Wednesday 13 July 2011

संस्मरण - अज्ञेय यायावर, एकांतप्रिय

अज्ञेय का जीवन यायावरी का श्रेष्ठ उदाहरण है। उन्होंने 1950 के बाद से लेकर अंतिम दिनों तक हमेशा देश-विदेश की यात्राएं की। एक यात्रा के बाद दूसरी, तीसरी, चौथी परन्तु वे थकते नहीं थे। वे कहते कि यात्राओं से अनुभव परिपक्व होता है और नई बातें जानने का अवसर मिलता है, नये-नये लोगों से मेल-मिलाप समझदारी को बढ़ाता है। इससे लेखन-चिन्तन में सहायता मिलती है। हिन्दी लेखकों में सबसे अधिक अज्ञेय ने यात्राएं की है। लेकिन दिल्ली में वे अकेले रहना पसंद करते थे। वे बहुत कम लोगों से मिलते थे तथा सभा, संगोष्ठियों में जाने से कतराते थे।

अज्ञेय को ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित करने की जब घोषणा हुई तो उन्होंने ज्ञानपीठ को सुझाव दिया कि सम्मान समारोह कलकत्ता में होना चाहिए, क्योंकि कलकत्ता महानगर में देश भर के किसी भी महानगर से अधिक हिन्दी साहित्य प्रेमी, हिन्दी पाठक तथा हिन्दी भाषी रहते हैं। कलकता के कलामंदिर सभागार में भव्य ज्ञानपीठ सम्मान समारोह सम्पन्न हुआ, जहां ज्ञानपीठ सम्मान से अज्ञेयजी को विभूषित किया गया। वे रामकृष्ण अतिथि भवन गोलपार्क में हमेशा की तरह ठहरे थे। क्योंकि कलकत्ते में यह बेहद शांत और अलग तरह का स्थान है। मैं सम्मान समारोह के दूसरे दिन सबेरे उनसे मिलने, बधाई देने अतिथि भवन गया। उनके साथ इलाजी भी आई थी। घंटी बजाते ही अज्ञेय जी दरवाजा खोलकर बाहर आए। मैंने कहा गुरुवर ज्ञानपीठ सम्मान के लिए मेरी हार्दिक बधाई। अज्ञेयजी के होठों पर मंद मुस्कान फैल गई। बोले कुछ नहीं। वे मुझे भीतर ले गए। कुर्सी पर बैठने के लिए कहा- फिर अंदर गए और एक डिब्बे में लड्डू लेकर आए। मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा-लीजिए। मैंने एक लड्डू लिया। फिर उन्होंने फोन कर कैंटीन से दो काफी मंगवाई। पांच मिनट में काफी आ गई। फिर उन्होंने पूछा- कल का समारोह कैसा लगा? मैं कहा- जी बहुत भव्य था। मैंने उन्हें बताया कि आपने जो सिल्क का कुर्ता तथा चुड़ीदार पहना था, शाल ओढ़ा था, वह बहुत ही सुन्दर दिख रहा था। वे मुस्कराए। मैंने फिर कहा-आपने सम्मान के उत्तर में जो कहा था- यह साहित्य सम्मान उन सभी साहित्य प्रेमियों पाठकों, मित्रों का है, जिन्होंने मुझे लिखने की प्रेरणा दी। सभा भवन में सभी उपस्थित समूह ने खड़े होकर करतल ध्वनि से आपको अपनी शुभकामनाएं अर्पित की। यह और भी भव्य लगा।  मैंने यह भी कहा कि कलकत्ता के हिन्दी साहित्य प्रेमियों, हिन्दी भाषियों को बहुत अच्छा लगा कि ज्ञानपीठ सम्मान आपने कलकत्ता में ग्रहण किया। उस दिन अज्ञेय ने यह उद्घाटित किया कि ज्ञानपीठ सम्मान से जो राशि मिली है उसे मैं वत्सल निधि को दे रहा हूं। उससे साहित्य का काम होगा। नए लोगों की पुस्तकें प्रकाशित होंगी। मैंने उस दिन अज्ञेय को एक महान लेखक ही नहीं बल्कि उदार हृदय मानव के रूप में देखा था।


कलकत्ता पुस्तक मेले में रूपाम्बरा हिन्दी मंडप वर्ष 1978 से भव्य तरीके से आयोजित किया जाता रहा है। इसमें राजकमल प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, राजपाल एण्ड सन्स, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय आदि लगभग 128 प्रकाशकों की पुस्तकें एक ही स्थान पर रूपाम्बरा हिन्दी मंडप में हिन्दी पाठकों को प्राप्त हो जाती थी। 28 जनवरी 1986 में कलकत्ता पुस्तक मेले में हिन्दी पुस्तक स्टाल में अज्ञेय जी शाम 5 बजे बधारें। उनके साथ उद्योगपति श्री विश्म्भर नाथ सुरेका, कुसुम खेमानी तथा कई और भी लोग थे। अज्ञेय जी उसी दिन सबेरे बंगलादेश से लौटे थे। वहां साहित्य समारोह में भाग लेने गए थे। एयरपोर्ट से ही उन्होंने मुझे फोन पर कहा कि कलकत्ता पुस्तक मेले में मैं आना चाहता हूं, आज ही। क्योंकि रात की फ्लाईट से मुझे दिल्ली जाना है। उन्होंने कहा मेरी पुस्तकें स्टॉल में होंगी न! जी गुरुवर! आप मेले में आयोजित हिन्दी मंडप स्टॉल में आएं, स्वागत है। मैंने अपने सहयोगियों को सचेत कर दिया कि शाम 5 बजे अज्ञेय जी हिन्दी मंडप स्टाल पर आएंगे। उनकी पुस्तक अलग से सजा दी जाएं। डिकोरेटर से 15 कुर्सियां भी मंगवा लिया। अज्ञेय जी ठीक पांच बजे आए। स्टाल में जाकर चारों ओर घूमकर पुस्तकों का अवलोकन किया और अलग सजाई गई अपनी पुस्तकों को बड़े ध्यान से कुछ देर तक देखते रहे। मुझसे बोले- मेरी सारी पुस्तकें तो है नहीं हैं। मैंने कहा कि यहां लगभग आपके सभी प्रकाशक मौजूद हैं। उन्होंने आपकी जो पुस्तकें भेजी हैं वे सभी लगी हैं। अब तक हिन्दी प्रेमियों की भीड़ अज्ञेय जी से मिलने, उनकी किताबें खरीदकर उनसे हस्ताक्षर लेने के लिए उतावली हो रही थी। हिन्दी मंडप के सुरक्षागार्ड मुस्किल में थे। मैंने अज्ञेय जी को सुझाया-गुरुवर हिन्दी मंडप के गेट पर आप बैठ जाएं और वहीं हस्ताक्षर कर लोगों को पुस्तकें देते जाएं। वे मेरे साथ बाहर निकलकर कुर्सी पर बैठ गए। पाठकों को एक-एक कर पुस्तक पर हस्ताक्षर कर देते गए। परन्तु कुछ ही देर में वे थक गए। कहा- अब बस। मैंने उनके लिए तथा सुरेकाजी के लिए चाय मंगवाई। कुसुमजी चाय पीती नहीं। कुछ औरतें चाय नहीं पीती कि उनकी सुन्दरता धूमिल हो जाएंगी। इन्दिरा गांधी भी चाय नहीं पीती थीं। अज्ञेय जी मौन साध कर चाय पीते रहें। इसके बाद जैसे मौन ने उन्हें बांध लिया। अज्ञेय से मिलने, देखने कलकत्ता के साहित्यकार हिन्दी मंडप के बाहर खड़े थे। परन्तु पता नहीं क्यों वे अज्ञेय से मिलने आ नहीं रहे थे। शायद अपने हीन बोध के कारण ऐसा रहा हो। परन्तु मुझे अजीब सा लगा कि आज लेखक-लेखक से किस तरह कटा हुआ है। यह हिन्दी साहित्य के लिए शुभ नहीं है।

No comments:

Post a Comment