अज्ञेय के साथ कुछ
रोचक क्षण
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स्वदेश भारती
वर्ष 2003 अक्टूबर
की है। अज्ञेय भारतीय भाषा परिषद द्वारा
आयोजित साहित्योत्सव में इलाजी के साथ आए थे। रामकृष्ण मिशन इन्स्टीट्यूट आफ कल्चर
के अतिथि निवास में ठहरे थे। मुझे फोन पर प्रो. कल्याणमल लोढ़ा जी ने कहा कि
अज्ञेय से बात कर लें। उनका फोन नम्बर भी दिया।
मैंने फोन किया तो
अज्ञेय की धीर गम्भीर आवाज आई स्वदेश भी मिशन में कमरा नं. 82 में आ जाएं आपको
असुविधा तो नहीं होगी।
मैंने कहा – जी
नहीं, आपसे मिलना तो मेरा सौभाग्य होगा। उन्होंने कुछ सोचते हुए मिलने का सबेरे 8
बजे का समय नियत किया। मैं यथासमय रामकृष्ण मिशन की अतिथि शाला में पहुंच गये। कमरे
की घंटी बजी। वे मिलने के लिए प्रस्तु थे। उन्होंने दरवाजा खोला। नमस्कार किया।
मैंने उनके पांव छूए। प्रणाम किया। उन्होंने पूछा- आने में असुविधा तो नहीं हुई?
– जी नहीं,
- कैसे आए?
- गाड़ी है क्या?
- जी नहीं। मैं
टैक्सी से आया हूं।
फिर एक गहरा मौन
अज्ञेय अपने मौन में भी कुछ सोचते, कहते और मैं सोच ही रहा था कि पूछू-आज का
क्या-क्या कार्यक्रम है। उन्होंने ही कहा- आपु भारतीय भाषा परिषद आ रहे हैं।
गोष्ठी तो दिन भर चलेगी परन्तु मैं लंच के बाद वाली गोष्ठी में बोलूंगा। यहां तो
कुछ अच्छी बातें करने पर भी उसमें मीन मेख निकाल कर अपने विरोध का खामियाजा झेलने
पर मजबूर करते हैं।
दिल्ली की तरह
कलकत्ता का माहौल भी अज्ञेय-विरोधी है। ऐसे में साहित्येतर बातें अधिक चलती है।
गोष्टियां मेले का रूप ले लेती हैं। फिर एक गहरा मौन। वे कुछ सोच रहे थे। उसी बीच
मैंने कहा – फिर भी गोष्टियां हर जगह होती हैं। उसे विचार-विमर्श का रूप दिया जाता
है। हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं में भी यही चल रहा है।
तुरन्त अज्ञेय जी
बीच में बोले- लोगों में अपनी बात मनवाने का दौर चल गया है, भले ही उसमें सार्थकता
हो या न हो। मैंने कहा – जी, परन्तु उसे रोकना मुश्किल है। हिन्दी लेखकों में एक
प्रवृत्ति सी बन गई है। जो कुछ लिखा, वह सबसे श्रेष्ठ है। भले ही सर्जनात्मक,
पठनीय न हो।
अज्ञेय जी मुस्कराए।
अब तक इलाजी ने आकर कहा- आप लोग नास्ता कर लें। 9 बजने को हैं। स्वदेश जी क्या
लेंगे। अज्ञेय जी बोले अभी तो टोस्ट चाय, कुछ फल ही लेंगे। आप कुछ और लें तो बता
दें। इलाजी बोलीं- मैंने इडली, बड़ा, डोशा का आर्डर दे दिया है।
अज्ञेय जी धीमे स्वर
में बोला- तब ठीक है। इलाजी ने मिशन के रेस्ट्रां में फोन कर नास्ता कमरे में
मंगवा लिया। मैंने देखा गुरुवर, इडली, डोशा कांटे, चम्मच से बिना रुके खा रहे थे।
खाते-खाते उन्होंने पूछ लिया- साउथ इंडियन
खाना सारे देश में प्रसिद्ध हो गया है। आपको पसन्द होगा।
जी- लोगों में साउथ
इंडियन खाने का क्रेज बनता जा रहा है।
अब तक काफी आ गई थी।
गुरुवर ने एक इडली, एक बड़ा और आधा डोसा ही लिया। उनका आहार तोला, माशा में बंधा
हुआ है। उन्होंने काफी की चुस्की लेकर कहा – फूल के बर्तन में खाना तनदुरुस्ती के
लिए मुआफिक है। मैं कांसा फूल के वर्तन खरीदनना चाहता हूं। कोई कह रहा था, कालेज
स्ट्रीट और कालीघाट में मिलते हैं। मैंने कहा –
जी, शायद, कभी
खरीदना नहीं। मेरे दादा और मां फूलका वर्तन उपोयग करते थे।
मैं सोच रहा हूं।
गोष्ठी से निकलकर चलूं। देखूं यदि ठीक दाम पर मिल सके तो खऱीद लूं। 3 बजे से
संगोष्ठी प्रारंभ हुई। मैं पहुंचा तो देखा अज्ञेय पीछे की अंतिम पंक्ति में बैठे
थे। साहित्य और समाज का नया स्वरूप विषय पर वक्ता बोल रहे थे। डॉ. विद्यानिवास
मिश्र अध्यक्षता कर रहे थे डॉ. गंगा प्रसाद विमल के वक्तव्य के बाद डॉ. इन्द्रनाथ
चौधरी ने विषय पर बोलना शुरू किया। परन्तु विषय से हटकर अपनी बात कहने लगे। अज्ञेय
उठकर बाहर आकर गैलरी में खड़े हो गये। मैंने भी उनका अनुसरण किया। कलकत्ता के
मसिजीवी उन्हें अजीबो गरीब दृष्टि से देख देखकर बिना उनसे मिल या नमस्कार किए भीतर
जा रहे थे।
कुछ बाहर आकर गिरोह
बना कर अज्ञेय पर छींटाकशी कर रहे थे। अज्ञेय जी को पुनः भीतर जाकर बैठना पड़ा।
उन्होंने घड़ी देखी, उस वक्त दिन के 4 बज रहे थे। कहा- कालीघाट में फूल के वर्तन
देखना है। अभी चल सकते हैं? मैंने कहा – जी चले। डॉ. विद्या निवास मिश्र अध्यक्षता
भाषण दे रहे थे। अज्ञेय जी ने कहा पंडित जी बोल लें। थोड़ा बैठता हूं। पंडित जी का
भाषण समाप्त होते ही वे उठ गए स्वदेश जी चले, बाजार घूम आते हं। मैं गुरुवर के साथ
लिफ्ट से नीचे आ गया। उन्होंने गेट दरबान से कुछ कार मंगवी। कार में बाईं सीट पर
वे बैठे दाहिनी ओर मैं। चल पड़ी तो शहर के कुछ छुट भइए साहित्यकार को रोक कर उनसे
कुछ चर्चा करना चाहा तो उन्होंने झिटक दिया और ड्राइवर से गाड़ी चलाने के लिए कहा।
उनकी संगोष्ठी की ऊब और कलकत्ते के साहित्यकारों का बर्ताव नागवार लगा। वह अंदर से
काफी रुष्ट थे। जाते हुए प्राय मौन ही रहे। कालीघाट पहुंचकर हम कई दुकानों के
चक्कर लगाए। उन्हें एक भी सामान पसन्द नहीं आया। फूल के वाली दुकानों पर तरह-तरह के
बर्तन-फूल की थालियां, कटोरियां, गिलास, गड़ाही आदि उन्होंने देखकर दुकान वाले से बोले कि वह अच्छे, सही फूल
के बर्तन दिखाए। दुकानवाले उन्हें अजीब मुद्रा से देखकर बोले-जीसद यही है। मेरे
पास जो भी फूलका सामान है, वह ठीक है। असली है। आपको लेना हो तो इन्हीं में से
चुनाव कर लें। नहीं तो दूसरी दुकान देखे अज्ञेय को दुकानदार का बोलने का लहजा
अच्छा नहीं लगा। वे बिना कुछ कहे दुकान से बाहर निकल आए। कहा-यहां तो ठीक सामान नहीं है और दाम ज्यादा मांग रहे हैं। आइए चलते
हैं। मैं तो रामकृष्ण अतिथि निवास जूउंगा। कल की गोष्ठी के अंतिम सत्र में मैं
रहूंगा। आएं तो मुलाकात होगी। मैं समझ गया, वे बहुत ज्यादा खिन्न लगे। गोष्ठी से
लेकर कांसे की दुकान तक उनका मूड बिगड़ता गया। मैंने उस दिन अनुभव किया कि अज्ञेय
का शुद्ध, सात्विक, सम्भ्रांत स्वभाव किस तरह लोगों के व्यवहार से खिन्न होता है।
किस तरह वे लोगों से कट जाते हैं। अस्वाभाविक रूप से रुष्ट हो जाते हैं। हिन्दी साहित्य के 100 वर्षों के इतिहास में जहां सुमित्रानन्दन पंत, निराला,
महादेवी वर्मा, जय शंकर प्रसाद का समय आपसी सद्भाव और एक दूसरे को समझने, आदर करने
की मानसिकता रही, वहीं स्वांतंत्र्योत्तर कवियों, कथाकारों में अहंभाव और संकुचित
मानसिकता ने अत्यधिक प्रभावित किया इससे हिन्दी साहित्य का बहुत कुछ लिखा हुआ
कुंठित हुआ है। लेखकर भिन्न-भिन्न घटकों, दलों, खेमों में एकत्र होने लगे। एक दल
दूसरे का विरोधी तो दूसरा तल तीसरे का। गोत्रधारी लेखकों की जमात साहित्य को
कलुषित कर दिया। आलोचना का स्वरूप तटस्थ और सर्जनात्मक न होकर, हल्के फुल्के ढंग
से एक दूसरे की प्रशंसा को आलोचना का पक्ष माना जाने लगा। मौलिक और चिन्तन परक
आलोचना के अभाव में हिन्दी साहित्य कई गोत्रों में बंट गया। लेकिन दलगत साहित्य की
धाराएं ऐसे में सूखती गईं। इसी दलगत तथाकथित साम्यवादी विचारधारा ने अज्ञेय को
कभी-सीआई के एजेंट, कभी सांभ्रांत लेखक का तमका पहना दिया। उनके साहित्य का
ठीक-ठीक मूल्यांकन नहीं हुआ। इसका सबसे बड़ा कारण उनके साहित्य को पढ़े बिना ही
आलोचना प्रत्यालोचना होने लगी। नामवर सिंह अपने इर्द गिर्द जिन चेहरों को एकत्रित
किया और साम्यवादी चिन्तन परक साहित्य का हौवा खड़ा किया नब्बे दशक के बाद
छिन्न-भिन्न हो गया। अज्ञेय की मृत्यु के बाद उनके आलोचकों ने भी माना कि अज्ञेय
को नकारा नहीं जा सकता। उनका लेखन हिन्दी साहित्य का श्रेष्ठतम अनुपम और अद्वितीय,
अनुकरणीय है।
1986, 6 दिसम्बर को जब मैं जगदीश चतुर्वेदी की
कवियित्री-पुत्री अनुभूति के साथ उनके घर मिलने गया तो देखा वे एक झविया में लान
के पुष्प वृक्षों से तरह-तरह के फूल चुन रहे थे जिनमें लाल, सफेद और गुलाबी गुलाब
अधिक थे। हमने उन्हें पांव छूकर प्रणाम किया। उन्होंने खड़े होकर हम दोनों से कहा।
यह गुलाब की क्यारियां और पेड़ों की देखरेख मैं ही करता हूं। इससे कुछ कसरत हो
जाती है। फूलों के बीच अच्छा लगता है। झविया से लाल गुलाब की कलियां निकाल कर मुझे
और अनुभूति को दिया। फिर धीरे-धीरे लान में घूमते हुए घर के भीतर आ गए। उनका बैठक
खाना करीने से सजाया हुआ था। सारी दीवालों में आलमारियां पुस्तकों से भरी हुई थी।
सौफे के टेबुल पर कई रंगों के गुलाब गुलदस्ता
सजाया गया था। सोफे के दोनो ओर छोटे-छोटे टूल जिन पर पत्रिकाएं रखी थी सोफे के
उल्टी तरह दीवान तथा 2-3 कुर्सियां थी हम दोनों कुर्सियों पर बैठे गुरुवर अज्ञेय
दीवान पर बैठे किन्तु उठकर किचेन में गए। फ्रिज खोलकर कई तरह की मिठाइयां प्लेट
में लेकर दो छोटे चम्मच के साथ आए। प्लेट को टेबुल पर रखा। स्वदेशजी लीजिए कलकत्ता
में तो मिठियां बहुत अच्छी बनती है। दिल्ली में उतना स्वाद नहीं होता। अज्ञेय ने
प्लेट को हमारी ओर सरका दिया। अनुभूति ने कहा- आप क्यों तकलीफ करते हैं आंकल। हम
ले लेंगे। वह एक बर्फी का टुकड़ा लेकर खाने लगी। मैंने भी गुलाब जामुन से अपना
मुंह मीठा किया। अज्ञेय ने काजू की बर्फी की एक कतली ली। इलाजी बगल वाले कमरे में
कसरत-व्यायाम कर रही थी। ऐसा दरवाजे पर पड़े पर्दे की फांक से दिख रहा था। वे शर्ट
और पैंट में कई तरह के व्यायाम में व्यस्त थीं।
अज्ञेय जी उठकर किचेन में गए। शायद पहले ही काफी के लिए
पानी केतली में बर्न के ऊपर रख दिए हों। 2 मिनट में छोटी सी ट्रे में 3 कप काफी
तथा कई तरह के बिस्कुट लाकर टेबल पर हमारे सामने रख दिए। अनुभूति बोली-अंकिल आप
क्यों तकलीफ कर रहे हैं। मैं बना देती। मेरे हाथ की काफी आपको अच्छी लगती। अज्ञेय
खिलखिलाकर हंस पड़े बोले- मेरे हाथ की काफी अच्छा ही होगी। हमने अनुभव किया अज्ञेय
कितने अतिथि सम्मान-प्रिय थे। निश्छल प्यार से मिलते थे संभ्रांत आतिथ्य उनके
स्वभाव की श्रेष्ठता थी मैं अपने साथ कलकत्ता ओ कलकत्ता लम्बी कविता-पुस्तक उन्हें
भेंट करने ले गया था। लिफाफे से निकालकर उन्हें समर्पित किया उन्होंने पुस्तक को
आधोपांत उलट पलट कर देखा। गम्भीर चिन्तन की रेखाएं मुंह पर खिंच गईं। एक पृष्ठ पर
रुके। कविता आद्योपांत पढ़ीं। कुछ बोले नहीं। मैंने अनुभव किया, उन्हें कविता जरूर
पसन्द आई होगी, तभी इतने गम्भीर भाव से कई पृष्ठ खोले और पढ़कर पुस्तक रख ली।
पूछा-स्वदेश जी आज की जिस तरह से कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में आ रही हैं उनमें
कितनी कविता है कितना सपाट बयानी कहना मुश्किल है। छन्द के बिना भी कवि लिखते चले
जा रहे हैं। मैंने कहा – गुरुवर जहां तक मैं समझ सका हूं कविता में छान्देयता नए
शिल्प, नए भाव नए शब्द –संस्कार, अभिव्यंजना देती है। नई कविता अकविता, भूखी
कविता, श्मशानी कविता कितना कुछ चल रहा है। ऐसी कविताएं शिगूफा मात्र हैं न उनमें,
काव्य-सौन्दर्य है, न शिल्प, न पठनीयता है। ऐसी अखबारी, अहंवादी कविताएं
काव्य-इतिहास का अंग नहीं बन सकती।
अज्ञेयजी मुस्कराए। मौन कुछ सोचते रहे। नई कवियित्री
अनुभूति को मेरी बात अच्छी नहीं लगी। वह बोली अंकिल आज की कविता का जो ट्रेंड है
उसे आप ग्रहण करें या न करें हिन्दी साहित्य की उपलब्धि तो है ही। मेरे बिना जगदीश
चतुर्वेदी, गंगा प्रसाद विमल, नारायण लाल परमार ने जो संकलन विजय नाम से निकाला
था, वह काफी चर्चित हुआ। कविताओं की अच्छी आलोचना हुई। मैंने चुटकी लेते हे कहा –
अनुभूति जी अपने पिता जागदीश का बचाव कर रही है। वे स्वयं भी तो सपाट बयानी
कविताएं लिखती हैं। अज्ञेय जी खिल खिलाकर हंस पड़े। उनकी दांतों की सफेद पंक्तियां
चमक उठीं। हंसते हुए उनका व्यक्त और भी भव्य और सुन्दर लगता है।
अज्ञेय जी उठे अन्दर के कमरे से अपने ताजा काम संकलन ‘ऐसा भी घर देखा है’ की प्रतियां लाए
बैठकर लिखा एक प्रति मुझे दिया फिर अनुभूति को। अनुभूति ने उनका पांव छुआ- बोली
अंकिल यहां आकर आपसे पहली बार मिली, आप ने मुझ जैसी नई लेखिका को जो स्नेह,
आशीर्वाद दिया उसे कभी नहीं भूलूंगी। मैंने भी उनका पांव छुआ। और उनसे विदा लेकर
चला आया। 5 फरवरी 1986- कलकत्ता अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला। अज्ञेय ढाका-बंगलादेश
में साहित्य समारोह में गए थे। दिल्ली से कलकत्ता होकर उनका हवी जहाज ढाका के लिए
जा रहा था। उन्होंने सुरेका जी को फोन कर कहा कि स्वदेश जी को कह दें। मैं ढाका से
लौटकर एक दिन कलकत्ता रुकूंगा। सुना है रुपाम्बरा हिन्दी मंडप स्टाल काफी बड़ा
होता है। सारे प्रकाशक भाग लेते हैं। मुझे सबेरे सबेरे 6 बजे सुरेका जी का फोन
मिला- अज्ञेय बंगलादेश से 28 की शाम कलकत्ता आएंगे। एक दिन रुककर दिल्ली जायेंगे।
वे पुस्तक मेला देखना चाहते हैं। मैंने कहा- वे शाम को 4-5 बजे आ जाएं। ठीक पांच
बजे अज्ञेय जी विश्वम्भर सुरेका, कुसुम खेमानी, श्री एवं श्रीमती सविता बनर्जी के
साथ हिन्दी मंडप में आए मैंने अज्ञेय जी का स्वागत किया। हिन्दी मंडप की बाहरी,
भीतरी सजावट, पुस्तकों का भंडार देखकर बेहद प्रसन्न हुए। राजकमल, वाणी, राजपाल,
प्रभात, नेशनल पब्लिशिंग हाउस आदि के अतिरिक्त केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, उत्र
प्रदेश हिन्दी संस्थान, प्रकाशन विभाग का भी हिन्दी पुस्तकें सजाई गई थी। इन सभी
प्रकाशनों के प्रतिनिधि अपने नियति किए गए स्टालों पर अपने प्रकाशन का साहित्य
बेंच रहे थे। सारी बिक्री एक ही मुख्य केंद्र से हो रही थी। कवियित्री प्रभा खेतान
भी बिल बनाने में सहयोग कर रही थी। अज्ञेय साहित्य का अलग से रैक सजाने में वे
जुटी थीं। अज्ञेय जी विश्वम्भर नाथ सुरेका, कुसुम खेमानी तथा कवि सविता बैनर्जी और
श्री बनर्जी के साथ 5 बजे हिन्दी मंडप में पधारे। गेट पर मैं मंडप में
काम करने वाली लड़कियों, प्रभा खेतान के साथ गुलाब के कई रंगों के फूलों का
गुलदस्ता अज्ञेय को समर्पित करते हुए पांव छूकर प्रणाम किया। प्रभा तथा लड़कियों
ने ऐसा ही किया। अज्ञेय जी बेहद प्रसन्न मुद्रा में थे। उन्हें अंदर चलने के लिए
निवेदन किया। हम सभी सबसे पहले अज्ञेय साहित्य की आलमारी तक गए। आलमारी उनकी
प्रायः सभी पुस्तकें सजी थी। वे कुछ देर तक रैक में सजी पुस्तकों को ध्यान से
देखते रहे फिर पूरे मंडप का चक्कर लगाया। कैश काउन्टर पर एक छोटी सी विज्ञप्ति लगी
थी – अज्ञेय जी की पुस्तकें खरीदें उनके हस्ताक्षर सहित प्रतियां प्राप्त करें।
फिर क्या था एक लम्बी लाइन लग गई। उनकी किताबों में से आंगन के पार डार आत्मने पद,
अपने अपने अजनबी कितनी नावों में कितनी बार, ऐसा भी घर देखा है। अज्ञेय जी के लिए
बाहर गेट से कुर्सी लाई गई। मैंने कहा – गुरुवर बैठ जाएं। काफी देर लगेगा। लोग
अधिक हैं। कतार बद्ध लोग एक एक कर पुस्तकें लिए अज्ञेय के हस्ताक्षर के लिए आते गए
और कविवर अपने हस्ताक्षर देते रहे। यह क्रम काफी देर तक चलता रहा। मैं गेट पर बैठा
सुरेकाजी कुसुमजी तथा सविता जी के साथ चर्चा कर रहा था, तभी देखा कलकत्ता के
साहित्यकार काफी दूर खड़े आपस में बतिया रहे थे और हंसी मजाक में दोहरे हो रहे थे।
उनकी भाव भंगिमा देखकर लग रहा था वे अज्ञेय पर ही मजाक कर रहे थे। उनमें इतनी भी
शिष्टाचार का अंश नहीं था कि इतने बड़े हिन्दी के साहित्य-गुरु से आकर मिलें।
चर्चा करें। अज्ञेय करीब डेढ़ घंटे तक हिन्दी मंडप में रहे। अपने पाठकों, प्रशंसकों
से घिरे हुए। मैंने काफी मंगाई। उन्होंने काफी की चुस्की लेते हुए पूछा- कुछ कितने
प्रकाशक यहां आए हैं। मैंने बताया करीब 22 प्रकाशकों की पुस्तकें हिन्दी मंडप में
है। बाकी राजपाल, राजकमल, किताब महल, आदि के स्टाल हैं।
अज्ञेय ने पूछा- हिन्दी पुस्तकों की बिक्री कैसी है मैंने
कहा – लगभग 10 लाख से अधिक मूल्य की हिन्दी पुस्तकें मेले में बिक जाती है। बंगला
की सबसे अधिक बिकती है। इसके बाद अंग्रेजी की पुस्तकों का बाजार सबसे अच्छा है।
अज्ञेय ने सुझाव दिया – हिन्दी के सबसे अधिक पाठक कलकत्ता में रहते हैं। इसीलिए
ज्ञानपीठ से कहा था कि ज्ञानपीठ सम्मान-समाराह कलकत्ता में ही रखें। हम इस विषय
में और जानकारी लेते तभी देखा बंगला के श्रेष्ठ कवि शक्तिचट्टोपाध्याय उनकी पत्नी
मीनाक्षी, मृणाल, बेलाल चौधरी मंडप में मुझसे मिलने आए लेकिन अज्ञेय को देखकर
प्रसन्न होते हुए उन्हें सभी ने नमस्कार किया। मैंने बाकी लेखकों से परिचय कराया।
अज्ञेय हाथ जोड़कर सभी को नमस्कार किया। बंगला में बोले आमि एकटू बंगला जानी।
रवीन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए कलकत्ता में जब रहता तो सीखा। शक्ति ने कहा कवि आमि अपनार कविता शोनते चाई। अज्ञेय ने तत्काल कितनी
नावों में कितनी बार से चुनकर तीन कविताओं का पाठ किया। शक्ति अपनी सुप्रसिद्ध
कविता अवनी बाड़ी आचो सुनाई तभी सुभाष मुखोपाध्याय और गीता दी आए। मैंने उठकर उनकी
आवभगत की। अज्ञेय को उन्होंने कहबद्ध प्रणाम किया। केमन आछेन बोले- अज्ञेय जी ने
उत्तर में कहा – भालो। सुभाष दा बोले येई खाने भालो जमजमाट होयछे। अज्ञेय जी के मन
लागचे। यहां बहुत बड़ा जमघट है। अज्ञेय जी कैसा लग रहा है। अज्ञेय ने मन्दमुस्कान
के साथ कहा- खूब भालो। सुभाष दा बोले – साहित्य अकादमी-काव्य संगोष्ठी ते आपनार
कविता सुनेचि। आपानार बोई पोढ़ते पारी ना। हिन्दीर ज्ञान खूब बेशी नोय। कथा गुलो
बूझा जाय किन्तु आखर गुलो पढ़ते असुविधा हो। हिन्दी बांग्ला ते खूब बेशी तफात नीय।
हिन्दी समझ लेता हूं। पढ़ नहीं सकता। यूं तो हिन्दी बंगला में कुछ अधिक अन्तर नहीं
है। अब तक काफी आ गई। ट्रे में से उठाकर सबसे पहले मैंने सुभाष दा, गीता दो को
दिया फिर अज्ञेय जी, शक्ति, बेलाल तथा अन्य मित्रों ने काफी कप ले लिए। चर्चा
बंगला-हिन्दी कविता के आधुनिक पैटर्न, काव्य-शिल्प पर चली। अज्ञेय ने सुभाष दा से
कहा – हिन्दी कविताओं के बांगल् आनुवाद होने चाहिए। बांगल् के तो हिन्दी में काफी
अनुवाद छपते रहते हैं। पढ़कर लगता है कि बंगला के कवि अच्छा लिख रहे हैं। अब तक
विश्वम्भर दयाल सुरेका और कुसुम जी अज्ञेय को घर ले जाने के मेले का परिदर्शन कर आ
गए। अज्ञेय ने ही कहा- अब तो चलना होगा। बहुत अच्छा लगा। सुभाषा बाबू शक्ति बाबू
से मुलाकात हो गई। यह मेरे लिए उपलब्धि है। हमने एक दूसरे को नमस्कार कर विदा
किया। अज्ञेय जी मुझे मौन आशीर्वाद देकर सुरेका जी के साथ चले गए। अब तक प्रभा
खेतान इस काव्य को लिपिबद्ध कर रही थी मैंने उन्हें उलाहना-प्रभाजी आप लिखने में
व्यस्त हो गई। अपनी कविताएं तो सुना देती। उन्होंने धीरे से कहा – किसी ने कहा
नहीं। मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ।