कितने सारे ऊबड़ खाबड़
टेढ़े मेढ़े, मरुजीवी, जलजीवी, थलजीवी भूमि -खण्डों
सघन वनांचल, ऊंचे नीचे रास्तों
अनगिन चौराहों को पार कर
चलता हुआ पथिक अबाधगतिक
एक चौराहे पर रुक गया है
आशा अभी भी बिल्ली की आंख की तरह
चमक रही है
औदार्य-कम्पन में
कहीं भी शिथिलता नहीं है
अभी तो और भी चलना है
और भी आगे
सूर्य की तरह
अपने गन्तव्य तक जाना है
और उसी तरह ओजस्वी लाल रंगोली त्यौहार मनाते
सांध्य-क्षितिज आंगन में
शून्यता की ओट ढलना है
अभी और चलना है
और भी आगे
क्योंकि इसी क्रम में
नए बदलाव में
बदलना है।
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