Saturday 16 July 2011

हिन्दी संस्मरण- हरिवंशराय बच्चन- मधुशाला के अमर गायक

अज्ञेय के बाद मेरे जीवन में कविवर हरिवंश राय बच्चन का विशिष्ट स्थान है। जब मैं इविंग क्रिश्चियन कॉलेज इलाहाबाद  में आई.एस.सी. प्रथम वर्ष का छात्र था तो मैं अपने हाथ से प्रतिदिन चरखा चलाता था और वही सूत खादी भंडार चौक को देता था। वे कपड़ा बनवा देते थे। उसी कपड़े का कुर्ता-पायजामा सिलवाकर पहनता था। अपने हाथ से धोता था और लोटा में आग भरकर संड़सी से लोटा पकड़कर कपड़ों पर स्त्री भी कर लेता था। इविंग क्रिश्चियन कॉलेज उस समय भारत का श्रेष्ठ शिक्षण संस्थान था। कॉलेज के प्रायः सभी प्रोफेसर विदेशी थे। कॉलेज का लंबा चौड़ा मैदान, टेनिस कोर्ट, बास्केट बॉल, फुटबाल के हरे-भरे मैदान तथा इनडोर गेम के विविध संसाधन के साथ यमुना तट पर छात्र तथा छात्राओं के लिए वोटिंग क्लब, प्रार्थना के लिए चैपल, विशाल हॉल, फिजिक्स, केमिस्ट्री, आर्ट्स डिपार्टमेंट के अलग-अलग भवन, लड़कियों का अलग हॉस्टल और लड़कों के दो अलग हॉस्टल थे। प्रायः सभी अध्यापक, प्राध्यापक बड़ी मेहनत से छात्र-छात्राओं को पढ़ाते थे। प्रत्येक वर्ष कॉलेज का अच्छा रिजल्ट आता था।  मुझे हिन्दी-अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई जाती थी। कबीर, रहीम, मीरा, सूरदास, तुलसी दास, जयशंकर प्रसाद, पंत, महादेवी वर्मा आदि की कविताओं के भावार्थ अंग्रेजी में लिखना पड़ता था। कॉलेज का अनुशासन बहुत कड़ा था।

उस समय मैं खदर पहनता था और चुरीदार पायजामा तथा कुर्ता में ही कॉलेज जाया करता था। मैं गांधी, विनोबा भावे के रंग में डूबा था। कॉलेज में बहुत शीघ्र मुझे हर छात्र-छात्रा तथा प्रोफेसर पहचानने लगे थे। मैं लड़के-लड़कियों को अपने राष्ट्रीय विचारों से प्रभावित करता रहा और कॉलेज में गांधी प्रार्थना समाज तथा नेशनल सर्विस एसोसिएशन की स्थापना की, जिसकी अनुमती प्रिंसिपल डॉ. गिडियन  से ले ली। और प्रत्येक शुक्रवार को एक बैठक करने लगा। जिसमें हमारे प्रोफेसरों में सबसे अधिक उदार मना फिजिक्स के प्रोफेसर डॉ. आर. के. शर्मा का वरदहस्त मुझ पर था। हम प्रत्येक साप्ताहिक सभा में कॉलेज के किसी न किसी लेक्चरर को आमंत्रित करते और राष्ट्रीय विषयों पर उनका भाषण करवाते। पहले तो छात्र-छात्राओं ने इस बारे में कोई रूचि नहीं ली। फिर एक बार जब मधुशाला के अमर कवि श्री हरिवंश राय बच्चन को गांधी प्रार्थना समाज की बैठक में आमंत्रित किया तो उनका जी भर कर स्वागत किया गया। वे हम छात्रों से बेहत घुल मिल गए। पहले दिन उन्होंने सूत की माला  काव्य संकलन से कई कविताएं सुनाई। एक संक्षिप्त भाषण भी दिया। उसके बाद बच्चन जी से हमलोगों ने प्रार्थना की कि वे प्रत्येक शुक्रवारी सभा में आएं और हमलोगों को अपनी कविताएं सुनाएं तथा हमारा मार्ग दर्शन करें। बच्चन जी ने हमारा निवेदन स्वीकार कर लिया। वे नियत समय पर शाम 6.00 बजे कॉलेज आते, कविताएं सुनाते, हमलोगों से बातचीत करते और चले जाते। बच्चन जी के साथ लगभग दो वर्षों का सानिध्य मुझे काव्य रस में भिंगोया, परिमार्जित किया और जब जून 1955 में उत्तर प्रदेश  के सभी कॉलेजों के बीच एक निबंध प्रतियोगिता हुई। विषय था 'अहिंसा के द्वारा ही विश्व शांति संभव है।' उस प्रतियोगिता में मैंने भाग लिया और मुझे प्रथम स्थान मिला। दारागंज में पुरस्कार समारोह था। मंच पर काका कालेलकर, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, कविवर बच्चनजी, हमारे कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. एस. एस. गिडियन महोदय तथा अन्य महानुभाव बैठे थे। जब पुरस्कार के लिए मंच पर मुझे बुलाया गया तो सभी ने खड़े होकर करतल ध्वनि के साथ मेरा स्वागत किया। मैं उस समय बहुत दुबला-पतला था। सफेद खदर के कुर्ता-पैजामा में और भी दुबला लगता था। मंच पर मुझे बहुत सारी पुस्तकें तथा अन्य उपहार दिए गए। सारे उपहार राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ही दिए। उन्होंने मुझसे पूछा, बेटे क्या तुम कविता लिखते हो?  मैंने कहा-जी! उन्होंने कहा- लेकिन तुम्हारा नाम शारदा प्रसाद उपाध्याय 'शारदूल' बहुत बड़ा है और जंचता नहीं। यदि तुम मेरी बात मानो तो मैं कुछ सलाह दूं। मैने संकोचवश कहा- आप जो कहेंगे मैं उसे सिरोधार्य करूंगा। वे प्रसन्न होते हुए बोले- तुम अपना नाम स्वदेश भारती रख लो। अपने घर में भी अपने माता-पिता से सलाह कर लेना। क्योंकि नामकरण की बात है। मैंने उनका पांव छुआ। उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया। फिर मैंने कालेलकर जी एवं बच्चन जी का पांव छूआ। बच्चनजी उठकर मुझे आशीर्वाद देते हुए बोले- तुम स्वदेश भारती, आज से कविताओं में अपने को बांधो और अच्छे से लिखो। मैं जीवन में इतना प्रसन्न कभी नहीं हुआ था। समारोह में कॉलेज से मेरे साथ बीएसी प्रथम वर्ष की छात्रा संतोष मल्होत्रा भी गईं थी। उसने और हमने सारी उपहार सामग्री को लेकर रिक्शे से वापस जब लौटे तो बारीश होने लगी। कॉलेज पहुंचकर मैंने गर्ल्स हॉस्टल में संतोष को छोड़ा और उसी रिक्शे से जब चलने लगा तो उसने कहा आप भींग जाएंगे। इसलिए मेरा रेनकोट ले लीजिए। मैंने अनिच्छा पूर्वक रेनकोट ले लिया। फिर तो हॉस्टल पहुंचने पर सारे छात्रों ने उस रेनकोट की ऐसी की तैसी कर दी। सबने उसे पहना, सूंघा, आकाश की तरफ उछाला और एक रंगीनी का माहौल छा गया। कोई मुझे धन्यवाद दे  रहा था और कोई अपने आपको रेनकोट पहनकर सौभाग्यशाली कह रहा था। लेकिन जो पुरस्कार मुझे मिला था उस पर किसी लड़के ने न तो कोई कमेंट किया और नहीं पुस्तकों को खोलकर देखा। इससे मेरे भीतर एक अजीब सा तनाव और दुख भर गया। फिर भी उस दिन के दो महापुरुषों के आशीर्वाद को मैंने अपने जीवन का सबसे बड़ा दान समझकर लड़कों की बदतमीजी को आत्मसात कर लिया। दूसरे दिन मैं बच्चन जी के घर गया। उन्हें धन्यवाद देने और यह कहने कि आदरणीय दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त) के आदेश का मैं जीवन भर पालन करता रहूंगा। बच्चनजी बेहत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा - तुम जैसा मेधावी छात्र अंग्रेजी कालेज में पढ़ते हुए भी हिन्दी के प्रति इतनी आस्था रखता है, इससे मुझे बहुत प्रसन्नता है। तुम्हारे कारण ही मैं गांधी प्रार्थना समाज में जाता रहा हूं और आइंदा भी जाता रहूंगा।

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