Saturday 30 July 2011

प्रेम की परिणति

प्रेम की परिणति यही होती है
उम्र दर उम्र
पलकों में सपनों के अंकुर उगाना
अथवा गहरे
बहुत गहरे मन के अन्दर डूबना
डूबते जाना
यदि तुम पहचानते हो
सरसराते चीड़वन की गन्ध और
एकाकी वन पाखी का गीत
जो कोहरे के बीच से उभरता है;
यदि तुम समझ सकते हो
जंगली कलरव और
पतझर में झरते पीले पत्तों का अन्तर्मन;
तभी
प्रेम जैसे कठिन युद्ध में
शरीक हो सकते हो!

The End of Love
This is the end of love
In all ages
To grow offshoots of dreams
In the eyelids to keep
Or to sink pondering
in bottomless depth of mind
And thus go on sinking deep.

If you recognize the fragrance of
stirring pinewoods, and also
The song of a solitary bird
Which emerges out of the mist

If you can understand
The wild sweet tunes, and also
The inner mind of falling yellow leaves
In the autumn breeze
Only then
You can be a participant
In the hard battle of love...

Monday 25 July 2011

छलते रहेंगे वे हमेशा ही

वे अज्ञात दिशा से आए और अपनी उड़नतस्तरी छोड़
अजाने छितिजों में चले गए
जाने किधर
किस नक्षत्र की ओर
एक अंतरिक्ष से दूसरे में चले गए
और हम
किवंदतियों में उलझे, भटके
इतिहास के बहुआयामी चौराहे पर
अपनी यात्रा-क्रम में बार-बार छले गए...

वे दोबारा आए
और हमें पराधीन बनाकर
अपनी राह चले गए
इसी तरह वे आते रहेंगे
नए-नए त्रासद लोभ-महत्वाकांक्षा-व्यामोह पलते रहेंगे
हमारी अस्मिता को छलते रहेंगे।

The Camouflage
Yes, they came from unknown directions
Abandoned their flying saucers
Left for which unknown horizons,
Towards which star
from one outer space to another
And we have remained confused and bewildered
With our remours, while travelling
to the multidimentional crossings of history
Repeatdly decieved and defrauded,

They came again, enslaved us
and went away on their chosen paths.
They are likely
To visit us time and again in the same way
Likewise new horrors and markedly unfamilar deceptions
will go on to defraud us
And our own Identity.

Friday 22 July 2011

The Agony of Divided Life

For the whole of my life's span
I trid to be the history of vital sacrifices,
perhaps, I lived
The life for that sense of dedication
Divided time and pain of Inner mind
whnever tormented me invisibly.
And when my afficted silent crying
made the eyes misty with sorrows galore
I built sandy home with sensitivity
on the active brain's shore
This has charmed my heart
And it becomes the seed of vital feelings.
A history of faith is never written with
the pen of deception
The vitality struggles and
makes the people manly
Teaches them the lessons of stepping ahead progressively
of course pacing onward to a bright future,
reflecting on the by-gone
ages is essential though difficult

खंडित जीवन

सारा जीवन
प्राण-उत्सर्ग इतिहास
बनने का यत्न किया
संभवतः इसीलिए तो
यह जीवन जिया।

खंडित समय
और अन्तर्मन की पीड़ा से
भीतर ही भीतर जब जब व्यथित हुआ
आर्तनाद करते मौन की आंखों के आर-पार
दुःखों का कुहासा बन छाया रहा
और फिर मस्तिष्क के रेत-तट पर
संवेदना के जितने भी
रेत-घर बनाए
उनके सर्जन और आकर्षण का व्यामोह
बांधे रहा अन्तःस्थल में
फिर वही बना प्राण-संवेदना का संकेत-बीज..

प्रवंचना की कलम से
आस्था की इतिहास-कथा लिखी नहीं जाती
संघर्षों की जीवन्तता ही हमें पौरुषेय बनाती
और वही आगे चलने का सबक सिखाती
भविष्य की ओर चलने के लिए
जरूरी है अतीती-मनन।

Wednesday 20 July 2011

LIfe's existence

How much happens unexpected
How much is existing in life
How much is lost and missed
In this very life's existence on this planet

What so ever one gains
Even that is gradually gone forever
or left behind us; alas! Lots of time
Is waisted and hence wanted in the world
Time never stands still for anyone
Like an adept hunter's arrow
It shoots towards the target
The time does not bow its head before a tyrant's thrown.
like the fog it covers all and spreads
and it also disappears within moments
when the sun shines over our head
When we are deprived of love's
Treasured pleasure all around
Time like the morning dew
showers compassion
And makes us unmindful of the present
Fantasinging about the futre
None goes on carrying the past on the back
It is replaced iwht good lively hopes
But how one is so much swindled off
our hopes which are belied and broken
Destroyed or disprensed altogether
One knows not what to do
Except keeping the eyes wet with tears.
Or wants to wander in the woods of amnesia
True, one looks to the confused memories
In the broken mirror of history, what else! What so ever
every thing is lost with no recoverys

जीवन-अस्तित्व

कितना कुछ घटित होता जीवन में
कितना कुछ
कितना कुछ खोता जाता आदमी
कितना कुछ
और जो कुछ वह पाता है
उसे भी तो खोता चला जाता है
समय इसी तरह गुजर जाता है
बहेलिए की आखेटघाती तीर की गति जैसा
समय कभी ठहरता नहीं...

किसी सिंहासन के आदेश पर सिर नहीं झुकाता
समय-असमय हर किसी के जीवन में
कुहासा की तरह छा जाता
फिर क्षणभर में आंखों से ओझल हो जाता
संचित प्रेम-सुख के छिन जाने पर
समय-प्रभात-ओसकण बनकर
अपनी करुणा बरसाता है
अतृत्व प्यास, सुख, दुःख का
अहसास लिए
समय सदा ही वर्तमान को खोता
अतीत को पीठ पर लादे हमेशा चल नहीं पाता
भविष्य की आशाएं ही ढाता
आदमी कितना कुछ खोता...

आशाओं के छिन-भिन्न होने पर
किंकर्तव्यविमूढ़ आंखें भिगोता
विस्मृतियों के जंगल में चक्कर लगाता
सचमुच आदमी इतिहास के टूटे हुए आइने में
स्मृतियों की खंडित छाया के अतिरिक्त
भला क्या देख पाता है!

Tuesday 19 July 2011

प्रवंचना के बीच

प्रवंचना के काले बादलों के बीच
घिरते हुए मैंने अनुभव किया
जितना कुछ जीवन का यथार्थ
शब्द-अर्थ, आयाम, मनुष्य, प्रकृति-चित्रण को
मैने अपनी अभिव्यक्ति का साध्य बनाया
वे सभी तो समय की प्रत्यंचा पर धराशायी होते रहे
फिर कैसे किन कठिन यंत्रणाओं के बीच
मैंने यह जीवन जिया।
प्रवंचना के कुहासे के बीच
मैंने यही किया
कि अपनापन उनहें भी दिया
जिनके पास शब्दों की बैसाखियां थीं
और उन्हें भी
जिन्होंने अपने से अधिक
दूसरों को जिया
अपनत्व दिया।

In the Mids of Deception Galore
When I felt encircled by the
life's deceptive reality, I expressed self through the medium
of words, meanings, dimensions, people's moods
Delineation of nature's scenic beauty
strangely enough they also were destroyed by
the bowstrings of time.
Then how I lived with so much anguish, hard to bear,
no one knew
Or tried to investigate or understand.
But amidst the mist of depravity,
I provided the sense of belonging to those
Who walk on crutches of words and dreams unknown
To those who lived more for others
Than for themselves alone.

Monday 18 July 2011

अतीत से टूटना

अतीत को
याद करना कितना कठिन होता है
कितना कष्टकर होता है
अतीत के बंधन से
स्मृतियों की छाया को मुक्त कर पाना
कितना दुष्कर होता है
जीवन को नए सिरे से जीना
अतीत का प्रभामंडल भला कौन तोड़ पाता है
पुराने संबंधों को छोड़कर
भला नये से कौन कितना मन जोड़ पाता है।

Breaking away with Past
How troublesome it is
Reminiscing the past or by-gone
How painful it is Indeed
To get Liberated and released from the shadows of the memories
And how difficult it is
to disconnect ourself
from the days gone by
when there were stars in the eyes
and butterflies in the sleep
to start the life all over again
It is not indeed easy induct to transcend
To do away with old relations, and
set our mind on the new ones but how much.

Saturday 16 July 2011

हिन्दी संस्मरण- हरिवंशराय बच्चन- मधुशाला के अमर गायक

अज्ञेय के बाद मेरे जीवन में कविवर हरिवंश राय बच्चन का विशिष्ट स्थान है। जब मैं इविंग क्रिश्चियन कॉलेज इलाहाबाद  में आई.एस.सी. प्रथम वर्ष का छात्र था तो मैं अपने हाथ से प्रतिदिन चरखा चलाता था और वही सूत खादी भंडार चौक को देता था। वे कपड़ा बनवा देते थे। उसी कपड़े का कुर्ता-पायजामा सिलवाकर पहनता था। अपने हाथ से धोता था और लोटा में आग भरकर संड़सी से लोटा पकड़कर कपड़ों पर स्त्री भी कर लेता था। इविंग क्रिश्चियन कॉलेज उस समय भारत का श्रेष्ठ शिक्षण संस्थान था। कॉलेज के प्रायः सभी प्रोफेसर विदेशी थे। कॉलेज का लंबा चौड़ा मैदान, टेनिस कोर्ट, बास्केट बॉल, फुटबाल के हरे-भरे मैदान तथा इनडोर गेम के विविध संसाधन के साथ यमुना तट पर छात्र तथा छात्राओं के लिए वोटिंग क्लब, प्रार्थना के लिए चैपल, विशाल हॉल, फिजिक्स, केमिस्ट्री, आर्ट्स डिपार्टमेंट के अलग-अलग भवन, लड़कियों का अलग हॉस्टल और लड़कों के दो अलग हॉस्टल थे। प्रायः सभी अध्यापक, प्राध्यापक बड़ी मेहनत से छात्र-छात्राओं को पढ़ाते थे। प्रत्येक वर्ष कॉलेज का अच्छा रिजल्ट आता था।  मुझे हिन्दी-अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई जाती थी। कबीर, रहीम, मीरा, सूरदास, तुलसी दास, जयशंकर प्रसाद, पंत, महादेवी वर्मा आदि की कविताओं के भावार्थ अंग्रेजी में लिखना पड़ता था। कॉलेज का अनुशासन बहुत कड़ा था।

उस समय मैं खदर पहनता था और चुरीदार पायजामा तथा कुर्ता में ही कॉलेज जाया करता था। मैं गांधी, विनोबा भावे के रंग में डूबा था। कॉलेज में बहुत शीघ्र मुझे हर छात्र-छात्रा तथा प्रोफेसर पहचानने लगे थे। मैं लड़के-लड़कियों को अपने राष्ट्रीय विचारों से प्रभावित करता रहा और कॉलेज में गांधी प्रार्थना समाज तथा नेशनल सर्विस एसोसिएशन की स्थापना की, जिसकी अनुमती प्रिंसिपल डॉ. गिडियन  से ले ली। और प्रत्येक शुक्रवार को एक बैठक करने लगा। जिसमें हमारे प्रोफेसरों में सबसे अधिक उदार मना फिजिक्स के प्रोफेसर डॉ. आर. के. शर्मा का वरदहस्त मुझ पर था। हम प्रत्येक साप्ताहिक सभा में कॉलेज के किसी न किसी लेक्चरर को आमंत्रित करते और राष्ट्रीय विषयों पर उनका भाषण करवाते। पहले तो छात्र-छात्राओं ने इस बारे में कोई रूचि नहीं ली। फिर एक बार जब मधुशाला के अमर कवि श्री हरिवंश राय बच्चन को गांधी प्रार्थना समाज की बैठक में आमंत्रित किया तो उनका जी भर कर स्वागत किया गया। वे हम छात्रों से बेहत घुल मिल गए। पहले दिन उन्होंने सूत की माला  काव्य संकलन से कई कविताएं सुनाई। एक संक्षिप्त भाषण भी दिया। उसके बाद बच्चन जी से हमलोगों ने प्रार्थना की कि वे प्रत्येक शुक्रवारी सभा में आएं और हमलोगों को अपनी कविताएं सुनाएं तथा हमारा मार्ग दर्शन करें। बच्चन जी ने हमारा निवेदन स्वीकार कर लिया। वे नियत समय पर शाम 6.00 बजे कॉलेज आते, कविताएं सुनाते, हमलोगों से बातचीत करते और चले जाते। बच्चन जी के साथ लगभग दो वर्षों का सानिध्य मुझे काव्य रस में भिंगोया, परिमार्जित किया और जब जून 1955 में उत्तर प्रदेश  के सभी कॉलेजों के बीच एक निबंध प्रतियोगिता हुई। विषय था 'अहिंसा के द्वारा ही विश्व शांति संभव है।' उस प्रतियोगिता में मैंने भाग लिया और मुझे प्रथम स्थान मिला। दारागंज में पुरस्कार समारोह था। मंच पर काका कालेलकर, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, कविवर बच्चनजी, हमारे कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. एस. एस. गिडियन महोदय तथा अन्य महानुभाव बैठे थे। जब पुरस्कार के लिए मंच पर मुझे बुलाया गया तो सभी ने खड़े होकर करतल ध्वनि के साथ मेरा स्वागत किया। मैं उस समय बहुत दुबला-पतला था। सफेद खदर के कुर्ता-पैजामा में और भी दुबला लगता था। मंच पर मुझे बहुत सारी पुस्तकें तथा अन्य उपहार दिए गए। सारे उपहार राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ही दिए। उन्होंने मुझसे पूछा, बेटे क्या तुम कविता लिखते हो?  मैंने कहा-जी! उन्होंने कहा- लेकिन तुम्हारा नाम शारदा प्रसाद उपाध्याय 'शारदूल' बहुत बड़ा है और जंचता नहीं। यदि तुम मेरी बात मानो तो मैं कुछ सलाह दूं। मैने संकोचवश कहा- आप जो कहेंगे मैं उसे सिरोधार्य करूंगा। वे प्रसन्न होते हुए बोले- तुम अपना नाम स्वदेश भारती रख लो। अपने घर में भी अपने माता-पिता से सलाह कर लेना। क्योंकि नामकरण की बात है। मैंने उनका पांव छुआ। उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया। फिर मैंने कालेलकर जी एवं बच्चन जी का पांव छूआ। बच्चनजी उठकर मुझे आशीर्वाद देते हुए बोले- तुम स्वदेश भारती, आज से कविताओं में अपने को बांधो और अच्छे से लिखो। मैं जीवन में इतना प्रसन्न कभी नहीं हुआ था। समारोह में कॉलेज से मेरे साथ बीएसी प्रथम वर्ष की छात्रा संतोष मल्होत्रा भी गईं थी। उसने और हमने सारी उपहार सामग्री को लेकर रिक्शे से वापस जब लौटे तो बारीश होने लगी। कॉलेज पहुंचकर मैंने गर्ल्स हॉस्टल में संतोष को छोड़ा और उसी रिक्शे से जब चलने लगा तो उसने कहा आप भींग जाएंगे। इसलिए मेरा रेनकोट ले लीजिए। मैंने अनिच्छा पूर्वक रेनकोट ले लिया। फिर तो हॉस्टल पहुंचने पर सारे छात्रों ने उस रेनकोट की ऐसी की तैसी कर दी। सबने उसे पहना, सूंघा, आकाश की तरफ उछाला और एक रंगीनी का माहौल छा गया। कोई मुझे धन्यवाद दे  रहा था और कोई अपने आपको रेनकोट पहनकर सौभाग्यशाली कह रहा था। लेकिन जो पुरस्कार मुझे मिला था उस पर किसी लड़के ने न तो कोई कमेंट किया और नहीं पुस्तकों को खोलकर देखा। इससे मेरे भीतर एक अजीब सा तनाव और दुख भर गया। फिर भी उस दिन के दो महापुरुषों के आशीर्वाद को मैंने अपने जीवन का सबसे बड़ा दान समझकर लड़कों की बदतमीजी को आत्मसात कर लिया। दूसरे दिन मैं बच्चन जी के घर गया। उन्हें धन्यवाद देने और यह कहने कि आदरणीय दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त) के आदेश का मैं जीवन भर पालन करता रहूंगा। बच्चनजी बेहत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा - तुम जैसा मेधावी छात्र अंग्रेजी कालेज में पढ़ते हुए भी हिन्दी के प्रति इतनी आस्था रखता है, इससे मुझे बहुत प्रसन्नता है। तुम्हारे कारण ही मैं गांधी प्रार्थना समाज में जाता रहा हूं और आइंदा भी जाता रहूंगा।

Friday 15 July 2011

जीवन

कुछ कट गई जीवन को सजाने में
कुछ कट गई प्रेम के बहकाने में
कुछ और भी कट जाएगी जीवन की यात्रा
अपने ही शव को कंधे पर उठाने में।

The LIfe - Span
Some part of the life has passed
In emblazing its ephemeral existential charm
some spent in nursing the utopian dreams
of love's ecstasy unbound
what a travesty of truth.
The rest of the uourny on the lifes ordained path
is bound, to carry ones own dead body
In the end, to the Crematorium ground.

अज्ञेय के अंतरंग प्रसंग

अज्ञेय के विविध रूप थे। विविध अभिरुचियां थी। आभिजात्य वर्ग, संभ्रांत वर्ग की जीवन प्रक्रिया थी। वे अपना खर्च अपने लेखन से जुटा लेते थे। स्वयं अपना भोजन बना लेते थे और अपना सारा काम स्वयं करते थे। उनका भोजन साधारण शाकाहारी होता था। परन्तु उसमें भी विविधता होती थी। इसलिए वे स्यवं बाजार जाकर तरकारियां, फल रसोई का सामान खरीद लाते थे। बढ़ईगिरी भी कर लेते थे। जूता गांठ लेते थे, माली का काम तो प्रत्येक सुबह टहलकर आने के बाद करते थे। गमले की मिट्टी की खुदाई करना, खाद डालना, पानी डालना, पीली पत्तियों को चुनकर पेंड की जड़ में रखना आदि।

वर्ष 1985 में कलकत्ता में आयोजित साहित्य संगोष्ठी में  आए थे। भाषा परिषद में साहित्य समारोह था। कविता, कहानी आलोचना के विविध विषयों पर विचार-विमर्श चल रहा था। वे वक्ताओं के बेतुके वक्तव्यों से ऊब जाते थे। और सभा भवन के बाहर आकर मौन भाव से एक कोने खड़े हो जाते थे। मैं भी कभी-कभी उनके साथ उठकर आ जाता था। वे खड़े हुए थक जाते थे तब पीछे की सीट पर बैठने के लिए मुझे कहते थे। हम दोनों जाकर पीछे बैठ जाते थे। एक दिन बोले- आप जानते हैं कांस के बरतन कलकत्ता में कहां मिलते हैं? कांस के बर्तन में खाना काफी स्वास्थ्यप्रद होता है। पहले गांवों में कांस के बर्तन ही चलते थे। अब तो स्टील आ गया। यहां कहां मिलते हैं, मुझे खरीदना है। मैंने कहा कालीघाट में शायद मिल जाएं। उन्होंने कहा थोड़ा समय अभी है, चलिए घूम आते हैं। गाड़ी आ गई तो हम दोनों कालीघाट की दुकानों में कांसे के बर्तन खोजने निकल पड़े। वहां कई दुकान देखें, परन्तु बर्तन पसंद नहीं आए। हम वापस आ गए। रास्ते में अज्ञेय के साथ साहित्य चर्चा होती रही। जिसके बीच उन्होंने बताया कि मैं कविताएं लिखते-लिखते जब बोरियत का ऐहसास करता हूं तो अन्य विधा में काम करना शुरू कर देता हूं। शायद इसीलिए मैंने कविता के अलावा अन्य विधाओं में भी काम किया।  अज्ञेय ने जिस कर्म, कौशल, संदीजगी और लेखन-चिन्तन द्वारा अपने व्यक्तित्व को विश्व धरातल पर  प्रस्तुत किया, उसके लिए अज्ञेय का व्यक्तिगत जीवन भले ही विखराव भरा रहा हो, किन्तु वे विषपायी, साहित्य साधक, जीवन पर्यंत संघर्ष करते रहे। कर्मठता, अकेलापन, मौन उनके लेखन के खास आयाम थे। अतः अज्ञेय का जीवन का अंतिम पड़ाव, विषाद, वैराग्य और संबंधों की प्रवंचना का अद्भूत संमिश्रम रहा है।

1987 अप्रैल में भोपाल काव्य उत्सव में वे गए थे। उस उत्सव के वे केन्द्र बिन्दु बने रहे। वहां से दिल्ली लौटकर कुछ अस्वस्थ बोध कर रहे थे। एक दिन मैंने फोन किया तो बोले शरीर अब थकान सह नहीं पा रहा है। लम्बा आराम करने की इच्छा है, परन्तु अभी कई काम अधूरे है। मैंने विनम्रता पूर्वक कहा- कि कुछ दिनों के लिए कलकत्ता आ जाएं या नैनीताल अथवा दार्जिलिंग जाकर विश्राम कर लें। उत्तर में उनकी शांत, बुझी हुई आवाज आई। स्वदेश जी अब तो मुश्किल है। मैं उनकी असमर्थता समझ नहीं पाया।

वे चार अप्रैल को प्रातः साढ़े 7 बजे के करीब सीने में दर्द से व्याकुल होकर विस्तर पर लेट गए। दर्द बढ़ता गया। वे बिस्तर पर पड़े अकेले छटपटाते रहे। उन्होंने इलाजी को कई बार पुकारा। इला जी उस समय आसन कर रही थीं, बोली-थोड़ी देर में आती हूं। किन्तु वो दिल का भयानक दौरा था। वे चन्द मिनट उनके लिए बड़े कष्ट के थे। अकेले, असहाय और उसी हालत में बिना किसी उपचार या सहायता के अपना अस्तित्व त्यागकर हमसे बहुत दूर चले गए। आज सोचता हूं, एक महान लेखक का यह कैसा संबंध है? कैसा मेल है, कैसा मानव मूल्य है, पति के प्रति पत्नी का कैसा प्रेम है कि एक व्यक्ति अपने साथ रह रहे, दूसरे व्यक्ति के कष्ट को समझ नहीं पाता। 4 अप्रैल 1987 का यह प्रकरण मेरे लिए कभी न भूलने वाली घटना है। आज न अज्ञेय जी हैं और न ही इलाजी। किससे पूछूं कि संबंधों की विडम्बना के बीच हम अपना अस्तित्व कैसे सुरक्षित रख सकते हैं।

1938 में जेल की लम्बी त्रासदी झेलने के बाद अज्ञेय जी ने हारिल को पुकारा था। उनकी वह प्रसिद्ध कविता मेरे दिमाग में हमेशा याद रहती है।

उड़ चल, हारिल, लिए हाथ में यही अकेला, ओछा तिनका,
ऊषा जाग उठी प्राची में- कैसी बाट भरोसा किनका।
शक्ति रहे तेरे हांथों में - छूट न जाए  चाह सृजन की,
शक्ति रहे तेरे हाथों में - रूक न जाए गति जीवन की।।

Relationship

All moments, seconds, minutes and hours,
Days, months and years
Are related to one another

The weather with its changes
Old and new years, Centuries, eras
And even the Earth, the Sun
The Moon, the stars and the planets
The Universe and the cosmic creation.
All are inseperably inter-related.

It is because of
this very reason, perhaps,
We're able to coexist,
Amidst our inunnerable longings
anguish, horror, alienation,
unbearable misries
Every moment of our day pass on
Every atom of creation relates to
Animate and the inanimate
So are humans to each other
Relations are made and unmade
Like waves of the occean.
The unlived part or contents of
Our heart and mind
Scatter on the shores of existence
Creating new and newer environments
circumstances and situations the vacuum
or the void is filled with granuales
By new waves, novelty surges up.
Even in our heart and vision. Cleaver love like a fine-Artist
Creates new and newer pictures of Relationships
With the variety of hues and colours
Made out of spring-Time  flowers
and myriad blossoms.

संबंध

पल छिन का पल छिन से
दिन का दिन से
मास प्रति-मास का, वर्ष प्रति-वर्ष से
ऋतुओं का ऋतु-परिवर्तन से
वत्सर का नव-संवत्सर से
शताब्दी का शताब्दियों से
युग का युगों से
धरती का सूर्य से
चन्द्रमा का धरती से
ग्रहों, नक्षत्रों का ब्रह्माण्ड-अन्तरिक्ष से
कितना अटूट नाता है
और शायद इसीलिए
अकल्पित आकांक्षाओं, दुःखों और संत्रास के बीच
हमारा दिन क्षण-क्षण बीत जाता है
कण प्रति कण का नाता है स्थावर जंगम से
और मनुष्य का मनुष्य से संबंध-
समुद्र की लहरों जैसा बनता टूटता है
हृदय का जिया हुआ अवशेष-
अस्तित्व-तट पर विखरता है
नित नूतन परिवेश सर्जित करता है
हृदय -सिक्त-कणों को
नव-लहरों के नित नवीन आलोड़न से
आप्लावित कर खालीपन भरता है
और इसीलिए
हमारी आंखों में, हृदय में
चतुर प्रेम, चित्रकार की तरह
वसन्त के विविध फूलों के रंगों से
नव संबंधों के नए-नए चित्र सर्जित करता है।

Thursday 14 July 2011

अच्छे इंसान की परिभाषा

जीवन पर्यंत मैं अच्छे इंसान की परिभाषा करता रहा। फिर इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि जो अच्छा सोचता है, अच्छा कर्म करता है और संबंधों के प्रति वफादार तथा प्रतिबद्ध होता है वही अच्छा इंसान कहा जा सकता है। कलाकारों, लेखकों और राजनीतिज्ञों के जीवन में संभवतः ऐसा नहीं भी हो, परन्तु आम आदमी के लिए यह जरूरी है कि वे संबंधों की डोर को टूटने न दें और जीवन को पूरी तरह आस्था और विश्वास के साथ जिने का यत्न करें।

The Men and The Women
The men and women are too small before their dreams and their eyes gleaming with brightness of love. But the dreams and love never exist so longer and keep them secured at the advent of times' injuries  and emotions to make them impudent and intolerable. Men and Women are the two wheels of life moving towards woods of happiness. Conjugal love and understanding make the key of real relationship. Yes - let us keep our moods  and think so wise to make things cool and nice
and extinguish the intolerance  and anger's fire to keep life prosperous, happy and wise.

Darkness of Night

The dark night writes on the palm of Earth
the morning's mystical story of
filling the fine sand of dreamy pleasures
in the fist of morn
It goes from east to west

Darkness even with its closed eye lids
sees through the laughter and merriment
The blooming lustreless faces of pale flowers
The moonlight spread on the towers.

At the time of cutting the sandy bank
The pleasure ground of lovers' meet,
The sandy home of existence tumbles down
In the current of times and strugling desires,
of course this can't be inadvertent after all
Recorded by history of big events.

It is unable to deal squarely with
The agony of defeat and victory,
Progress and downfall, autumn and spring.

Darkness of night writes, day-by-day
The world's story of painfulness and misery
On the palms of evening's horizon.

रात का अंधकार

रात का अंधकार
धरती की हथेली पर लिख जाता
प्रातः की सतरंगी-कथा
स्वप्निल-सुख की रेत
सबेरे की मुट्ठी में भरता हुआ
पूरब से पश्चिम की ओर चला जाता...

उजाले में भी हंसी और उल्लास के बीच
अंधकार अपनी बंद पलकों के आर-पार देखता
बुर्ज पर खड़ी पीली चांदनी का पीला चेहरा
कटते समय-पुलिन-तट-पर
अभिसार-सुख
समय-प्रवाह में
ढहता अस्मिता का रेत-घर
संघर्षरत चाह में
संजो नहीं पाता इतिहास कभी भी
जीत-हार, अभ्युदय, पतन, पतझर और मधुमास की अन्तर्व्यथा
रात का अंधकार दिन प्रति दिन
शाम की हथेली पर लिखता जाता
संसृति की व्यथा-कथा।

Wednesday 13 July 2011

संस्मरण - अज्ञेय यायावर, एकांतप्रिय

अज्ञेय का जीवन यायावरी का श्रेष्ठ उदाहरण है। उन्होंने 1950 के बाद से लेकर अंतिम दिनों तक हमेशा देश-विदेश की यात्राएं की। एक यात्रा के बाद दूसरी, तीसरी, चौथी परन्तु वे थकते नहीं थे। वे कहते कि यात्राओं से अनुभव परिपक्व होता है और नई बातें जानने का अवसर मिलता है, नये-नये लोगों से मेल-मिलाप समझदारी को बढ़ाता है। इससे लेखन-चिन्तन में सहायता मिलती है। हिन्दी लेखकों में सबसे अधिक अज्ञेय ने यात्राएं की है। लेकिन दिल्ली में वे अकेले रहना पसंद करते थे। वे बहुत कम लोगों से मिलते थे तथा सभा, संगोष्ठियों में जाने से कतराते थे।

अज्ञेय को ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित करने की जब घोषणा हुई तो उन्होंने ज्ञानपीठ को सुझाव दिया कि सम्मान समारोह कलकत्ता में होना चाहिए, क्योंकि कलकत्ता महानगर में देश भर के किसी भी महानगर से अधिक हिन्दी साहित्य प्रेमी, हिन्दी पाठक तथा हिन्दी भाषी रहते हैं। कलकता के कलामंदिर सभागार में भव्य ज्ञानपीठ सम्मान समारोह सम्पन्न हुआ, जहां ज्ञानपीठ सम्मान से अज्ञेयजी को विभूषित किया गया। वे रामकृष्ण अतिथि भवन गोलपार्क में हमेशा की तरह ठहरे थे। क्योंकि कलकत्ते में यह बेहद शांत और अलग तरह का स्थान है। मैं सम्मान समारोह के दूसरे दिन सबेरे उनसे मिलने, बधाई देने अतिथि भवन गया। उनके साथ इलाजी भी आई थी। घंटी बजाते ही अज्ञेय जी दरवाजा खोलकर बाहर आए। मैंने कहा गुरुवर ज्ञानपीठ सम्मान के लिए मेरी हार्दिक बधाई। अज्ञेयजी के होठों पर मंद मुस्कान फैल गई। बोले कुछ नहीं। वे मुझे भीतर ले गए। कुर्सी पर बैठने के लिए कहा- फिर अंदर गए और एक डिब्बे में लड्डू लेकर आए। मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा-लीजिए। मैंने एक लड्डू लिया। फिर उन्होंने फोन कर कैंटीन से दो काफी मंगवाई। पांच मिनट में काफी आ गई। फिर उन्होंने पूछा- कल का समारोह कैसा लगा? मैं कहा- जी बहुत भव्य था। मैंने उन्हें बताया कि आपने जो सिल्क का कुर्ता तथा चुड़ीदार पहना था, शाल ओढ़ा था, वह बहुत ही सुन्दर दिख रहा था। वे मुस्कराए। मैंने फिर कहा-आपने सम्मान के उत्तर में जो कहा था- यह साहित्य सम्मान उन सभी साहित्य प्रेमियों पाठकों, मित्रों का है, जिन्होंने मुझे लिखने की प्रेरणा दी। सभा भवन में सभी उपस्थित समूह ने खड़े होकर करतल ध्वनि से आपको अपनी शुभकामनाएं अर्पित की। यह और भी भव्य लगा।  मैंने यह भी कहा कि कलकत्ता के हिन्दी साहित्य प्रेमियों, हिन्दी भाषियों को बहुत अच्छा लगा कि ज्ञानपीठ सम्मान आपने कलकत्ता में ग्रहण किया। उस दिन अज्ञेय ने यह उद्घाटित किया कि ज्ञानपीठ सम्मान से जो राशि मिली है उसे मैं वत्सल निधि को दे रहा हूं। उससे साहित्य का काम होगा। नए लोगों की पुस्तकें प्रकाशित होंगी। मैंने उस दिन अज्ञेय को एक महान लेखक ही नहीं बल्कि उदार हृदय मानव के रूप में देखा था।


कलकत्ता पुस्तक मेले में रूपाम्बरा हिन्दी मंडप वर्ष 1978 से भव्य तरीके से आयोजित किया जाता रहा है। इसमें राजकमल प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, राजपाल एण्ड सन्स, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय आदि लगभग 128 प्रकाशकों की पुस्तकें एक ही स्थान पर रूपाम्बरा हिन्दी मंडप में हिन्दी पाठकों को प्राप्त हो जाती थी। 28 जनवरी 1986 में कलकत्ता पुस्तक मेले में हिन्दी पुस्तक स्टाल में अज्ञेय जी शाम 5 बजे बधारें। उनके साथ उद्योगपति श्री विश्म्भर नाथ सुरेका, कुसुम खेमानी तथा कई और भी लोग थे। अज्ञेय जी उसी दिन सबेरे बंगलादेश से लौटे थे। वहां साहित्य समारोह में भाग लेने गए थे। एयरपोर्ट से ही उन्होंने मुझे फोन पर कहा कि कलकत्ता पुस्तक मेले में मैं आना चाहता हूं, आज ही। क्योंकि रात की फ्लाईट से मुझे दिल्ली जाना है। उन्होंने कहा मेरी पुस्तकें स्टॉल में होंगी न! जी गुरुवर! आप मेले में आयोजित हिन्दी मंडप स्टॉल में आएं, स्वागत है। मैंने अपने सहयोगियों को सचेत कर दिया कि शाम 5 बजे अज्ञेय जी हिन्दी मंडप स्टाल पर आएंगे। उनकी पुस्तक अलग से सजा दी जाएं। डिकोरेटर से 15 कुर्सियां भी मंगवा लिया। अज्ञेय जी ठीक पांच बजे आए। स्टाल में जाकर चारों ओर घूमकर पुस्तकों का अवलोकन किया और अलग सजाई गई अपनी पुस्तकों को बड़े ध्यान से कुछ देर तक देखते रहे। मुझसे बोले- मेरी सारी पुस्तकें तो है नहीं हैं। मैंने कहा कि यहां लगभग आपके सभी प्रकाशक मौजूद हैं। उन्होंने आपकी जो पुस्तकें भेजी हैं वे सभी लगी हैं। अब तक हिन्दी प्रेमियों की भीड़ अज्ञेय जी से मिलने, उनकी किताबें खरीदकर उनसे हस्ताक्षर लेने के लिए उतावली हो रही थी। हिन्दी मंडप के सुरक्षागार्ड मुस्किल में थे। मैंने अज्ञेय जी को सुझाया-गुरुवर हिन्दी मंडप के गेट पर आप बैठ जाएं और वहीं हस्ताक्षर कर लोगों को पुस्तकें देते जाएं। वे मेरे साथ बाहर निकलकर कुर्सी पर बैठ गए। पाठकों को एक-एक कर पुस्तक पर हस्ताक्षर कर देते गए। परन्तु कुछ ही देर में वे थक गए। कहा- अब बस। मैंने उनके लिए तथा सुरेकाजी के लिए चाय मंगवाई। कुसुमजी चाय पीती नहीं। कुछ औरतें चाय नहीं पीती कि उनकी सुन्दरता धूमिल हो जाएंगी। इन्दिरा गांधी भी चाय नहीं पीती थीं। अज्ञेय जी मौन साध कर चाय पीते रहें। इसके बाद जैसे मौन ने उन्हें बांध लिया। अज्ञेय से मिलने, देखने कलकत्ता के साहित्यकार हिन्दी मंडप के बाहर खड़े थे। परन्तु पता नहीं क्यों वे अज्ञेय से मिलने आ नहीं रहे थे। शायद अपने हीन बोध के कारण ऐसा रहा हो। परन्तु मुझे अजीब सा लगा कि आज लेखक-लेखक से किस तरह कटा हुआ है। यह हिन्दी साहित्य के लिए शुभ नहीं है।

Still we've to go a long way

Having passed so many
uneven, crooked roads and
moments of torcherous deserts
streches of trecherous wetlands
Dense forests and high and low unchartered ways.
Innumerable crossings
at last crossing the final hurdle
the traveller reached the halting place
But the hope still brightly shines-
Like some cat's eyes in the darkness
He is not at all tired in his limbs
keeping the heart open in use
delight has to proceed on and on up to the height
Like the brightest star he has to reach
His destination and take part in
the colorful  Rangoli festival of fun
At the court yard of evenings, horizons
And, to be lost in the the expanse of void.
But just now he has to go on
forward and onward because
In the perspective of changes
One transforms the self not otherwise.

अभी और चलना है

कितने सारे ऊबड़ खाबड़
टेढ़े मेढ़े, मरुजीवी, जलजीवी, थलजीवी भूमि -खण्डों
सघन वनांचल, ऊंचे नीचे रास्तों
अनगिन चौराहों को पार कर
चलता हुआ पथिक अबाधगतिक
एक चौराहे पर रुक गया है
आशा अभी भी बिल्ली की आंख की तरह
चमक रही है
औदार्य-कम्पन में
कहीं भी शिथिलता नहीं है
अभी तो और भी चलना है
और भी आगे
सूर्य की तरह
अपने गन्तव्य तक जाना है
और उसी तरह ओजस्वी लाल रंगोली त्यौहार मनाते
सांध्य-क्षितिज आंगन में
शून्यता की ओट ढलना है
अभी और चलना है
और भी आगे
क्योंकि इसी क्रम में
नए बदलाव में
बदलना है।

Tuesday 12 July 2011

अज्ञेय-श्रेष्ठ साहित्य पुरोधा : अंतर्संबंधों का विखराव

साहित्य प्रेमी इस बात को जानते समझते हैं कि देश विदेश के अधिकांश साहित्यकार के दो जीवन होते हैं- एक नितांत वैयक्तित तथा दूसरा घर और समाज से जुड़ा हुआ। दुनिया में ऐसे दोहरा जीवन जीने वाले लेखकों की व्यक्तिगत जिन्दगी कितनी दुखद, आत्मदाही और कष्टकर रही है। महान रूसी उपन्यासकार टॉलस्टाय, चेखब, दास्तायवस्की, अंग्रेजी साहित्य के इजरा पाउंड, एलेंन जिन्सबर्ग, हेमिंगवे तथा फ्रांस के श्रेष्ट अस्तित्ववादी साहित्यकार ज्यां पाल सार्त्र तथा हिन्दी में महापंडित राहुल सांकृत्यायन, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, रमेश बक्षी, अज्ञेय आदि ने दोहरा जीवन जिया है।
अज्ञेय का पहला विवाह 7वें दशक में श्रीमती कपिला वात्स्यायन से हुआ। तब अज्ञेय कोलकाता से इलाहाबाद आ गए। लेकिन महाकवि को इलाहाबाद रास नहीं आया। सो दिल्ली चले गए। 7वां और 8वां दशक अज्ञेय का जीवन में महत्वपूर्ण रहा है। इसी समय रूपाम्बरा कविता संकलन का प्रकाशन हुआ (1960), आत्मने पद (1960), तीसरा सप्तक (1966), हिन्दी साहित्य - एक आधुनिक परिदृश्य (1967), सब रंग और कुछ राग (1969), आल-बाल (1971), लिखि कागद कोरे (1972), भवन्ति (1972), अंतरा (1971), अद्यतन (1977), जोग लिखी (1977), संवत्सर (1978), श्रोत और सेतू (1978), शाश्वती (1979), चौथा सप्तक (1979), कितनी नावों में कितनी बार (1967), क्योंकि मैं उसे जानता हूं (1970), सागर मुद्रा (1970), पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं (1974), क्योंकि मैं उसे जानता हूं (1970), महावृक्ष के नीचे (1977), नदी की बांक पर छाया (1981), सदा नीरा (दो खंडों में-1984), ऐसा कोई घर आपने देखा है (1986)।

ये 20 वर्ष अज्ञेय के साहित्य सृजन काल का महत्वपूर्ण समय रहा है। परन्तु उनके भीतर जैसे कुछ टूटता रहा, बिखरता रहा।  कपिला जी से संबंध विच्छेद और ईला डालमियां से नई सम्प्रीति  का दुख-सुख भले ही उन्होंने भोगा हो, परन्तु वे अशांत रहे और अपने साहित्य पर जमकर काम किय। दोनों स्थितियों में दो-तीन वर्ष बाद ही घर टूटने लगा था। अज्ञेय के काव्य संकलन-ऐसा भी घर आपने देखा है की बहुत सारी कविताएं उनके टूटते रिश्तों को दर्शाती है। कवि का मन कितना आहत रहा, यह उनके मौन में पढ़ा जा सकता था।

मैं जब एक कार्यक्रम में भाग लेने दिल्ली गया था तो 13 सितम्बर 1986 को उनसे मिलने गया था।  अज्ञेय जी को पहले फोन किया, गुरुवर मैं आपसे मिलना चाहूंगा। उन्होंने तुरन्त कहा- आ जाइए। मैंने उनसे अगले दिन प्रातःकाल 8 बजे का समय ले लिया। मेरे साथ भाई जगदीश चतुर्वेदी की पुत्री, मुझे दूसरा पिता कहने वाली मुंहबोली बेटी अनुभूति चतुर्वेदी भी गई थी। जब हम दोनों कैंवेंटर्स-अज्ञेय जी के निवास पर गए तो देखा-वे बगवानी कर रहे है। हम दोनों लान में कुछ देर तक खड़े रहे फिर उनके पास तक गए। उन्होंने हमें देखकर फूलों के रखरखाव से ध्यान हटाया और उठकर खड़े हो गए। हम दोनों ने उन्हें प्रमाण किया और मैंने परिचय कराया। ये अनूभूति चतुर्वेदी है, जगदीश चतुर्वेदी जी की बेटी, बहुत सुन्दर डांसर और कवि हैं। अनुभूति यूं भी कोई ऐक्ट्रेस जैसी लगती हैं। इलाजी ने बरामदे से उसे घूरकर देखा और अंदर चली गईं। अज्ञेय ने हमें भीतर बैठक खाने में ले जाकर बैठाया और नास्ते के लिए पूछा-वे अंदर गए, संभवतः नौकर को कुछ हिदायत दी। स्वंय बड़ी ट्रे में कई तरह की मिठाइय़ां लेकर आएं। इसके बाद नौकर ने टोस्ट, पकौड़े, काफी लाकर तिपाई पर सजा दिया। हमने नास्ता लिया, काफी पी। अज्ञेय जी ने पूछा- कब तक दिल्ली रहना है? मैंने कहा गुरुवर, कल शाम को चला जाउंगा। अपने साथ मैं सागर-प्रिया की पांडुलिपि ले गया था, जिसे वे पढ़ना चाहते थे। मैंने उन्हें पांडुलिपि देते हुए कहा कि आप इसे पढ़कर मुझे अवश्य मार्गदर्शन देंगे। फिर अज्ञेय कुछ देर के लिए पांडुलिपि को उलटते पलटते रहे और अपने मौन में कहीं खो गए। मैंने अनुभूति से कहा अब हमें चलना चाहिए। हम उठ गए। अज्ञेय जी हमें गेट तक पहुंचाने गए, लेकिन हमारे उस घर में लगभग 45 मिनट ठहने के बीच इलाजी एक बार भी नहीं आईँ। जबकि उन्हें अज्ञेय जैसे महान लेखक की पत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त था। क्या वे इस संबंध को निभा नहीं पा रही थीं। इसका यही अर्थ हो सकता है कि दोनों में अंतरटूटन था।  मुझे लगा अज्ञेय जी अंदर से व्यथित हैं। किन्तु उनका मौन उनके भीतर के अंतरद्वंद को ढके रहता था। उस सुबह अज्ञेय के साथ मुलाकार मुझे कभी भूलती नहीं। जब अज्ञेयजी को हम दोनों को विदा करने मुख्य द्वार तक आए और हमने पांव छूकर प्रणाम किया तो देखा उनकी आंखों में आंसू तैर रहे थे।

The Girl Laughs

The girl laughs bending to her left and right
Because the cat of her childhood
With velvety hair on its skin
And blue bright eyes
Plays all the time
In decorated garment's end.

The girl weeps incessantly
Because she has a heart
In her bosom and it palpitates speedily
As it is scrached with some one's
Cruel deception of loving her.
Now she moves on using crutches of helplessness
With numb eye lids day and night
She neither laughs nor weeps on her plight

In the autumnal emptiness
She has tumed into yellow dry leaves
of a stemless fading flower,
Soon to be mixed in the soil
After having lost its essence forever
And her own identity whatsoever.

लड़की हंसती है

लड़की हंसती है
हंसी से दोहरी होती है
क्योंकि उसके आंचल में
मखमली रोओं वाली
नीली आंखों की चमक लिए
बालपन की बिल्ली खेल रही है

लड़की रोती है।
जार-बेजार
क्योंकि उसके सीने में
धड़कता हुआ दिल है
जिसे किसी बेरहम ने
प्यार-प्रवंचना की क्रूरता से खरोंचा है
अब वह लड़की
असमर्थता की बैसाखियों पर चलती
दिन रात पलकें  भिंगोती है
न हंसती है
न रोती है
खालीपन-पतझर में
वृंतहीन फूल की पीली पंखुड़ी बन
समय की धूल में मिलने के लिए
निजता खोती।

Monday 11 July 2011

अज्ञेय के साथ काव्य-संवाद

24 दिसम्बर 1982 की बात है। अज्ञेय एक कार्यक्रम में कलकत्ता आए तो फोन किया- सबेरे मिल सकते हैं क्या? मैंने कहा-प्रणाम गुरुवर, जरूर मिलूंगा। कितना बजे ठीक रहेगा? अज्ञेय ने कहा- 8 बजे आ जाएं। मैं नियत समय पर रामकृष्ण मिशन इंटरनेशनल हॉस्टल, गोलपार्क पहुंचा। अज्ञेयजी जिस सूट में ठहरे थे मैने घंटी बजाई, दरवाजा अज्ञेय जी ने खोला। उनके साथ ईला डालमियां भी थीं। शायद उन्हें कुछ अटपटा सा लगा। क्योंकि वे भीतर के कमरे में चली गईं। अज्ञेय को उनके व्यवहार से कुछ अजीब सा लगा होगा। ऐसा मैंने अनुभव किया। अज्ञेय ने कहा कि आपने नास्ता लिया होगा। न लिया हो तो मेरे साथ कर लें। मैने कहा जी मैने नास्ता लिया है। काफी पी लूंगा। नास्ता- काफी के बाद फिर चर्चा चलने लगी। अज्ञेय ने पूछा आपको चौथा सप्तक कैसा लगा? मैने कहा कि काफी अच्छा लगा, परन्तु उसकी उतनी आलोचना नहीं हो सकी, जितना अन्य सप्तकों को हुई है। इस पर उन्होंने कहा- हिन्दी में गुटबाजी के कारण सर्जनात्मक साहित्य उभरकर सामने नहीं आ पा रहा है। और जो अच्छा लिख रहे हैं वे दलबंदी के कारण बेहद आहत और उदासीन हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि आप तीसरा सप्तक पढ़ें और विचार करें कि उसकी तुलना में चौथा सप्तक  किस श्रेणी में आता है। मैंने अज्ञेय जी से पूछा- आपने सप्तकों की योजना जब बनाई होगी, तब आपके दिमाग में यही रहा होगा कि हिन्दी के नए कवियों को प्रकाशित कर उन्हें प्रोत्साहित किया जाए। किन्तु सप्तकों में शामिल कुछ कवियों ने यह भी कह दिया है कि हमने तो अज्ञेय को धन्य किया।  मेरी कविताएं ही इसका प्रमाण हैं। अज्ञेय जी मुस्कराए कुछ बोले नहीं। कुछ देर मौन के बाद उन्होंने कहा कि काव्य लेखन एक साधना है और जब साधना से जुड़ेंगे तभी काव्य से भी जुड़ेंगे।  ईलाजी अंदर से आईं और अज्ञेय जी से कहा- क्या आपको देरी नहीं हो रही है। जाना है, मुझे लगा कि अज्ञेय से विदा लेकर चलना चाहिए। घर आकर मैंने तीसरा सप्तक को पढ़ा जिसमें प्रयाग नारायण त्रिपाठी, कीर्ति चौधरी, मदन वात्सयायन, केदारनाथ सिंह, कुवंर नारायण तथा विजय देव नारायण शाही शामिल किए गए हैं।
अज्ञेय ने तीसरा सप्तक की भूमिका में लिखा है- काव्य के अस्वादन के लिए कवियों की सामाजिक प्रवृति, राजनैतिक सरोकार, भाषा, छन्द के विषय से ऊपर उठकर कवि कर्म के प्रति गम्भीर उत्तरदायित्व बोध अपने उद्देश्यों में निष्टा और उस तक पहुंचने के साधनों के सदुपयोग की लगन होनी चाहिए। यह स्वीकार किया जाए कि नये कवियों में ऐसों की संख्या कम नहीं है। जिन्होंने विषय वस्तु समझने की भूल की है और इस प्रकार स्वयं भी पथभ्रष्ट हुए हैं एवं पाठकों के नई कविता के बारे में अनेक भ्रांतियों के कारण बने हैं। नकलची कवियों से कहीं अधिक संख्या और अनुपात नकली आलोचकों का है - धातु उतनी छोटी नहीं है, जितनी की कसौटियां ही छोटी हैं। नकलची हर प्रवृत्ति के रहें हैं और जिनका भंडाफोड़ अपने समय में नहीं हुआ, उन्हें पहचानने और फिर समय की दूरी अपेक्षित हुई है।

न तो 'द्विवेदी'  युग में नकलचियों की कमी रही, न छायावाद युग में और नहीं (यदि इस संदर्भ में उनका उल्लेख भी उचित हो, जिनकी उपलब्धि प्रयोगवादी संप्रदाय से विशेष अधिक नहीं रही, जान पड़ती है।) प्रगतिवाद ने कम नकलची पैदा नहीं किए।  अज्ञेय का आग्रह था कि हमें किसी भी वर्ग में उनका समर्थन या पक्ष पोषण नहीं करना है, परन्तु यह मांग भी करनी है कि उनके अस्तित्व के कारण मूल्यवान की उपेक्षा न हो, असली को नकली से न मापा जाए।  अज्ञेय का यह भी मानना था कि साधना, अभ्यास और मार्जन का ही दूसरा नाम काव्य है। बड़ा कवि वाक्यसिद्ध होता है और भी बड़ा कवि रस सिद्ध होता है। आज वाक्य शील्पी कहलाना अधिक गौरव की बात समझा जाता है क्योंकि शिल्प आज विवाद का विषय है। यह चर्चा उत्तर छायावाद काल से ही अधिक बढ़ी, जबकि प्रगति की सम्प्रदाय ने शिल्प, रूप, तंत्र आदि को गौण कहकर एक ओर ठेल दिया और शिल्पी एक प्रकार की गाली समझा जाने लगा। इसी वर्ग ने नई काव्य प्रवृत्ति को यह कहकर उड़ा देना चाहा कि वह केवल शिल्प का रूप विधान का रूप विधान का आंदोलन है, मेरा फार्मेलिज्म है। अज्ञेय का यह भी मानना रहा कि प्रयोगवादी और प्रगतिवादी कवियों में परस्पर कशमकस के कारण नई कविता कमजोर हुई है। नई कविता की  प्रयोगशीलता का पहला आयाम भाषा से संबंध रखता है। निःसंदेह जिसे अब नई कविता की संज्ञा दी जाती है, ये भाषा सम्बन्ध प्रयोगशीलता को वाद की सीमा तक नहीं ले गई, बल्कि ऐसा करने को अनुचित भी मांनती रही है। यह मार्ग प्रपद्यवादी ने अपनाया, जिसने घोषणा की कि हर चीज का एक मात्र सही नाम होता है और वो (प्रद्यवादी व्यक्ति) प्रयुक्त प्रत्येक शब्द और छंद का स्वयं निर्माता है। शब्द व्यक्तिगत प्रयोग भी है और प्रेषण का माध्यम भी बना रहता है, दुरुह भी होता है और बोधगम्य भी।

मैंने अज्ञेय जी के तीसरा सप्तक पर उन्हें लम्बी टिप्पणी भेजी थी, जिसके उत्तर में उन्होंने तीन वाक्य लिखें। जिनमें मुख्य था- आपकी सोच सही है। काव्य के बारे में नए सिरे से चिन्तन, लेखन की जरूरत है।

A Dialogue Between Tree and The Air

The tree asked the air-come and tighten me
In your embrace.
The air replied-You're tree
It would be worthwhile if some
Creeper grasps you in embrace.
The tree kept quiet, then murmured
I'm tree, yes. My roots often embrace
roots of another trees
to mitigate the boredom
of the solitary emptiness
And to pass time
down below underground
to share the pains and happiness of each other
But when any other tree which is
very close to me tries to touch its existence
The storm destroys either its or mine base
and one of us lie down falt on
The earth's surface.
We live the earthly smells
distribute and decorate
our birth-place with greenery,
Put in order the vital sensitivity devine
Entrusted to us for a long time
Whateever we have-flowers, fruits,
the deep shade and even the dead wood
We dedicate them to all and
Receive nothing in return
The past does not recall
and nothing I gain
From anyone at all.

पेड़-हवा का संलाप

पेड़ ने हवा से कहा -
तुम आओ और मुझे
अपने आलिंगन में बांध लो
हवा बोली-
तुम पेड़ हो
पेड़ को द्रुमलता ही आलिंगन में बांधे तो
जीवन की सार्थकता है
पेड़ चुप रह गया
फिर बोला-
मैं पेड़ हूं
मेरी जड़ें भले ही
दूसरे पेड़ों की जड़ों से गले मिलें
अपनी अन्तरंगता का भूगर्भित खाली समय काटें
मेरे जिस्म की टहनियां
एक दूसरे से अपना सुख-दुःख बांटे
परन्तु कोई दूसरा पेड़
जो मेरा बहुत करीबी है
हाथ बढ़ाकर
मेरे हाथों को जब भी छूता है
एक तुफान आकर
या तो उसे
अथवा मुझे
धरासायी कर जाता है
हमने जिया
धरती की गंध
हरियाली बांटी
सजाया संवारा
प्राण संवेदना की
चिर संचित थाती
हमने जो कुछ जिया
उसे भी
और सारे फूल-फल सबको दिया
सघन छाया दी
लकड़ियां तक अर्पित की
किन्तु हमने किसी से कुछ भी तो नहीं लिया।

Saturday 9 July 2011

अज्ञेय के साथ संवाद

हिन्दी की नई कविता तथा प्रयोगवाद के प्रवर्तक अज्ञेय द्वारा संपादित चौथा सप्तक का संपादन वर्ष 1979 में सरस्वती विहार नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ था। जिसमें औधेश कुमार, राज कुमार कुंभज, स्वदेश भारती, नंद किशोर आचार्य, सुमन राज, श्री राम बर्मा, राजेन्द्र किशोर कुल 7 कवियों को सम्मिलत किया गया था। अज्ञेय जी ने इस काव्य संकलन की भूमिका में लिखा था कि -आज कविता पर एक दावे करने वाला मैं बुरी तरह छा गया है। कविता में मैं निश्चिंत नहीं है। कविता प्रतिश्रुत और प्रतिबद्ध भी हो सकती है। लेकिन कहां तक इन सबका काव्य में निर्वाह हो सकता है और कहां ये काव्य के शस्त्र बन जाते हैं यह समझना आवश्यक है।

चौथा सप्तक में मैंने अपने वक्तव्य में सर्जनात्मक कविता के बारे में कुछ प्रश्न उठाए थे - क्या हमारी संवेदना एक खास नजरिया में ही बंधी रहती है, जो शब्दाडम्बरी, सपाट बयानी कविता को क्रांति या नवचेतना की खातिर लिखते हैं वे क्रांतिद्रष्टा मनीषियों का अनादर करते हैं। और क्रांति का मजाक उड़ाते हैं। वे स्वनिर्मित प्रगतिशीलता की मिथ में जीते हैं। यही उनकी स्वकेन्द्रित उपलब्धि है। कविता न लिख पाने की असमर्थता, निराशा उनके दूसरे संघर्षों के साथ मिलकर उन्हें दिमागी दिवालिया बना देती है। बाढ़ में घिरे मकान की तरह मौलिकता ढह जाती है। मैंने हमेशा माना है कि कविता की आत्मा के बिना कविता जी नहीं सकती। चौथा सप्तक में मेरी 19 कविताएं संग्रहीत हैं। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स तथा अन्य विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में जो आलोचनात्मक लेख चौथा सप्तक के संदर्भ में लिखे गए वे निष्पक्ष, वस्तुनिष्ट नहीं थे। क्योंकि अज्ञेय का विरोध करना उनका खास नजरिया रहा है। फिर भी प्रखर चिन्तक, आलोचक डॉ. चन्द्रकांत वाडिवदेकर, डॉ. विनय, डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, डॉ. विवेकी राय आदि ने संकलन को आधुनिक हिन्दी कविता का ऐतिहासिक दस्तावेज माना और कविताओं पर आलोचकीय दृष्टिपात किया। जितने भी आलोचना आलेख, टिप्पणियां, समीक्षाएं प्रकाशित हुईं, उन सब में मेरी कविताओं की कुछ ज्यादा ही चर्चा हुई।

वर्ष 1981,  4 सितम्बर को मैं अज्ञेय से प्रातः 8 बजे उनके नये निवास कैवेन्टर्स, नई दिल्ली में मिला था। इसके लिए पहले से ही समय नियत था। मैं जब पहुंचा तो देखा अज्ञेय जी बगीचे में रंग बिरंगे फूल चुनकर हाथ में ली गई छबिया में एकत्र कर रहे थे। मुझे देखते हुए पास आए, मैंने प्रणाम किया तो बोले कलकत्ता से कब आए? मैंने उत्तर दिया कल सबेरे राजधानी से आया। फिर उनका दूसरा प्रश्न था - कहां ठहरेहैं? होटल यात्री निवास में- मैने बताया। अज्ञेय जी बोले आईए चलते हैं। क्या लेंगे? मैंने कहा चाय लूंगा। उन्होंने बैठक खाने में मुझे बैठने के लिए कहा और नौकर से चाय तथा कुछ नमकीन खाने के लिए मंगवाया। फिर कुछ सोच कर वे उठ गए और कुछ ही देर में बड़ी प्लेट में कई तरह की मिठाइयां लिए आए। टेबल पर रखते हुए बोले- स्वदेश जी कलकत्ता की तरह स्वादिष्ट मिठाइयां दिल्ली में नहीं मिलती। मुझे भीतर से बड़ी ग्लानी हुई कि कलकत्ता से चलते समय गुरुवर के लिए मिठाई लाना भूल गया। उन्होंने कई बार आग्रह कर मिठाइयां खिलाई। फिर पूछा कि चौथा सप्तक कैसा लगा। मैंने कहा कि आपकी संपादकीय काफी विवेचनीय है और कवियों के लिए मार्ग दर्शक भी। किन्तु संकलन की आलोचना ठीक ढंग से नहीं हुई। उन्होंने कुछ देर मौन के बाद कहा- हिन्दी में सतही आलोचना के कारण सर्जनात्मक साहित्य उभरकर आगे नहीं आ पा रहा है।  उस दिन मैं अज्ञेय के साथ लगभग 1 घंटे तक रहा और साहित्य के विभिन्न आयामों पर चर्चा होती रही। उनका मौन टूट चुका था और साहित्य की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही थी। उस त्रिवेणी में स्नान कर मैं तृप्ति भाव से होटल लौटा तो लगा कि मेरे भीतर नई प्राण चेतना भर गई है।

हिन्दी संस्मरण, हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ कवि अज्ञेय के साथ पहली भेंट

मेरे जीवन में अब तक जो कुछ महत्वपूर्ण घटित हुआ है, उसमें अज्ञेय का स्नेहीय तथा योगदान सर्वश्रेष्ठ है। 1974 में अज्ञेय द्वारा सम्मपादित्य नया प्रतीक में मेरी पांच कविताएं प्रकाशित हुई थी। उसी समय पश्यन्ती में छह कविताएं छपी थी। अचानक अज्ञेय का पत्र मिला कि वे मुझे चौथा सप्तक में सम्मिलित करना चाहते हैं। उन्होंने उदारतावश उन कवियों के नाम भी पत्र में लिख दिए थे, जिन्हें वे चौथा सप्तक में शरीक करेंगे। ये 1975 की बात है। रानीगंज में साहित्य संगोष्ठी थी, उसमें उन्हें मुख्य अथिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था। वे दिल्ली से कलकत्ता आए श्री विश्वम्भर नाथ सुरेका के घर पर ठहरे। उन्होंने प्रो. कल्याण मल लोढ़ा को जो उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग अध्यक्ष थे, फोन किया कि स्वदेश भारती से बात करा दें। मुझे लोढ़ा जी का फोन आया तो मैंने अज्ञेय जी को फोन किया उन्होंने बड़े स्नेह से कहा कि फोन पर तो नहीं यदि आप कल सबेरे यहां आ जाएं और मेरे साथ ही नास्ता करें अपनी कुछ कविताएं भी लेते आएं तो आपके साथ चर्चा करना चाहूंगा। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। नियत समय सबेरे 7 बजे कई रंगों वाला गुलाब का गुछा लेकर मैं उनसे मिला और उन्हें गुलाब भेंट किए तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उनके साथ नास्ता लिया और लगभग डेढ़ घंटे तक साहित्य चर्चा की। उसी समय प्रो. विष्णुकांत शास्त्री आ गए। मुझे वहां देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। मैंने अज्ञेय जी को अपनी कविताओं का पैकेट दिया और विदा लेकर लौटा तो मन नई अनुभूति से भर गया था। आनंद तरंग में दिन भर ओलोड़ित होता रहा। जिन अज्ञेय से लोग उनके मौन के कारण मिलने से कतराते हैं और अज्ञेय किसी को घास नहीं डालते कोई कुछ भी वे मौन रहते। वही अज्ञेय मुझे चौथा सप्तक में विशिष्ट 7 कवियों में शरीक कर रहे हैं।  उस पहली मुलाकात में अज्ञेय ने मेरे बारे में काफी कुछ जानने के लिए मेरे परिवार, नौकरी, लखन के बारे में कई प्रश्न पुछे। फिर बोलें नया प्रतीक में आपकी कविताएं छपी हैं। कई पाठक मित्रों ने उनकी प्रशंशा की है। यूं तो मैं आपकी कविता का पाठक रहा हूं।

हिन्दी-संस्मरण- बाबा नागार्जुन के साथ

मुझे सप्तक में सम्मिलित करने वाले, मेरी कविताओं के पाठक अज्ञेय,  बाबा नागार्जुन तथा डॉ. विद्या निवास मिश्र को मैं अपना साहित्य गुरु मानता हूं। जिस तरह अज्ञेय मुझे स्नेह देते रहे, उसी तरह बाबा नागार्जुन भी। वे कभी-कभी अचानक मेरे घर आकर एक दो दिन जम जाते और बिना किसी औपचारिकता के कहते, तुम्हारी नई कविताएं सुनने की इच्छा थी, सो चला आया और तुमसे मिलना भी था। क्या लिखा है नया, सुनाओ। मैं विनय पूर्वक बोलता - बाबा पहले आप नहा-धोकर भोजन कर लें तब कविताएं सुने। बाबा बोलते- वो सब बाद में होगा। यूं तो रोज-रोज नहाता नहीं, नास्ता लेकर चला हूं। अभी खाने का भी मन नहीं, बस काफी या चाय पिला दो।  कुछ देर तक तुम्हारी कविताएं सुनूंगा।

घर पर यह उनका पहला पदार्पण था। मेरे प्रतापादित्य रोड, कोलकाता पर स्थित मकान को बाबा ने कैसे खोज लिया यह आश्चर्य है। हिन्दी कविता के वरिष्ठतम् कवि का इस प्रकार बिना किसी पूर्व सूचना के आना मेरे लिए विष्मय भरा अनुभव है। यह घटना 1980 के मार्च महीने की है। वे हमारे घर दो दिन रहे, जमकर कविता पाठ हुआ।  मैने अपनी कविताएं सुनाई,  उन्होंने अपनी। और साहित्य चर्चा में बहुत कुछ जानने समझने को मिला। इसके पहले बाबा 1978 में भारतीय भाषा परिषद के कैमक स्ट्रीट स्थित पुराने भवन में रूपाम्बरा द्वारा आयोजित तीन दिवसीय युवा लेखक शिविर में पधारे था। उसमें भी वे अचानक आए और मुझसे कहा कि- स्वदेश, तुम्हारी युवा लेखक शिविर में एक बूढा भी शामिल होने आया है। उन्होंने हंसते हुए मेरा हाथ पकड़कर जोर से झझकोरा। मैने कहा बाबा यह हम सब का सौभाग्य है कि आपका आशीर्वाद मिलेगा।

युवा लेखक शिविर में डॉ. सुरेन्द्र चौधरी, रमेश बक्षी, सुदर्शन चोपडा, डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र, डॉ. बलदेव बंशी, डॉ. विनय, डॉ. नरेन्द्र मोहन, डॉ. गंगा प्रसाद विमल, परमानंद श्रीवास्तव, डॉ. चन्द्रकान्त वांदिवडेकर, डॉ. शम्भु नाथ, डॉ. नागेन्द्र चौरसिया, जगदीश चतुर्वेदी, सुरेन्द्र तिवारी, आदि लेखकों ने भाग लिया था। बाबा ने समापन संगोष्ठी की अध्यक्षता की। उन्होंने खुले दिल से हिन्दी की आधुनिक स्थिति की चर्चा की। उन्होंने कहा कि आलोचना की स्थिति पर मुझे दुख होता है। आज तो लेखकों के भिन्न-भिन्न गोत्र बन गए हैं। ऐसे गोत्र धारी लेखकों, आलोचकों से हिन्दी को खतरा है। संगोष्ठी में उन्होंने चार प्रस्ताव भी दिए - 1) गोत्रधारी लेखकों आलोचकों की राष्ट्रीय सूची छपानी चाहिए। 2) उनके लेखों का मूल्यांकन उसी तरह करना चाहिए। 3) गोत्र-आचार्य -संहिता तैयार की जानी चाहिए।  4) गोत्र बदलने वाले घुसपैठियों को चिन्तन, हनन के अपराध के लिए मौलिक-साहित्य सीमा से निकालकर बाहर फेंक देना चाहिए। बाबा नागार्जुन लेखकों के गुटबंदी से बेहद क्षुब्ध थे। उनका वक्तव्य मेरे द्वारा संपादित्य रूपाम्बरा द्वारा 1981 में प्रकाशित पुस्तक रचना और आलोचना,  खंड-1 में शामिल है।
गोष्टी समापन के बाद बाबा एक बेंच पर लेट गए थे। सभी लेखकों के चले जाने के बाद मुझे बुलाकर बोले- स्वदेश मुझे दिल्ली जाना है। कुछ पैसे हों तो दो। मैंने बाबा को 500 रुपये दिए। उन्होंने 300 रख लिए बाकी दो सौ मुझे वापिस देते हुए बोले इसकी जरूरत नहीं। तुम इतनी बड़ी संगोष्ठी बुलाए हो मैं जानता हूं तुम्हारा खर्च बहुत लम्बा है, रखो।
एक शाम डॉ. बालशौरि रेड्डी जब भारतीय भाषा परिषद के निदेशक थे, अपने घर पर मुझे तथा पत्नी उत्तरा को खाने पर बिलाया था। पहुंचने पर देखा, बाबा वहां पहले से मौजूद थे। रेड्डी जी ने बाबा के लिए गोश्त बनवाया था। और हमारे लिए शाकाहारी। बाबा गोश्त को इस तरह खा रहे थे जैसे कोई जवान आदमी खाए। बाबा नागार्जुन विभिन्न व्यंजन खाने के बेहद शौकीन थे। हमेशा भ्रमणमान रहते। पांव कहीं एक जगह नहीं टिकते। मेरी कविताओं के साथ मुझसे अधिक आत्मीय नाता रखते आए थे।

Friday 8 July 2011

ये पंछी कहां जाते हैं

ये पंछी कहां जाते हैं
इतना सबेरे
किस पहाड़ की ओर
किस क्षितिज की ओर
क्या मिलेगा वहां?
पर्वतीय खामोशी में डूबी बर्फ की ऊंचाई।
सौन्दर्योष्मा-रस से पागल प्रभात के बादल!
एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी की तिकोनी ऊंचाई पर
बांधे अपना सर्वांग
प्रेमालिंगन-पाश में
सुनहरी मुस्कान में सराबोर
पर्वतों के आर पार
ये पंछी कहां जाते हैं
इतना सबेरे पहाड़ की ओर
पंख पर लादे रजतरश्मियां
कलरव गुंजित करते दिखाएं
तोड़ते घाटी वन प्रांतर की जड़ता
सर्जित करते क्षिति में
पंक्तिबद्ध छवियां
नापते क्षितिज के ओर-छोर
ये पंछी कहां जाते हैं
इतना सबेरे पहाड़ की ओर
हम भी तो इसी तरह उड़कर आए थे
अपना घर गांव कुनबा छोड़
अपनी किताबें, अपनी मेज,
अपना शयन कक्ष, बैठक खाना
अपने आस-पास का बंधन तोड़
तरह तरह से पाई-पाई जोड़
आ गए पहाड़ की गोद में
जंगल, वन-प्रान्तर में
नदी-तट पर, समुद्र के किनारे
शायद खोजने आनन्द-किरण-नव-भोर
आ गए हैं और चलते जाएंगे
अनजाने समय-पर्वत-क्षितिज की ओर।

Thursday 7 July 2011

The Man's Destiny

Man came out of water
On the land
And ultimately merged into
the earth itself.
Yet he continued to create space for himself
amidst changes calamitous
Man, nevertheless neither
could find his base in water
or on land
He came with closed fists
And left for heavenly abode
With open palms
Whenever man came out of
waters, could not relate to land
and make it his own at all
on the soul's map
from the birth till the end
only the earth aloowed him to rest
in its wide loving lap.

आदमी की नियति

आदमी पानी से निकलकर
मिट्टी पर आया

और अंततः मिट्टी में मिल गया
फिर भी वह
अपनी जगह बनाता रहा

परिवर्तनों के बीच
मनुष्य न पानी को
और ना ही मिट्टी को
अपना आधार बना पाया
अपने साथ खुली हुई मुट्ठियां लेकर चला गया
जब भी आदमी पानी से निकल कर मिट्टी पर आया
मिट्टी को कहां कितना अपनाया
आदि से अंत तक
मिट्टी ने ही उसे
अपनी गोद में सुलाया

Wednesday 6 July 2011

भारत के मन्दिरों में कुबेर का खजाना


भारत शताब्दियों से सोने की चिड़िया कहा जाता रहा है। सोने की चिड़िया का आकर्षण, अरब लुटेरों, मुगलों, अंग्रेजों, फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों आदि को भारत की धरती पर लाया और उन्होंने जी भर कर लूटा खसोटा, बेशुमार सोना, चांदी, हीरा, पन्ना, पुखराज तथा बहुमूल्य आभूषण जवाहरात अपने देशों को भेजा। जीभर कर रंग रेलियां मनाई। हमें गुलाम बनाया। सोमनाथ, मथुरा, काशी तथा शिव के 12 धामों, मा काली, वैष्णवी, चामुंडा, कर्नाटक के बेलूर में स्थित शिव एवं विष्णु के मंदिरों से बेसुमार दौलत लूटा। दक्षिण के सैकड़ों मन्दिरों से बेशुमार दौलत लूटा मन्दिरों को क्षति ग्रस्त किया। इसके लिए  ईश्वर, समय और इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।
आज भी आजादी के बाद बहुत सारे मन्दिरों, मठ, देवालयों में इतना सोना, चांदी, जवाहरात, रुपया तहखानों में भरा है जो लगभग 5 लाख हजार करोड़ में आंकी जा सकती है। उससे 120 करोड़ भारतीयों की गरीबी दूर हो सकती है और देश खुशहाल हो सकता है। सरकार अपनी पंच वर्षीय योजनाएं विदेशी कर्ज के बिना चला सकती हैं।
हाल ही में साईं बाबा ट्रस्ट, तिरुपतिनाथ, विष्णुजी मन्दिर केरल तथा अन्य मन्दिरों, ट्रस्टों से निकली संपत्ति लगभग 2-3 लाख हजार करोड़ में कूती जा रही है। और भी इसके अतिरिक्त काफी सारा धन गुप्त रूप से तहखानों में बन्द पड़ा है। तथा विदेशी बैंकों में काला धन जमा है। उससे 120 करोड़ भारतीयों की गरीबी दूर हो सकती है। वे धनवान बन सकते हैं। सरकार अपनी पंचवर्षीय योजनाएं विदेशी कर्ज के बिना अच्छे से चला सकती है। हाल ही में साईं बाबा ट्रस्ट, बाबाजी तिरुपति मंदिर, विष्णुजी मंदिर, केरल में पद्मनाभ मंदिर में लाखों हजार करोड़ रुपये के सोना चांदी जवाहरात, हीरा पन्ना आदि भरा पड़ा है। इन मंदिरों, ट्रस्टों से निकली संपत्ति लगभग दो-तीन लाख हजार करोड़ में आंकी जा रही है।

यह सब देखकर प्रत्येक भारतीय को गर्व के साथ कहना होगा- भारत आज भी सोने की चिड़िया है। इसके लिए जरूरी है कि राज्य सरकारें, केन्द्रीय सरकार तथा मठों के अध्यक्ष, पुजारी लोक कल्याण के प्रति अधिक जागरूक हों और सच्चे मन से मानव सेवा को अपना धर्म समझें।

The Pleasure of Poetry!

We continued on paper
to draw engraved mark
paint and picture and / or write
wordy figures and images, forms
of rhythmic songs and verses
filled it up with vital colours of our memories
And claimed : This is poetry...

We went on expressing our own
cravings and broken decency and decorum
spent up dreams, tales of false pride
and claimed; this is reality of life
we got involved in that so much
and also lost ourselves; and yet
carried on merely with pleasure
on paper, we declared : This is the
form and style of peotic creativity.
But the question remains :
Is this indeed the poetry?

काव्य-सुख

हम अपनी स्मृतियों को
प्राण-संवेदना के विविध रंगों से
कागज पर छन्द गान चित्र उकेरते रहे
और कहते रहे यही कविता है...

हम अपनी पिपासा और खंडित मर्यादा
चुके हुए सपने
मरी हुई अहमन्यता के किस्से
अभिव्यक्त करते रहे
और कहते रहे आज के जीवन का
यही सही यथार्थ है ....

हम अपने को जितना ही खोते रहे
कागज का सुख ढोते रहे
जीवन-अभिव्यक्ति की यह भी एक विडम्बना है
दायरे में बंद अनतप्त अभिव्यक्ति से सर्जित
क्या वह कविता है?

Monday 4 July 2011

The Sun's Wounded Silence

Amidst the dusty tumultous noisy journey
The sun sets, as it
moves from east to west.
Fired and wounded and craving for
A cover of the evening's shawl over head
The sun hastily dips and dives in the horizon of the western ocean
Hastily from the closing in darkness.
To save self
Happily active and enthusiastic for the day
Offended by the loving deceit of light and shade
Carelessly playing hide-and-seek.
The Sun is ever conscious of its ordained
duty to endow nature with vital warmth
And to provide people with morning's
sweet tones and for various activities
The sun fills in his sack on the back

unique dreams, hopes, beliefs, beauty and strong
longings for authentic pleasure and also
deef anguish and despondency.
In return He gives Nature and the man
messages of new life and loving
The sun bound with movements galore
reflects the perennial relation of changing existence
everyday, encircled by dark hollow spaces
The sun is hoodwinked by
hints of the moving time and places!

सूर्य का आहत मौन

गोधूली, कोलाहल, शोर के बीच
चला जाता
पूरब से पश्चिम की ओर
आहत थका हुआ सूर्य
संध्या के मेहावरी आंचल में सिर छुपाये
तीव्रता से बढ़ते अंधकार से अपने को बचाने
दिन भर आलोकित, आनंदित, प्रफुल्लित
पश्चिम-क्षितिज-सागर में डूबता

अंधेरे उजाले की प्रेम-प्रवंचना से आहत
अपना कर्तव्य मान
प्रकृति को जीवन-उष्मा देता
जन-जन को प्रभाती-कलरव
कर्ममय-जीवन के देता विविध आयाम
स्वप्न, आशा, विश्वास, सौन्दर्य, अभिलाभा
पीड़ा, हताशा और स्वप्न-सुख अभिराम
सूर्य अपनी झोली में भर लेता
प्रकृति और मनुष्य की दिवा-स्वप्न-व्यथा
नव जीवन-संदेश देता-
बंधा रहता गति के साथ अविराम
अस्त्व-परिवर्तन का शाश्वत नाता
फिर भी सूर्य दिन-प्रति-दिन
अंधकार-चक्रव्यूह में
समय-गति के संकेतों पर
छला जाता।

असमर्थता

एक टूटन
एक घुटन
एक आत्मपीड़न हो तो कहूं...
एक दर्द
एक चोट
एक आघात हो तो सहूं..

गन्तव्य-सागर के बीच
ऊंची लहरों
और उन्मत्त तूफान से बचता
कब तक
आखिर कब तक
अपने अभीष्ट के लिए खंडित प्रवाह में बहूं...

अन्तस् की पीड़ा
कैसे, किस किस से कहूं
या चुप रहूं

Saturday 2 July 2011

सत्ता एवं बुद्धिजीवियों में समन्वय

सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल से प्रशासकों ने राजकाज के कामों में समाज के बुद्धिवादियों के साथ मंत्रणा का काम आगे बढ़ाया। उन्हें सम्मान दिया। बुद्धिवादियों के सुझावों को विशेष स्थान दिया। इसीलिए  उन महान सम्राटों के साम्राज्य अधिक उन्नतिशील, गौरवशाली तथा धन्यधान्य भरा बने। बुद्धिशक्ति एवं जनशक्ति द्वारा शासन पर राज्य प्रमुख की पकड़ अधिक मजबूती के साथ रहती है। सुल्तानों, मुगलों और अंग्रेजो के शासनकाल में भी इस नीति को अपनाया गया और प्रशासन बेहतर से बेहतर होता गया। परन्तु आजादी के बाद हमारे नेताओं ने अपने को बुद्धिवादियों से दूर तथा अलग-थलक कर लिया। उनके सुझावों पर गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया गया। नाही उन्होंने इसकी जरूरत समझी। क्योंकि उनकी सोच के अनुसार सत्ता और प्रशासन की बागडोर नेता सम्भालता है। उसके अतिरिक्त और कोई भला क्यों दखल दे, भले ही बुद्धिजीवी या समाज का आदरणीय पुरुष ही क्यों न हो।
आजादी के बाद प्रशासन ने बुद्धिजीवियों  की परवाह नहीं की। वरिष्ठ नेतृत्व उनसे कटा-बंटा रहा। इससे सत्ता के भ्रष्ट होने तथा लालफीताशाही को मनमानी ढंग से प्रशासन चलाने का अवसर मिला। जिन राजनीतिज्ञों ने बुद्धिवादियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से संपर्क साधा उनका सहयोग लिया। अपनी नीति में समन्वय रखा वे सफल हुए। अभी-अभी पश्चिम बंगाल में शासन परिवर्तन होना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है।
देश की राजसत्ता केवल वोट, पुलिस, न्यायापालिका और नेता के अहम के बल पर नहीं चलती। उसके लिए राष्ट्र के प्रति समर्पण, जनसहयोग, बुद्धिवादियों के विचारों, सुझावों को अमल में लाने की क्षमता जरूरी है। आज के संदर्भ में जनतंत्र के शक्तिशाली, उन्नतिशील, गौरवपूर्ण होने के लिए यह आवश्यक हो गया है कि नेता बुद्धिवादियों के साथ देश को चलाने के लिए नीतियों में समन्वय रखें। इस संदर्भ में सत्ता के उंच्च सिंहासन पर बैठे नेताओं को नये सिरे से सोचना है तथा कारगर उपाय भी करना है। देश के बुद्धिवादियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं स्वैच्छिक संस्थानों के प्रमुखों के साथ आपसी मेल-जोल, विचार-चिन्तन, सुझाव आदि बहुत सारी समस्याओं तथा सवालों के उत्तर हो सकते हैं।

Time-Untime

Why it is so that the time often comes with a
ever fresh, exotic beauty of seasons
with all the changes?
And after distributing alienation to others
and wounding their hearts enough
hunts them relentlessly

with it's cruel deceitful craftiness

why it's so that time never reveals
The truth ever buried in its chest
And while defining falsehood,
It talks nothing about Reality?
Yet, in the life's enactement
While changing perspectives of
the ways of living on the stage of existence
circumscribed by the agony of mouswing
darkness it relates a painful story
Time lifts the curtain of untruth
keeping truth in dark behind the scene
opens the mystic door of falsehood
when time uses the drop-curtains
why is it so that wisdom, i.e.
the Intelligence of age, containing the knowledge
of truth itself carries on its head
The pot of life filled with nectar and poison
it serves both love and misery
compassion and aversion.
While cheating us of our longings
Through out our life it enlightens us
With both the ambrosia and venom.
time changes itself
In ever unfolding new circumstances.
But ultimately leaves us alone heart-broken.

समय-असमय

ऐसा क्यों है कि समय
अपने साथ ऋतुओं के नित नवीन सौंदर्य भरे
परिवर्तन लेकर आता है
और दूसरों को नितान्त अकेलापन बांट कर
अपनी कुटिल प्रवंचना से मर्माहत कर जाता है
ऐसा क्यों है
कि समय अपनी गठरी में बांधे सत्य को
कभी भी नहीं खोलता
और असत्य की परिभाषा करते समय
सत्य के बारे में कुछ भी नहीं बोलता
फिर भी अस्तित्व-रंग-मंच पर
परिदृश्य बदलते हुए जीवन-नाटक में
यातना और दुःखों को कहानी के बीच घिरे
मातमी अंधकार में
समय ही असत्य का पर्दा उठाता
सत् को अंधेरे में या पर्दे के पीछे रखता
असत्य का रहस्य-द्वार खोलता
और करता प्रवंचना के नाटक का पटाक्षेप
ऐसा क्यों है कि उम्र की ऋतम्भरा अपने सिर पर
जीवन-कलश लिए चलती
जिसमें अमृत और विष दोनों भरा होता
वह बांटती है प्यार और दुःख
करुणा और घृणा
जीवन पर्यन्त आकांक्षाओं को छलती
अमृत और विष की पहचान करता हुए
नये-नये परिवेशों में अपने को बदलती
अन्ततः हमें मर्माहत करती।

Friday 1 July 2011

ग्रहण-त्रासदी

300 वर्षों के बाद एक माह में तीन चन्द्र और सूर्य ग्रहण देखनो को मिले। यह आश्चर्यजनक खगोल-घटना है। कितना कुछ झेलेगी धरती और मनुष्यों पर कितना अधिक प्रकृति का प्रकोप होगा, इस ओर सत्ताधारियों का ध्यान शायद न जाए परन्तु सभी देशों के लोगों को एकजुट होकर सावधानी बरतने की आवश्यकता है।

Journey In the Reverse Gears

The youth Spent in mirth and merry-making
That suddenly changes into the old age
The unquenched thirst for love that goes on
singing songs of life and death
with the accompanying heart beats for ever
the laughter that fades away in
the yellowness all around
Searching the Spring behing
The enthusiastic affection, joy, frustration
misery and tear stiffle on borders
humanity's of footpaths,
The century living in darkness
gragually step by step vanishing
And we extinguish like the flickering flames of
The eartherm lamps of Diwali and repent
in the last phase of life,
surely because
we try to move the wheels of time
in the reverse gears

उल्टी दिशा में चलना

यह जो हंसी की जवानी बीतती है
और अचानक बुढ़ापे में परिवर्तित हो जाती है
यह जो प्रेम की अतृप्त पिपासा
दिल की धड़कनों पर निरन्तर
जीवन और मृत्यु के गीत गाती है
यह जो बासन्ती हंसी
पीलेपन के साथ कुम्हलाती है
यह जो उल्लासमय प्रेम, आनन्द, हताशा, दुःख और आंसू
सिवान की घुटन, फुटपाथी-संत्रास
अंधेरा जीती शताबादी
पहर-दर-पहर, तिल-तिल कर बीत जाती है
और हम चौथे पहर के दिए की तरह
अपनी निश्तेज वर्तिका के साथ जलते हैं
जीवन के अंतिम क्षणों में हाथ मलते हैं
शायद इसीलिए कि
समय की विपरीत दिशा में चलते हैं।