भयाक्रांत हो गया सारा शहर
भूकंप की चोट से आहत
सुनामी न आने की घोषणा से मिली कुछ राहत
चालीस देशों में लोग आफिस घर छोड़कर
सुरक्षा के लिए सड़कों पर आ गए
चारों ओर छा गया हड़कम्प
बड़े, बूढ़े, बच्चे, जवान
सभी भय से अवाक थे बेजुबान
कब आएगा भूकंप
कब सागर की लहरें बन जाएगी मृत्यु परिदृश्य
कब आएगा महाकाल का कहर...
प्रृति का यह कैसा त्रासद-नर्तन है?
असमय विभीषिका और मृत्यु का कैसा अवदान है
पृथ्वी करवट बदलती है समय-असमय
समुद्र की बाहों में
कैसे आत्मतरंगित होती है अपनी मिलन चाहों में
उसके समक्ष मनुष्य बौना होता है
छिन-भिन्न हो जाती उसकी सारी इच्छाएं
सत्ता का लोभ-लाभी खेल भी थम जाता
विश्व आश्चर्यचकित हो जाता
भय और आतंक छा जाता है डगर-दर-डगर,
प्रकृति के सामने इनसान कितना असाहय,
लघुतम और असमर्थ है
क्या जीवन का यही अर्थ है?
कितना और कैसे हो सकता है मानव स्वच्छन्द
अपने भीतर कितना खुला हुआ, कितना बन्द...
कोलकाता - 11 अप्रैल, 2012
शब्दों के मेले में
शब्दों के मेले में ढाई शब्द
ही बहुत हैं जरूरी
और उनसे ही बना है संसार-चक्र
हमारा विश्वास,
हमारी आस्थाएं
हमारी मान्यताएं
सभी उन दो शब्दों के इर्द-गिर्द प्रभावित होती हैं
जीवन लेता है ऊर्जा पर्वत हो या पारावार
प्रकृति ग्रहण करती है हरीतिमा, करती श्रृंगार
जन-जन में छा जाता है आत्मविभोर आनन्द
बस दो शब्द ही बदल सकते हैं
पृथ्वी पर छाया अवरोध-विरोध, अज्ञान, असमर्थता
मारकाट, आतंक, प्रतिशोध, विध्वंश, मजबूरी
प्रेम ही हमें रख सकता है सुरिक्षित, प्राणवान,
घटा सकता है हिंसा, रक्तपात आशांति,
मनुष्य के बीच बढ़ती जाती दूरी
प्रेम ही, केवल प्रेम ही है
हमारे लिए आवश्यक और जरूरी...
कोलकाता - 12 अप्रैल, 2012
जीने की पीड़ा
आज भी शताब्दी की पागल झंझाका
विनाशक, असहनीय संताप सह सकता हूं
शब्दों का कवच बनाकर
त्रासद विभीषिका जन-प्रतिरोधक खेल के
रोचक-अरोचक दांव-पेंच, हारजीत कह सकता है
समय हारता नहीं
न मनुष्य से न ही प्रकृति से
मैं युग-पीड़ा की संवेदना को
नियति की झोली में लिए
अराजकता के घने जंगलों, निर्जन मरुस्थलों,
मौन पर्वतों और लहराते सागर-तट तक
अपनी नीरस दिनचर्या को निरस्त्र किया
जिया किन्तु बेमेल जिया और आत्मसात किया।
जैसा जिया वैसा जनजन को नहीं दिया।
कोलकाता - 13 अप्रैल, 2012
नववर्ष
पहला बैसाख, बंगला -नववर्ष
बंगाल का बहुमूल्य त्यौहार है
लोग चाहे जिस हाल में हो
गरीबों, अमीरों में आनन्दभरा उत्सव-हर्ष है
बंगला संस्कृति का पहला बैसाख श्रेष्ठ विन्दु है
जहां से जन्म लेती है वंग-संस्कृति स्वस्थ अभिराम
विकीरित होते हैं विविध शब्द-रूप, कला-आयाम
माटी के प्रति प्यार ही बंग मानुष का आत्म-उत्कर्ष है।
कोलकाता - 14 अप्रैल, 2012
भूकंप की चोट से आहत
सुनामी न आने की घोषणा से मिली कुछ राहत
चालीस देशों में लोग आफिस घर छोड़कर
सुरक्षा के लिए सड़कों पर आ गए
चारों ओर छा गया हड़कम्प
बड़े, बूढ़े, बच्चे, जवान
सभी भय से अवाक थे बेजुबान
कब आएगा भूकंप
कब सागर की लहरें बन जाएगी मृत्यु परिदृश्य
कब आएगा महाकाल का कहर...
प्रृति का यह कैसा त्रासद-नर्तन है?
असमय विभीषिका और मृत्यु का कैसा अवदान है
पृथ्वी करवट बदलती है समय-असमय
समुद्र की बाहों में
कैसे आत्मतरंगित होती है अपनी मिलन चाहों में
उसके समक्ष मनुष्य बौना होता है
छिन-भिन्न हो जाती उसकी सारी इच्छाएं
सत्ता का लोभ-लाभी खेल भी थम जाता
विश्व आश्चर्यचकित हो जाता
भय और आतंक छा जाता है डगर-दर-डगर,
प्रकृति के सामने इनसान कितना असाहय,
लघुतम और असमर्थ है
क्या जीवन का यही अर्थ है?
कितना और कैसे हो सकता है मानव स्वच्छन्द
अपने भीतर कितना खुला हुआ, कितना बन्द...
कोलकाता - 11 अप्रैल, 2012
शब्दों के मेले में
शब्दों के मेले में ढाई शब्द
ही बहुत हैं जरूरी
और उनसे ही बना है संसार-चक्र
हमारा विश्वास,
हमारी आस्थाएं
हमारी मान्यताएं
सभी उन दो शब्दों के इर्द-गिर्द प्रभावित होती हैं
जीवन लेता है ऊर्जा पर्वत हो या पारावार
प्रकृति ग्रहण करती है हरीतिमा, करती श्रृंगार
जन-जन में छा जाता है आत्मविभोर आनन्द
बस दो शब्द ही बदल सकते हैं
पृथ्वी पर छाया अवरोध-विरोध, अज्ञान, असमर्थता
मारकाट, आतंक, प्रतिशोध, विध्वंश, मजबूरी
प्रेम ही हमें रख सकता है सुरिक्षित, प्राणवान,
घटा सकता है हिंसा, रक्तपात आशांति,
मनुष्य के बीच बढ़ती जाती दूरी
प्रेम ही, केवल प्रेम ही है
हमारे लिए आवश्यक और जरूरी...
कोलकाता - 12 अप्रैल, 2012
जीने की पीड़ा
आज भी शताब्दी की पागल झंझाका
विनाशक, असहनीय संताप सह सकता हूं
शब्दों का कवच बनाकर
त्रासद विभीषिका जन-प्रतिरोधक खेल के
रोचक-अरोचक दांव-पेंच, हारजीत कह सकता है
समय हारता नहीं
न मनुष्य से न ही प्रकृति से
मैं युग-पीड़ा की संवेदना को
नियति की झोली में लिए
अराजकता के घने जंगलों, निर्जन मरुस्थलों,
मौन पर्वतों और लहराते सागर-तट तक
अपनी नीरस दिनचर्या को निरस्त्र किया
जिया किन्तु बेमेल जिया और आत्मसात किया।
जैसा जिया वैसा जनजन को नहीं दिया।
कोलकाता - 13 अप्रैल, 2012
नववर्ष
पहला बैसाख, बंगला -नववर्ष
बंगाल का बहुमूल्य त्यौहार है
लोग चाहे जिस हाल में हो
गरीबों, अमीरों में आनन्दभरा उत्सव-हर्ष है
बंगला संस्कृति का पहला बैसाख श्रेष्ठ विन्दु है
जहां से जन्म लेती है वंग-संस्कृति स्वस्थ अभिराम
विकीरित होते हैं विविध शब्द-रूप, कला-आयाम
माटी के प्रति प्यार ही बंग मानुष का आत्म-उत्कर्ष है।
कोलकाता - 14 अप्रैल, 2012