्रात या निशीथ
जब जो कुछ मिला है हाथ में
देता गया हूं
दान से नवदान को
इस गान से उस गान को...
यह कविगुरु की मरने से लगभग वर्ष भर पहले की कविता है जिसमें जीवन का मूलमंत्र है। जब की माला अत्यंत प्राण अस्तित्व धर्मी है।
.... आने जाने वाली राह के किनारे नितांत अकेला बैठा हूं
गीतों की नाव को जो सबेरे प्राणों के घाट पर
धूप छांह के नित्य रंग मंच पर ले आए थे
सांझ की छाया में धीरे-धीरे खो गई।

आज वे सब मेरे स्वप्न लोक के द्वार पर आ जुटे हैं
जिनका सुर खो गया, वे व्यथाएं अपना इकतारा खोज रही हैं
एक-एक कर प्रहर जो बीतते हैं, बैठा-बैठा गिनता हूं
अंधकार की शिरा-शिरा में जप की नीरव भाषा ध्वनित हो रही है।

किसी भी कला के लिए लोक संस्कृति के साथ बंधना जरूरी होता है। यदि उसे नया स्वरूप देना है तो उस नव-स्वरूप के साथ एक रूप होना तथा उस संस्कृति बोध को अपनाना प्रत्येक जागरुक साहित्यकार के लिए आवश्यक होता है। इस अर्थ में कवि गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शांतिनिकेतन के आसपास रहने वाले गरीब, अपढ़, वनवासियों के साथ नृत्य, गान करते, अक्सर कोई न कोई पर्व पर उत्सव मनाते, खान पान होता, नृत्य संगीत का रात भर समा बंधता, कवि उस लोक नृत्य गान के रस में डूब जाते थे। पौष मेला, बड़े दिन के अवसर पर  20 दिसम्बर से प्रारंभ होकर महीनों चलता है। जिसे बंगाल का संस्कृति मेला भी कह सकते हैं। कवि गुरु ने हमेशा लोक जीवन के संस्कारों को प्रोत्साहित किया, नई राह दी, उससे गहरे से जुड़े और भारतीय बंग-लोक संस्कृति को नया आयाम एवं नई ऊंचाई प्रदान की।

गुरुदेव जीवन पर्यन्त कर्मशील रहे। वे आम साहित्यकारों की तरह आलसी, कामचोर, नखरेबाज, दलबंद, आत्म-प्रगल्भी, लोभी कभी नहीं रहे। राज परिवार से उनका मोह बचपन में ही टूट गया था। वे अकेलापन अनुभव करते थे, परन्तु कर्म ने उन्हें उस टूटन, बिखराव, मोह और घुटन से ऊपर उठाया। वे साहित्य कर्मयोगी थे और साहित्य कर्म से मरने के दिन तक जुड़े रहे। उन्होंने मृत्यु का आभास पाकर लिखा था -
सामने शांति-पारावार
खोलदो नाव हे कर्णधार...

गुगुदेव चाहते थे कि मृत्यु के समय यही गीत गाया जाए। परन्तु गीत-स्वर भी तो समय अपने प्रवाह में बहाकर ले जाता है। कवि ने 7 अगस्त, 1941 को राखी पूर्णिमा के दिन अपनी आंखें सदा के लिए मूंद लीं। रह गए उनके गीत जो आज बंगाल के जन जीवन में व्याप्त हैं। बंग-संस्कृति और काव्य का अर्थ ही है गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर। परन्तु गुरुदेव के बाद की बांग्ला-पीढ़ी उनके हिमालय जैसे ऊंचे व्यक्तित्व के सामने साहित्यिक दैन्यता से ग्रस्त है। यह बांग्ला साहित्य की राह में बाधा की सृष्टि उपस्थित कर रहा है। नया रचनाकार इस बात से खिन्न है और हीन भावना से ग्रसित है।
                      - स्वदेश भारती


Monday 5 March 2012

कभी-कभी

कभी-कभी
मैं अपने मन की गहराइयों में डूब जाता हूं
वहां होता है नितांत मौन का सन्नाटा
वहां लहरों का उद्वेलित आत्म-क्रन्दन नहीं होता
और मैं अपने में ही सीमित रह जाता हूं।

कभी कभी
मैं प्रकृति के हास-विलास भारत सौन्दर्य को
हृदय में साधे
उसके नाट्य छन्दों की मधुर झंकार-रस में डूबा
पृथ्वी के सुन्दर उपहारों-वनश्री, झरनों, पर्वतों,
नदियों को, मानव जीवन के सुख दुख का नायक
सागर के आनन्दविह्वल आलोड़न,
पंछियों के सुमधुर गायन से आत्मविभोर
अपने लघुतम जीवन की अर्थवत्ता को संजोता हूं

कभी कभी
संघर्षरत मनुष्य की वेदना से अपने को जोड़ता हूं
उनके साथ पूरी तरह जुड़कर
लोभ, प्रपंच, छल की जंजीरों को तोड़ता हूं
मानव-आत्म-सत्ता को नई राहों की खोज करता
नई दिशाओं में यात्रा को मोड़ता हूं।

                                         28.02.12

भीतर का रीतापन

दिन प्रतिदिन सोच की खूंटी पर
अपना फटा सपना उतारकर टांगता हूं
ऊब और घुटन से भरी दिनचर्या के
विविध रंगों से समय के खंडित कन्वश पर स्मृतियों के आत्मबोध चित्र आंकता हूं
सबेरे की प्रतीक्षा में
अंधकार की सीढ़ियों परबैठा अतीत गुनता हूं
कई तरह से
किसिम किसिम के ताने बाने संयोजित कर
कई कई सपने बुनता हूं
जो दूसोरं से बेहतर हो
सुन्दर हो, विश्वजयी हो, गौरवपूर्ण हो
इसी तरह कल्पना-लोक में आधे में आधा जीता हूं।
ऊपर से भरा भरा
किन्तु भीतर से रीता हूं।

                                      29.2.12


होने, न होने का दर्द
हम इसी तरह चलते रहेंगे समय की पगडंडी पर
युग बदलेंगे
नये लोग जाएंगे, नए जज्बात,
नई संस्कृतियां जन्म लेंगी
हमारे सपने नए-नए रूपों में अपनी मंजिलें खोजेंगे
कभी साकार, कभी निराकार और इसी तरह
समय का पहिया चलता रहेगा...

हम अपने साथ रुदन लेकर धरती पर आए थे
और मौन लेकर चले जाएंगे
जिन्हें आंसू बहाना है, बहाएंगे
शोक मनाना है, वे मनाएंगे
समय हर घाव को भर देता हू
कहता है- चलो, आगे बढ़ो भले ही हो पग श्लना,
कर्म पथ-रक्त लथपथ....

जीवन-प्रवाह के साथ बहता रहेगा
उच्छिष्ठ, अचेतन, विवेकहीन, पथभ्रष्ट
लोभलाभी समष्टि का घिनौना आतंक-पालक
सत्ता-अभिभावनक के पागल अट्ठास में
जन गण मन का विद्रोह कुचलता रहेगा
नए सपने जड़ विच्छिन्न होंगे
गूंजती रहेगी मौन-प्रतिध्वनि
अंतर्निहित इतिहास के किसी कोने में
क्या होगा हमारे होने या न होने में....

1 मार्च, 2012

Saturday 3 March 2012

पृथ्वी का प्यार

मैं जीवन के मायावी खेल का एक पात्र हूं
कभी कठपुतली बन
कभी नाच निदेशक बन
प्रकृति के विविध उपादानों से सजाता रागरंग मंच

सजाता नाट्यशाला
प्रकृति की हरियाली, फूलों, हरे धान की सुषमा
वन-प्रान्तर का मुक्त उल्लास
मनुष्य की हंसी, आनन्द, प्रेम और संघर्ष
सब का करता मेल
खेलता प्रतिपल खेल

यह नाटक अन्त है
मेरे बाद भी चलता रहेगा
जब तक पृथ्वी के गर्भ में
मनुष्य के लिए प्यार, करुणा, त्याग, समर्पण
नव-युग बोध पलता रहेगा।

                                       24.2.2012



पृथ्वी की आत्मीयता
समय का चक्र चलता है प्रतिपल
पृथ्वी के एक अक्षांस से प्रारम्भ होकर
दूसरे, तीसरे, चौथे अक्षांशों तक
अंतरिक्ष में तारे मनाते हैं आनन्दोत्सव
किन्तु पृथ्वीपुत्र आपस में लड़ते झगड़ते
नफरत की आग में जलते
बिता देते हैं जीवन हाथ मलते
विभाजित मानसिकता में पलते
स्वप्न-हन्ता बनकर जीते
ढोते अपने कन्धों पर प्रतिहिंसा, दुराव, लोभ और छल..

पृथ्वी से छिपा नहीं पाते अपने कुकृत्य
अपने और दूसरों के जीव में विष घोलते
समय के पीछे घिसटते, भागते, गिरते पड़ते नष्ट होते
पृथ्वी की गोद में समा जाते
किस कदर भूकम्प, तूफान
दैवी प्रकोप हमारे अस्तित्व को विनष्ट करते
उस समय मनुष्य कितना लघुतम, असहाय, अशक्ती व होता
पृथ्वी का उद्दाम कहर झेलता
अपने ही शव को अपने कंधे पर ढोता
कैसे विलुप्त हो जाता उसका लोभ लाभी अहंकार, छल..
उस समय भी
पृथ्वी अपनी करुणा, अपनी ममता से राहत का स्पर्श देती
नए-नए परिवर्तनों से नव्यतम जीवन-अस्तित्व के संदेश देती
हे पृथ्वी पुत्र! यह धरती तुम्हारी है
जियो सुख से, चखो आनन्द-फल...

                                            25-26.2012


जीवन के बहुआयाम
संबंधों की सतता से भरा यह जीवन
जब प्रेम-प्रवंचना का इतिहास बनता है
हमारे दुखों का अंधकार अपना जाल फैलाता है
चारों ओर अपारदर्शी, असहनीय अंतरव्यथा का कुहासा
घिरता है। खंडित संवेदना का वितान तनता है।
तिरता है आंखों में अकेलेपन का अहसास
पुनसर्जित होती है आशा-प्रत्याशा
जलता है अपनी ही आग से
पल्लवित पुष्पित प्रकल्पित मधुमास
वही होता है अनपेक्षित पराजय का क्षण
सिसकता सुवकता मौन आत्म-क्रन्दन...
किन्तु यही अन्त नहीं होता
जीवन यात्रा-क्रम अन्तिम पड़ाव पर पहुंचकर
फिर से प्रारम्भ करता है नई दिशाओं, नई राहों,
नई नई मंजिलों की खोज
मनुष्य के लिए करता त्याग, बलिदान, सर्वस्व अर्पण
बनाने रखता मनुष्यत्व का ओज
आस्था और विश्वास के साथ बढ़ता है आगे
अंतरिक्ष में दूर दूर फैलाता अपना साम्राज्य
धऱती का ओर-छोर करता जय
मनुष्य अपने संकल्प से, कर्म से बनता ईश्वरमय
बसाता आनन्द-भुवन अपने भीतर-बाहर
करता समष्टि के लिए आत्म-समर्पण
प्रकृति के विविध आयामों से भरा जीवन.....

Friday 2 March 2012

शिकारी और मनुष्य

शिकारी फैला रहे हैं तरह तरह के जाल
तन गए हैं भयाक्रांत दिशाओं के भृकुटी भाल
घर के भीतर घर
उसके भीतर घर
अभाव और भूख की ज्वाला से जल रहे हैं
वे असहाय, अशक्त जीवनयात्रा-पथ पर रक्त पथ
आत्मश्लथ चल रहे हैं
फिर भी समय की आलोछाया के बीच
बहुत सारे सपने ढल रहे हैं
दिशाएं कांप रही अशांत
अपनी ही आग ेस जल रहा मन-मराल..
सुखानुभूति की इच्छा
सूखी नदी की करुणा-कथा बन गई है
मनुष्यता को चोटिल कर रहा
असमय का कहर
देश की रगो में फैल रहा
लोभ, आत्मलाभ और घृणा का जहर
सीमान्त पर घिर रहा आतंक भरा अंधकार विकराल....

सर्वेसन्तु सुखिनः का स्वर
क्रन्दन में बदल गया है
अस्तित्व-रक्षार्थ भाग रहे लोग
दिशाओं के पार
किन्तु देश कभी नहीं माने गा हार
बने गी विश्व मानवता की नई अवधारणा
नव-जीवन-सुरक्षा की ढाल...


ऋतुधर्मी मनुष्य

शिशिर वर्फीला हाथ मिलाकर चला गया
नंगे वृक्षों ने नवपल्लव से तन ढक लिया
कलयुगी भंवरे प्यासे चक्कर लगा रहे वन प्रान्तर
कलियों की गलियों में गूंज रहा उनका आहत-स्वर
उन्हें इस तरह परिवर्तित ऋतुओं और समय-छन्द के विविध आयामों का समझकर
सौंदर्य और प्रेम की शास्वत धारा में अवगाहित करना है
जन-पीड़ा से जुड़कर गाना है
नव युगधर्मा-गान समवेत स्वर
कल मुंही भ्रमर सौन्दर्य की सुगन्धित को नष्ट मत कर
नये रूपों को आत्म-प्रियता देना ही तुम्हार कर्म है
यही बदलते हुए जीवन और समय का धर्म है।

वसन्त-आगमन से प्रेमियों का हृदय धड़कता है
किन्तु शहरी सभ्यता में सने बाबुओं के लिए
बसन्त एक मौसम-परिवर्तन है
उनकी दिनचर्चाओं और सोच में बदलाव नहीं आता
उनके लिए अहम नहीं है कि समय कब, कैसे बदल जाता
सौन्दर्य और प्रेम का उपहार लिए प्रकृति खड़ी मुस्काती है
प्रेम की अन्तर-धारा में बहना, हृदय-सागर में उठती
लहरों के आलिंगन में बंधना ही जीवन का सुख है
फिर मनुष्य क्यों रहता अलग थलग
और समझता है जीवन में निरा दुख है।
                               
                                                          18.2.2012

एक काली छाया मंडराती है हमारे इर्द गिर्द
आक्रामक-पंख पसारे
तोड़ती हृदय-सेतु और सपने न्यारे
जो बुने थे मस्तिष्क के करघे पर
जीवन के अंतिम पड़ाव तक
निराशा और असफलता का विलय कर
एक काली छाया करती सार्जित अंधियारे...

जीवन में पग-पग कितना कुछ बदल जाता
मन के अभयारण्य में कोई भटक नहीं पाता
यद्यपि कि हरियाली और सौंदर्य से
तरह-तरह के फूलों की सुगंधित से
मनोरम बनाता है पूरा वातावरण
उस सब की कल्पना से
सौन्दर्य और सुवास से
भरा था अन्तरतम जीवन के प्रथम चरण में
धान की हरियाली और अमराई के बीच
प्लिपथ पर धर दुआरे...

कई बार जीत के नगाड़े बजे थे
नगर की अट्टालिकाओं से प्रतिध्वनित होकर
मस्तिष्क के आरपार गूंजे थे
कितने सारे संघर्ष-चित्र बने और मिटे थे
परन्तु प्रवंचना और छल के बाज पंख पसारे
दुर्दमनीम आतंकधन करते रहे
घिरती रही काली छाया
जब-जब जीवन की आपाधापी में पंथ हारे...

                                                     20.2.12

अज्ञेय संगोष्ठी-मुझे निमंत्रण नहीं मिला। जो अज्ञेय पर अंगुली उठाते थे। उन्हें गालियां देते थे ऐसे कई चेहरे आमंत्रित थे।

कितनी ही बार
कितने तरीके से
मैने बनाए स्वप्न-जाल
और उसमें उलझता गया
कई बार जाल टूटे अथवा बेरहमी से तोड़े गए
और मैने फिर फिर से बनाए स्वप्न जाल नए-नए
चाहे दिन का प्रकाश रहा
अथवा निविड़ अंधकार
कितनी ही बार....

कई कई तरह से पथ को बदला
कभी मरुथल के बीच
कभी बर्फाच्छादित पर्वतों के तंथ पथरीले पथ पर
कभी नदी तट
तो कभी-सागर-तट पर
कभी अरण्य-वीथियों के बीच
यात्रा करते हुए
मुट्ठियां बांधते हुए नए प्राण किए
दिन-प्रतिदिन
जब उग आया प्रभात सुनहरा-रुपहला
फिर दिनचर्चाओं के बीच भोगा असहृय निष्कारुण
प्रवंचना का निष्ठुर प्रहार
कितनी ही बार...

स्मृतियों का प्रदीप जलाए रखा
बनाया जन-जन को आत्मीय सखा
किन्तु अपनी आत्म छलना से उन्होंने
उस दिए को बुझा दिया
अनात्म बोध घिर आया असाध्य दुर्निवार
कितनी ही बार...।

                                             21.02.12



कविगुरु रवीन्द्रनाथ और बांग्ला साहित्य

 
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Thursday 1 March 2012

नंगी नाच

हलवा मिट्टी की पर्तदर पर्त तोड़ रहा
जुलाहा करघे पर टूटे धागों को जोड़ रहा
इतिहास राजपथ की भव्य काली सड़क पर दौड़ रहा

हत्या, प्रताड़ना, दुःख और क्षोभ  से उदास है किसान
विकास की सूखी लता भूख के पेड़ पर बाह बद्ध प्रियमा
पल्लिपथ पर उड़ रही धूल, सोई धरती तान, वितान
सत्ता लिखती आजादी का दैन्य-विधान

कौन है भारत भाग्य विधाता? कौन जनत्राता
कौन है सवा करोड़ भारतवासियों का रक्षक,
कौन है देश की स्वतंत्रता, अखंडता, सीमाओं का रखवाला
कौन है भारत-भाग्य विधाता

क्यों नहीं देखते जनता का शोषण-संत्रास
भूख, बीमारी, अभाव ग्रस्तता, संस्कृतियों का ह्रास
क्यों नहीं सुनते जन जन की आवाज
क्यों नहीं समझ पाते अतीत, वर्तमान और भविष्य का इतिहास
क्यों नहीं रुकता लगातार चलता नगर नाच

वसन्तोत्सव
हमारे  चारों ओर प्रकृति अपने अंग-प्रत्यंग को
नव पल्लव, किसिम किसिम के फूलों से सजा रही है
तन-उपवन में नई बहार आई है
मधु-माताल बयार आनन्दतिरेक में
नववसन्त आगमन का संदेश लाई है
चारों और मादल सुगन्ध छाई है
किन्तु आकाश में दहशत है
दिशाएं भयाक्रांत कांप रही हैं
युद्ध की विभीषिका हमारे बहुत कई आई है
इतिहास कर रहा अट्ठास
अणु बमों से लैस खड़ा है वर्तमान करने विनाश
पीला पड़ गया है, भय और आतंक से, ठहर गया है
वसन्तोत्सव का हास-विलास.....