Thursday 21 June 2012

मनुष्य की प्रकृति

भयाक्रांत हो गया सारा शहर
भूकंप की चोट से आहत
सुनामी न आने की घोषणा से मिली कुछ राहत
चालीस देशों में लोग आफिस घर छोड़कर
सुरक्षा के लिए सड़कों पर आ गए
चारों ओर छा गया हड़कम्प
बड़े, बूढ़े, बच्चे, जवान
सभी भय से अवाक थे बेजुबान
कब आएगा भूकंप
कब सागर की लहरें बन जाएगी मृत्यु परिदृश्य
कब आएगा महाकाल का कहर...

प्रृति का यह कैसा त्रासद-नर्तन है?
असमय विभीषिका और मृत्यु का कैसा अवदान है
पृथ्वी करवट बदलती है समय-असमय
समुद्र की बाहों में
कैसे आत्मतरंगित होती है अपनी मिलन चाहों में
उसके समक्ष मनुष्य बौना होता है
छिन-भिन्न हो जाती उसकी सारी इच्छाएं
सत्ता का लोभ-लाभी खेल भी थम जाता
विश्व आश्चर्यचकित हो जाता
भय और आतंक छा जाता है डगर-दर-डगर,
प्रकृति के सामने इनसान कितना असाहय,
लघुतम और असमर्थ है
क्या जीवन का यही अर्थ है?
कितना और कैसे हो सकता है मानव स्वच्छन्द
अपने भीतर कितना खुला हुआ, कितना बन्द...

                                       कोलकाता - 11 अप्रैल, 2012












शब्दों के मेले में
शब्दों के मेले में ढाई शब्द
ही बहुत हैं जरूरी
और उनसे ही बना है संसार-चक्र
हमारा विश्वास,
हमारी आस्थाएं
हमारी मान्यताएं
सभी उन दो शब्दों के इर्द-गिर्द प्रभावित होती हैं
जीवन लेता है ऊर्जा पर्वत हो या पारावार
प्रकृति ग्रहण करती है हरीतिमा, करती श्रृंगार
जन-जन में छा जाता है आत्मविभोर आनन्द
बस दो शब्द ही बदल सकते हैं
पृथ्वी पर छाया अवरोध-विरोध, अज्ञान, असमर्थता
मारकाट, आतंक, प्रतिशोध, विध्वंश, मजबूरी
प्रेम ही हमें रख सकता है सुरिक्षित, प्राणवान,
घटा सकता है हिंसा, रक्तपात आशांति,
मनुष्य के बीच बढ़ती जाती दूरी
प्रेम ही, केवल प्रेम ही है
हमारे लिए आवश्यक और जरूरी...

कोलकाता - 12 अप्रैल, 2012












जीने की पीड़ा

आज भी शताब्दी की पागल झंझाका
विनाशक, असहनीय संताप सह सकता हूं
शब्दों का कवच बनाकर
त्रासद विभीषिका जन-प्रतिरोधक खेल के
रोचक-अरोचक दांव-पेंच, हारजीत कह सकता है
समय हारता नहीं
न मनुष्य से न ही प्रकृति से
मैं युग-पीड़ा की संवेदना को
नियति की झोली में लिए
अराजकता के घने जंगलों, निर्जन मरुस्थलों,
मौन पर्वतों और लहराते सागर-तट तक
अपनी नीरस दिनचर्या को निरस्त्र किया
जिया किन्तु बेमेल जिया और आत्मसात किया।
जैसा जिया वैसा जनजन को नहीं दिया।

कोलकाता - 13 अप्रैल, 2012










नववर्ष

पहला बैसाख, बंगला -नववर्ष
बंगाल का बहुमूल्य त्यौहार है
लोग चाहे जिस हाल में हो
गरीबों, अमीरों में आनन्दभरा उत्सव-हर्ष है
बंगला संस्कृति का पहला बैसाख श्रेष्ठ विन्दु है
जहां से जन्म लेती है वंग-संस्कृति स्वस्थ अभिराम
विकीरित होते हैं विविध शब्द-रूप, कला-आयाम
माटी के प्रति प्यार ही बंग मानुष का आत्म-उत्कर्ष है।

                                          कोलकाता - 14 अप्रैल, 2012

Wednesday 20 June 2012

प्रेम का अंत

प्रेम मन के भीतर पैदा होता है
मस्तिष्क को मथता है मन की की पीड़ा सहता
अंतर्द्वंद के कीचड़ में धंसता है
सूनी निश्वासें छोड़ता
अपने को गन्तव्य-पथ से मोड़ता
संत्रास, दुःख आंसू, विरह, आत्मग्लानि और
हृदय में नदी की सूखी धारा का सूखापन लिए
समय-बहेलिए के जाल में फंसता जाता।
जय-पराजय के बीच अपने को गौरवान्वित करता
पद दलित अथवा अस्तित्व खोता
प्रेम मन के भीतर
कितनी तरह के, कितने खेल खेलता
जीवन के नष्ट नीड़ को छोड़ना ही बुद्धिमानी है
प्रेम की बलिवेदी पर सब कुछ न्यौछावर करना बेमानी है।
प्रकृति और मनुष्य के भीतर बाहर प्रेम ही विकृतियां ढोता है
जीवन को आंसूओं से भिगोता है।

                         कोटिल्या (प्रतापगढ़) यूपी    6 अप्रैल, 2012


शहर एक सपना
 शहर सच का नहीं होता, सच से नहीं बनता
वह जानता है कि
किस तरह से भ्रष्ट, काले धन से भव्य भवन
पार्कों, गगनचुम्बी इमारतों का निर्माण हुआ
किस तरह शताब्दियों से फुटपाथी भूखे सोते हैं
झोपड़पट्टियों में कड़ी मेहनत के बाद
निकलता है धुंआ
धनवानों, लक्ष्मीपतियों के लिए
शहर, होटलों, नाइट क्लबों, वार-पवों
काफी हाउसों, बार-वनिताओं से बनता।
कार्पोरेशन उसे हजार हजार दीप-लैम्पों
चमकती काली सड़कों,
फूल बागानों से सजाता है
फुटपाथों को सुन्दर बनाता है।
किन्तु फुटपाथियों के लिए कुछ भी नहीं करता
उनके नंगे भूखे बच्चे मांगते हैं भीख
और बड़े होकर बन जाते हत्यारे, आतंकवादी
पुलिस, थाना, लाठी, पानी की बौछार वाले पाइप-
आंसू गैस, गोलियां बन्दूकें अभावग्रस्त, दलित, भूखे,
असहाय, हारे हुए, आशा और विश्वास के
छिन्नभिन्न तारों को  जोड़कर
जीने वालों के विरुद्ध पुलिस मुस्तैद रहती है
प्रत्येक शहर में उल्टी गंगा बहती है।
शहर एक आनन्द गीत का टूटा छन्द होता
और एक टूटा हुआ सपना होता।

                                      कोटिल्या (प्रतापगढ़) यूपी     7 अप्रैल, 2012


लड़कियां आधाफूल,  आधा कांटे
लड़कियां कभी फूल बन जाती, कभी कांटे
वे सदा बंधना चाहती हैं कहीं न कहीं
मन के अनुसार बाजार संस्कृति की चमक से
उद्भ्रांत होती, बनाना चाहती रिश्तेनाते

लड़कियां अपनी पसन्द का बीज
दस-ग्यारह साल के बाद ही
रुप-अरुप मन की माटी में बो देती हैं
वह बीज 2-4 वर्षों में ही सघनवृक्ष बन जाता
फिर अनसोई गुजरती हैं उनकी रातें
और दिन का उजास अच्छा नहीं लगता
प्रेम के फूल खिलते हैं उस मन के वृक्ष में
विचारों के कोमल से कोमल और
सख्त से सख्त पैमाने बनाते...

लड़कियां गीली मिट्टी होती हैं
जिसे मनका मीत बनाता सुन्दर पात्र
और लड़कियां टूट जाती असमय की डाल में
वियोग और आत्म-द्वन्द की झंझा में
लड़कियां जो चाहती हैं कह नहीं पाती
और जो कुछ कह पाती हैं वह भीतर की आवाज
मन को बेधते रहते गुलाब के कांटे
लड़कियां आधा फूल होती आधा कांटे


                                      कोलकाता,    9 अप्रैल, 2012


टुकड़ा टुकड़ा जीवन
दुनिया के लोग तरह-तरह से सोचते और जीते हैं
वे उसी को दिल से चाहते जो प्राण-पिरोते हैं
बाकी सब जीवन की आपाधापी में अटक भटक जाते हैं
कितना कुछ सत् - असत्, सही, गलत, मान असम्मान
पाप पुण्य, विजय-पराजय,
संबंधों की आत्मीयता, अपनत्व अथवा विभाजन
सभी टुकड़े टुकड़े जीवन को
आत्म-अनात्म धागे से सीते हैं
इसी तरह जीते हैं जीवन पर्यन्त चिन्तन-द्वन्द
जीवन तो बस होता अधूरा छन्द...।

                                             कोलकाता,    10 अप्रैल, 2012   

Tuesday 19 June 2012

बासी शब्दों के अर्थ

मैं अपने को बार-बार खोलता हूं
फिर बन्द करता हूं किताब के पृष्ठों की तरह
पढ़ता, गुनता जीवन के नए नए अध्याय
खोजता अस्तित्व सुरक्षा के नए नए उपाय
यूं तो जो कुछ बोलता हूं उसमें कुछ न कुछ होती सर्जना
किन्तु  हृदय की भाषा की कितनी होती सत्ता
कितनी होती प्रवंचना, कितना कुछ व्यर्थ होता
समय जानता है
भाषा-गम्य संरचना
और समझता है हमारे होने का अर्थ
यूं तो मन में जो आए बोलता हूं, लिखता हूं
विचारों की तुला पर बासी शब्दों के अर्थ तौलता हूं।


समय की छलना
जो कुछ मैंने सयत्न संजोया, संवारा है
घर, साफे, पर्दे, डाइनिंग टेबुल, कुर्सियां, पर्दे
ठंडी मशीने, आलमारियां, बुकसेल्फ, पेंटिंग्स, कार्निश
सजावट के  विविध सामान
इनके जुटाने में अस्मिता के दर्प को कई बार हारा है
सुविधा-सम्पन्न, वृक्ष, लता, द्रुम, विभि्न पौधों से युक्त
यूं तो घर ऐसा बनाया है
कि सबको लगता प्यारा है
किन्तु इस सबका क्या होगा
जब मैं सब कुछ छोड़कर खाली हाथ चला जाऊंगा
अपने ही समय से छला जाऊंगा।


शब्द बन जाते हैं तीसरी आंख

जो देख सकते हैं अन्तर्मन का स्वरूप साकार
उसकी नफरत, घृणा,
उसका औदार्य, प्रेम, करुणा, मनुहार
शब्द ही बनते हैं अशोभन व्यवहार
बनते, बनाते स्वस्थ मानसिकता के विविध आयाम
बनते मनुष्य के प्रत्येक कर्म की साख...

शब्द हृदय अथवा मस्तिष्क-सागर से
स्वतः उत्सज होते हैं
और जब भी चेतना का रंग धूमिल होता है
तब कई स्तरों पर अपनी पहचान खोते हैं
शब्द की प्रकाश पुंज से भरी चिनगारी है
जो दबी होती है नीचे, ऊपर होती अस्तित्व की राख

शब्द बनाते हैं दनिया के प्रत्येक जीव को
सानवान, अर्थवान, प्राणवान, मूल्यवान
किन्तु शब्द ही बनाते हैं जीवन को कटुता और नफरत के बीच नर्कवान
दुनिया के आदि और अंत में
सिर्फ शब्द की सत्ता होती है
जो आप, अदृश्य, गोपनता ढोती है
हमारे भीतर बाहर दृष्टिगत नहीं होती तीसरी आंख



प्रेम का ताना बाना
रुको, आंचल न सरके सीने से
पहन लो आभूषण करीने से
कर लो साज
लगता है वर्षा होगी आज....
प्रेम में अच्छा होता मरने, जीने से
चंचल जकड़ाव से
जो रति-गति, संगति की गन्ध फैलती है पसीने से
ऐसे क्षणों में
किसे नहीं होगा गर्व, नाज...
प्रेम में रुको नहीं, समय को पानी की तरह मत बहाओ
पग से पग बांध चलते चले जाओ पीछे न मुडो,
न देखो क्योंकि जीवन में अतीत बड़ा खतरनाक होता है
प्रेम का ताना बाना छिन्नभिन्न हो जाता है
जब गिरती है अतीत की गाज...

खुले आवरण में
शरीर का अंग-प्रत्येग वैभवशाली लगता है
और बस एक मधुस्मिति - उषाकाल जैसी रेखा
मन को आकर्षण-जाल में बांध लेती है
ऐसे में जीवन का मिलन- तीर्थ
कितना सार्थक होता, मित्र, सखा, चहेता
जो मन की सारी कलुष धो देता
प्रेम, कली की ततरह खिल जाता है
जब हृदय-वसन्त समीर  धीरे-धीरे बहती
नव नवेली वधू करती सोलह साज....

Thursday 14 June 2012

शब्द का संकट

काले समय की अंधी आंधी से बचाकर
मैं देता हूं शब्दों को आत्म-संरक्षण
करता नई स्थितियों का वरण
इस जन कोलाहल में
सजादा हूं नए सिरे से यात्रा अभियान
जिससे बनी रहे प्रज्ञा शब्दवान....

समय-प्रवाह में चिन्तन की नाव को
आस्था और विश्वास की पतवार से खेते हुए संघर्षरत,
लहरों के आलोड़न से बचता
नाव को नई दिशा देता चल रहा हूं
असाध्य अंधकार में पल रहा हूं
एक विश्वास है कि शब्द बना रहेगा नव प्राणवान।

आह्वान
ओ मेरे आजाद देश के खुशहाल
बड़बोले ऐश्वर्यशाली धनी मानी
भ्रष्ट, काले कारनामों वाले
सत्ता-सिंहासनारुढ़
धन, छल, बल, दल, फरेब और बाहुबल से कुर्सी की राजनीति करने वाले
संसद और विधानसभा की गरिमा को धूमिल करने वाले
पिलाते आमजन को आश्वासनों की घूटी
ओ मेरे देश के पृष्टपोषी, सत्ता भोगी
शब्दों को अपरुप, पराश्रयी करने वाले,
अपने अहम की केंचुल में बैठे शब्द, सत्ता साधक
तुम्हारी सोच की कितनी तश्वारें हैं झूठी
आओ हम मिलकर आजादी की
दशा-दिशा पर चिन्तन करें, सोचे विचारें
आमजन की अभावग्रस्त खाली झोली को भरें।

शब्दगीत
उड़ता हूं स्वच्छन्द
शब्दों के आकाश में निरानन्द
नए-नए शब्द-क्षितिजों में गाते मौन आत्मविभोर
कभी निर्मौन पर्वत के ऊपर मंडराते
चक्कर लगाते, नीली घाटियों, वनों, मरुस्थलों के ऊपर
नदियों, सागर के आर-पार
मैं शब्द हूं। मैं अहम् और लोभ से तटस्थ
गाता हूं अस्तित्व-गीत उनके लिए
जो हैं अभावग्रस्त, संत्रस्त
और अपनी दिशा स्वयं चुनता हूं
मैं नहीं रह सकता व्यवस्थाके पिंचड़े में बन्द...
नेता, अभिनेता,
योगी, महात्मा, धर्मशास्त्री, पंडित, पुजारी,
सतसाईं, मौलाना, पादरी सभी के होठों पर रहता हूं
किन्तु जब देखता हूं आडम्बरी घोलमेल
वे मेरा गलत तरीकों से प्रयोग कर रहे हैं, रचते भयानक द्वंद
तब उड़ जाता हूं खोजने आत्मगीत  के नए छन्द
उड़ता हूं प्राण-संवेदना के विस्तृत आकाश में स्वच्छन्द

समय का अतिक्रमण

हमें कदम, कदम पर करना पड़ता है
समय के आगे आत्मसमर्पण
जब भी आत्मबोध पर प्रहार किए गए जिजीविषा के संकट आते रहे नए, नए हृदय की माटी में
जब भी उग आए दर्द के अक्षय वट
उससे धनीभूत पीड़ा को मिला संरक्षण..

नव-संस्कृति के विकास और उन्नयन के विविध आयामों से जुड़कर
कई कई बार यात्रा-पथ से मुड़कर
चिन्तन के बनाए ताने बाने
जिए भी तो बहुत सा राज छिपाए
कुछ बाहर, कुछ भीतर
बनाए तरह-तरह के प्रवंचना-सेतु
सच और झूठ के बीच किए बहुत सारे बहाने
बस भागते रहे अस्तित्सव की काली सड़क पर
देखे नहीं वास्तविक जीवन का प्राणधर्मी दर्पण..

कुछ भाग रहे रोटी की तलाश में
कुछ भाग रहे सत्ता के अभिलाष में
कुछ भाग रहे काले-धन की गठरी सिर पर लादे
कुछ भाग रहे कुर्सी के लिए करते किसिम किसिम के वादे
कुछ भाग रहे तोड़ते जन-विश्वास
सभ्यता, संस्कृति, आजादी ले रही हताश भरी उच्छ्वास
वे सभी भाग रहे करते समय का अतिक्रमण...।

Friday 8 June 2012

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यादों की गहराइयों में
एक दुखती कसमसाती डोलती मछली
भंवर में अजब फंसती
फिर उछलती
दुखद क्षणों के पंख फैलाती
व्यथा की लहरियों में घूमती
चक्कर लगाती
स्वयं की ही कोशिशों से
भंवर से निस्तार पाती
प्राण की गराइयों में स्मृतियों का सागर उमड़ता
दर्द की लहरें मचलतीं
जो किनारे बैठ कर चुपचाप
वंशी के सहारे अस्मिता की मारते मछली
मिटाते भूख मन की
जो कभी मिटती नहीं
सदियों पुरानी चाह
आशा के अपरिमित प्रेम-ज्वार में
जब डूब जाती
बचा रहता फिर कहां अभिमान
डूबता अस्तित्व
केवल बची रहती 
मन-व्यथा की अनदिखी पीड़ा
आंख की काली पुतलियो में  घुमड़ती
घटा बनती
फिर अचानक ही बरसती
याद की अमराइयों में
हृदय की गहराइयों में।

Depths of Memories
In the depth of memories
A troubled swimming and floating fish in pain
caught in a whirlpool strangely
reappearing time and again spreading
its fins in affected moments
swirling in the waves of anguish
and comes out of the vortex
with its own efforts extraordinary

At the bottom of the soul exists
the ocean of memories surging up
waves of compassion persist

Those who sit on the bank silently
And catch the fish of self identity
With the help of break in fish-hook
And satisfy their mental appetite
Which never gets satiated
centuries old longing when drowns
in the unlimited hide of love
self vanity then doesn't survive
even the existence of self disappears.
only remains the unseen pain of the broken heart
which culminates in the eyelids
shaping black clouds and
all of a sudden rains in the forest of 
memories, emerge torrentially deep and
deep inside the heart.


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Tuesday 5 June 2012

यादों की गहराइयों में

यादों की गहराइयों में
एक दुखती कसमसाती डोलती मछली
भंवर में अजब फंसती
फिर उछलती
दुखद क्षणों के पंख फैलाती
व्यथा की लहरियों में घूमती
चक्कर लगाती
स्वयं की ही कोशिशों से
भंवर से निस्तार पाती
प्राण की गराइयों में स्मृतियों का सागर उमड़ता
दर्द की लहरें मचलतीं
जो किनारे बैठ कर चुपचाप
वंशी के सहारे अस्मिता की मारते मछली
मिटाते भूख मन की
जो कभी मिटती नहीं
सदियों पुरानी चाह
आशा के अपरिमित प्रेम-ज्वार में
जब डूब जाती
बचा रहता फिर कहां अभिमान
डूबता अस्तित्व
केवल बची रहती
मन-व्यथा की अनदिखी पीड़ा
आंख की काली पुतलियो में घुमड़ती
घटा बनती
फिर अचानक ही बरसती
याद की अमराइयों में
हृदय की गहराइयों में।

Depths of Memories
In the depth of memories
A troubled swimming and floating fish in pain
caught in a whirlpool strangely
reappearing time and again spreading
its fins in affected moments
swirling in the waves of anguish
and comes out of the vortex
with its own efforts extraordinary

At the bottom of the soul exists
the ocean of memories surging up
waves of compassion persist

Those who sit on the bank silently
And catch the fish of self identity
With the help of break in fish-hook
And satisfy their mental appetite
Which never gets satiated
centuries old longing when drowns
in the unlimited hide of love
self vanity then doesn't survive
even the existence of self disappears.
only remains the unseen pain of the broken heart
which culminates in the eyelids
shaping black clouds and
all of a sudden rains in the forest of
memories, emerge torrentially deep and
deep inside the heart.