Wednesday 31 January 2018

                                 जन-चिन्तन

प्रिय मित्रो, जीवन अमूल्य है और ज्ञान की कोई सीमा नहीं। साहित्य जीवन को
शालीन सभ्य और सुसंस्कृत बनाता है, कविता हृदय को प्रेम समर्पण का मंत्र देती है।
मैं लगभग 6-7 वर्षों से अपनी कविताएं लेख आदि ब्लाग, फेसबुक, ट्यूटर पर दे रहा हूं।
बहुत से मित्रों ने पढ़ा और सराहा है। साहित्य-पाठ्य-परंपरा को जीवित रखना
भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति महत्त्वपूर्ण अवदान देश को साहित्य, कला,
संस्कृति के क्षेत्र में महान बनाता है।

मेरा विनयपूर्ण निवेदन है कि अधिक से अधिक मित्रगण साहित्य लेखन, पाठन से जुड़े,
अपनी प्रतिक्रिया, सलाह, सम्मति को साझा करें।
                                                                  - स्वदेश भारती

उत्तरायण,
331 पशुपति भट्टाचार्य रोड
कोलकता-700 041
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        91-8240178035
       

Wednesday 24 January 2018

जन चिन्तन

आदमी के भीतर कभी न शान्त होनेवाली भूख होती है। भूख-रोटी के लिए, भूख-प्रेम के लिए, भूख-धन, संपत्ति ऐश्वर्य के लिए, भूख-महत्त्वाकांक्षा के लिए, भूख-सम्मान, प्रतिष्ठा प्रभुता के लिए, भूख-ईश्वर प्राप्ति, मोक्ष के लिए। भूख मिटने, मिटाने का कोई स्थायी उपाय, विधि विधान, मंत्र-तंत्र, ज्ञान नहीं। जब से पृथ्वी अपने अस्तित्त्व में आई ईश्वर ने मानव, दानव, चर-अचर के पेट में भूख भी दे दिया। जिसके लिए आदमी, जानवर, पशु-पक्षी तैंतीस कोटि जीव अपनी भूख शांति के लिए तरह तरह के उपाय करते रहे हैं। प्रतिदिन पेट की आग में हजारों हजार मन अन्न, जल, फल, फूल, सब्जिया, भक्षाभक्ष- मांश, मदिरा खप जाते हैं। फिर भी भूख, अभाव से जीवों की इच्छाओं को शान्त नहीं किया जा सकता। भूख, अभाव, दरिद्रता दूर करने के लिए सरकारें बनती हैं। योजनाएं बनती हैं। असंख्य कार्यक्रम चलते हैं परन्तु भूख पर नियंत्रण रखने में विश्व भर की सरकारें असफल हो जाती हैं। उन्नत, अर्थउन्नत, देशों में भी असंख्य लोग भूख से छुटकारा नहीं पाते। अरबों, खरबों, क्विंटल अनाज, फल, सब्जियां भी धरतीजनों की भूख को मिटा नहीं पाती। सनातन काल से साधु, सन्यासी, योगी, महात्मा भी भूख की मार को झेलते हैं। चाहे कर्म योगी हों अथवा ज्ञानयोगी। भूख की ज्वाला से बच नहीं पाते। ज्ञान ध्यान भूख की चपेट में आकर निष्क्रिय हो जाता है। पुराणों में वर्णित है कि महामुनि नारद ने भूख की ज्वाला से ज्ञाहि त्राहि करते हुए कुत्ते का मांश तक खाया है। मोक्ष प्राप्ति के लिए जिन्होंने घर-बार कुटुम्ब परिवार छोड़ा और तपोवनों की ओर प्रस्थान किए, अपने साथ कुछ न कुछ खाने के लिए रख लिया। तपो वनों में तपस्यारत साधु, सन्यासी, योगी भूख लगने पर कन्द मूल, फल, से भूख की ज्वाला को शान्त करते रहे। हिरण तथा अन्य पशुओं का शिकार कर भूख मिटाते रहे। मनुष्य घर-परिवार, सांसारिकता त्यागकर तो रह सकता है परन्तु भूख से मुक्ति पाना कठिन होता है। भूख से हजारों लाखों लोग मर गए या आत्महत्याएं कर ली। भूख की आग सहन न होने के कारण प्रेम, अप्रेम में बदल जाता है। घर-सम्बन्ध टूट जाते हैं। पेट के लिए चोरी, डकैती, हत्याएं करता है। तरह तरह के जघन्य पाप कर्म करता है और यातनाएं सहता है।

ईश्वर ने इन्सान, जानवरों, चिड़ियों, वन्य जीवों, जल जीवों को बनाते समय यही सोचा होगा कि भूख ही मनुष्यों तथा अन्य जीवों को कुछ न कुछ अच्छा या बुरा करने के लिए प्रेरित करेगी। भूख ही दुनिया के परिवर्तन का मुख्य कारण बनेगी। भूख ही सत्-असत् अस्तित्त्व-अनस्तित्त्व धर्म का मूल कारण भी बनेगी। मोक्ष के लिए भूख पर नियंत्रण पाने का अर्थ है मृत्यु को गले लगाना। अपने अस्तित्त्व को समाप्त करना। क्योंकि भूख में ही जीवन के सारे अर्थ छिपे होते है। पेट की भूख और प्रेम की भूख सभी जीवों के अस्तित्त्व के दो सार्थक तथ्य है। इन दोनों के कारण ही सृष्टि का उद्भव, विकास और संहार का मर्म है। भूख से छुटकारा पाने की सार्थक कोशिश ही मनुष्य का कर्म और धर्म है।
                                                                                                       -स्वदेश भारती
देश की राजनीति का कारवां

संक्रामक काल के रास्ते पर तेजी के साथ गुजर रहा है, देश की राजनीति का कारवां। रास्ते में जगह-जगह मील के पत्थर गाड़े गए हैं जिन पर लिखा है-जनकल्याण, सर्वांगीण विकास, जवान और किसान की प्रगति किन्तु अन्तिम लक्ष्य लोभलाभी सत्ता है। आज तो भारतीय लोकतंत्र की यही वोटवादी महत्ता है।

ऐसे माहौल में आम जनता को सचेत होना है। अन्यथा देश की आजादी को खोना है और अपनी अचेतनता पर रोना है।

                                                                                                      -स्वदेश भारती

Wednesday 17 January 2018

राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा और कुछ प्रश्न

राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा में इतनी लोभ-लाभी फितरत क्यो हैं? इस फितरत में झूठ, फरेब, असहिष्णुता, अपसंस्कृति, मानवीय मूल्यों की अवमानना जन-चेतना का भटकाव तथा कुटिल प्रवंचना का अन्तहीन नाटक क्यो? भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के विपरीत विखराव क्यों? लोकतांत्रिक देश की गरिमा को कम करने का दुश्चक्र क्यों? पक्ष-विपक्ष के बीच स्तरहीन निम्नस्तरीय व्यवहार क्या इस तरह के माहौल में क्या देश सर्वांगीण विकास और प्रगति के रास्ते पर चल पाएगा? इन परिस्थितियों में क्या भारतीय अस्मिता खंडित नहीं हो रही है? हम निजी और दलगत लाभ लोभी राजनीति की मानसिकता से निकलकर देश की मर्यादा और विभिन्न धर्मों, जातियों के बीच समन्वय स्थापित करने की दिशा में काम नहीं कर सकते?
                                                                                                -स्वदेश भारती

Monday 15 January 2018

न्यायपालिका के संदर्भ में

हमारी आजादी न्यायपालिका के कारण ही आज तक सुरक्षित रही। हमारे देश की विडम्बना रही है कि आजादी के बाद राजनैतिक स्वार्थ और लाभ के लिए बड़े-बड़े अगणतांत्रिक फैसले लिए जाते रहे हैं और जनता मौन, मूक भाव से सब कुछ देखती सहती रही है। हमारे देश की जनता अत्यन्त सहिष्णु है और ईश्वर-आश्रित रही है। यही कारण है कि हम हजारों साल तक गुलामी की जंजीरों से बंधे रहे। एक मसीहा गांधी ने हमारी कमजोरी को परखा और स्वाभिमान के साथ अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने का मंत्र दिया. लम्बे समय से सोई जनता को जगाया। देश को अंग्रेजी साम्राज्यवाद से मुक्ति दिलाया। आज भारतीय लोकतंत्र में जनता जागरूक हो गई है। स्वार्थ और लोभलाभी सत्ता की राजनीति करने वालों को स्वतंत्र भारत की जनता की नब्ज पहचानने में गलती नहीं करना चाहिए।
                                                                                    -स्वदेश भारती

Thursday 11 January 2018

जन-चिन्तन

जीवन की सच्चाई


मैंने देखा बागान में पत्रविहीन टहनियों में हरी कोंपलें मुस्करा रही हैं, किन्ही-किन्ही पेड़ों पर छोटे-छोटे हरे पत्ते हवा में नाच रहे हैं। वसन्त आने की आहट लगी, अब सर्दी जानेवाली है। इस मौसम परिवर्तन को लगातार जन्म से आजतक देखता आ रहा हूं। ठीक नियत समय पर मौसम तेजी से बदल जाते हैं। हमारे जीवन में भी पल-प्रतिपल, दिन-प्रतिदिन, बदलाव आता रहता है। जो आज है, कल नहीं रहेगा। उसका रूप बदल जाता है। रूप-सौन्दर्य, दुख-सुख, हर्ष-विमर्ष, प्रेम-अप्रेम, जीवन-मृत्यु हंसी-आंसू सभी कुछ जीवन परिवर्तन के अधीन होते हैं। प्रकृति और माया हमारे आगे पीछे सर्वत्र, प्रतिक्षण नित नवीन विभिन्न मुद्राओं में अपना नृत्य दिखाती रहती है। इस छलना से हम छले जाते हैं और जीवन में भाग्य-अभाग्य को लेकर चिन्ता करते हैं। मैंने यह जाना है कि प्रकृति की इस परिवर्तन लीला को गहरे से मनन करते हुए जीवन की सच्चाई को स्वीकार करना है।
-स्वदेश भारती

Tuesday 9 January 2018

          जन-चिन्तन

1) यह जरूरी है-
हम आत्मविश्लेषण करे
कि हमने कितना गंवाया
कितना पाया
और यह भी कि
कैसे कितना गंवाया
कैसे कितना पाया।
                -स्वदेश भारती

उत्तरायण-कलकत्ता-41
1 जनवरी, 2018

2) देने में जो आत्म-सुख होता है
पाने में नहीं होता
क्योंकि देने वाले बहुत कम लोग होते हैं
और पाने वाले बहुत सारे हैं।
                          -स्वदेश भारती

उत्तरायण-कलकत्ता-41
2 जनवरी, 2018

3) जो जरूरतमन्दों की मदद करते हैं
वही सच्चे ईश्वर भक्त होते हैं
दूसरों की सहायता करना ही
ईश्वर की असली पूजा है।
                                  -स्वदेश भारती

उत्तरायण-कलकत्ता-41
3 जनवरी, 2018

4) महात्मा का कठिन कर्म
क्षण और समय की पावंदी है
जो लक्ष्य प्राप्त करने के मुख्य साधन हैं
कुछ ऐसे भी महात्मा होते हैं
जो लक्ष्य-पथ पर चलते चलते थक कर
हारी मान लेते हैं
वे अपने जीवन की
सार्थकता खोते हैं।
                                      -स्वदेश भारती
उत्तरायण-कलकत्ता-41
4 जनवरी, 2018

5) ज्ञान, कर्म और धर्म का अटूट नाता है
जो ज्ञान से विलग होकर धर्म में आस्था रखते हैं
वे बहुत शीघ्र धर्म की सीढ़ियों से
फिसल कर निराशा के अन्धकूप में गिरते हैं।
                                                        -स्वदेश भारती

उत्तरायण-कलकत्ता-41
5 जनवरी, 2018

6) ज्ञान बुद्धि और भक्ति से
शरीर की सारी नौ इन्द्रियों को
वश में किया जा सकता है
किन्तु मन की चंचलता को नियंत्रित
करना कठिन काम होता है।
                                              -स्वदेश भारती

उत्तरायण-कलकत्ता-41
6 जनवरी, 2018

7) आदमी अपने कठोर परिश्रम और
उच्च महत्त्वाकांक्षाओं से इतिहास बनाता है
वही आलस और अकर्म से
आदमी होने से नीचे गिर जाता है।
                                                         -स्वदेश भारती

उत्तरायण-कलकत्ता-41
7 जनवरी, 2018

8) आत्मलोभ और असहिष्णुता से
समाज में पैदा होती है विषमता
प्रेम, करुणा और त्याग से
जीवन और समाज में आती है समरसता।
                                         -स्वदेश भारती

उत्तरायण-कलकत्ता-41
8 जनवरी, 2018

9)             मनुष्य और स्त्री


विधाता ने सृष्टि चलाने के लिए
मनुष्य और स्त्री की रचना की
पुरुष, नारी के लिए आचार संहिताएं बनाई
प्रेम, समर्पण, त्याग, करुणा, दया, ममता के
अनेको आचार, विचार, व्यवहार बनाए
फिर भी मनुष्य और स्त्री ने, आजादी-
स्वच्छन्द जीवन की गुहार लगाती रही
और आज भी वही सब कुछ चल रहा है।
                                   -स्वदेश भारती
उत्तरायण-कलकत्ता-41
9 जनवरी, 2018


Sunday 7 January 2018

गुनता हूं इस युग की बानी
बरसे बादल भीगें पानी
राजनीति की यही कहानी
नेता बादल जनता पानी


सच्चाई का दर्द होता है
झूठ का बेदर्द होता है
हिम्मत से मर्द होता है
झूठ में बेपर्द होता है


लक्ष्य तक पहुंचने के लिए
दिल में हौसला चाहिए
त्याग और सेवा से
लोगों का भला चाहिए।

Thursday 4 January 2018

माननीया श्रीमती सुषमा स्वराजजी संसद में हिन्दी को राष्ट्रसंघ की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान कराने के विषय में जो कुछ कहा वह केवल राजनैतिक दृष्टि है। मान्यता दिलाने का संकल्प नहीं। राष्ट्रसंघ की भाषा की मान्यता के लिए सर्वप्रथम उस देश की भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता प्रदान करना जरूरी है। तब राष्ट्रसंघ की भाषा के रूप में उस भाषा को मान्यता दिलाने का संकल्प करना है। माननीया, इस विषय में मैंने माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदीजी, आपको तथा गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंहजी को कई पत्र, स्मरण-पत्र भेजे परन्तु अभी तक कोई सकारात्मक कार्रवाई नहीं हुई। आप इस बात से अवगत होंगी ही कि किसी भी स्वतंत्र सार्वभौम राष्ट्र के चार आधार स्तम्भ होते हैं। 1. संविधान  2.  राष्ट्रध्वज  3.  राष्ट्रगान  4.  राष्ट्रभाषा।
भारत को आजाद हुए 70 वर्ष हो गए। हमें तीन आधार स्तम्भ मिले चौथा अभी तक नहीं मिला।