Tuesday 12 July 2011

अज्ञेय-श्रेष्ठ साहित्य पुरोधा : अंतर्संबंधों का विखराव

साहित्य प्रेमी इस बात को जानते समझते हैं कि देश विदेश के अधिकांश साहित्यकार के दो जीवन होते हैं- एक नितांत वैयक्तित तथा दूसरा घर और समाज से जुड़ा हुआ। दुनिया में ऐसे दोहरा जीवन जीने वाले लेखकों की व्यक्तिगत जिन्दगी कितनी दुखद, आत्मदाही और कष्टकर रही है। महान रूसी उपन्यासकार टॉलस्टाय, चेखब, दास्तायवस्की, अंग्रेजी साहित्य के इजरा पाउंड, एलेंन जिन्सबर्ग, हेमिंगवे तथा फ्रांस के श्रेष्ट अस्तित्ववादी साहित्यकार ज्यां पाल सार्त्र तथा हिन्दी में महापंडित राहुल सांकृत्यायन, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, रमेश बक्षी, अज्ञेय आदि ने दोहरा जीवन जिया है।
अज्ञेय का पहला विवाह 7वें दशक में श्रीमती कपिला वात्स्यायन से हुआ। तब अज्ञेय कोलकाता से इलाहाबाद आ गए। लेकिन महाकवि को इलाहाबाद रास नहीं आया। सो दिल्ली चले गए। 7वां और 8वां दशक अज्ञेय का जीवन में महत्वपूर्ण रहा है। इसी समय रूपाम्बरा कविता संकलन का प्रकाशन हुआ (1960), आत्मने पद (1960), तीसरा सप्तक (1966), हिन्दी साहित्य - एक आधुनिक परिदृश्य (1967), सब रंग और कुछ राग (1969), आल-बाल (1971), लिखि कागद कोरे (1972), भवन्ति (1972), अंतरा (1971), अद्यतन (1977), जोग लिखी (1977), संवत्सर (1978), श्रोत और सेतू (1978), शाश्वती (1979), चौथा सप्तक (1979), कितनी नावों में कितनी बार (1967), क्योंकि मैं उसे जानता हूं (1970), सागर मुद्रा (1970), पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं (1974), क्योंकि मैं उसे जानता हूं (1970), महावृक्ष के नीचे (1977), नदी की बांक पर छाया (1981), सदा नीरा (दो खंडों में-1984), ऐसा कोई घर आपने देखा है (1986)।

ये 20 वर्ष अज्ञेय के साहित्य सृजन काल का महत्वपूर्ण समय रहा है। परन्तु उनके भीतर जैसे कुछ टूटता रहा, बिखरता रहा।  कपिला जी से संबंध विच्छेद और ईला डालमियां से नई सम्प्रीति  का दुख-सुख भले ही उन्होंने भोगा हो, परन्तु वे अशांत रहे और अपने साहित्य पर जमकर काम किय। दोनों स्थितियों में दो-तीन वर्ष बाद ही घर टूटने लगा था। अज्ञेय के काव्य संकलन-ऐसा भी घर आपने देखा है की बहुत सारी कविताएं उनके टूटते रिश्तों को दर्शाती है। कवि का मन कितना आहत रहा, यह उनके मौन में पढ़ा जा सकता था।

मैं जब एक कार्यक्रम में भाग लेने दिल्ली गया था तो 13 सितम्बर 1986 को उनसे मिलने गया था।  अज्ञेय जी को पहले फोन किया, गुरुवर मैं आपसे मिलना चाहूंगा। उन्होंने तुरन्त कहा- आ जाइए। मैंने उनसे अगले दिन प्रातःकाल 8 बजे का समय ले लिया। मेरे साथ भाई जगदीश चतुर्वेदी की पुत्री, मुझे दूसरा पिता कहने वाली मुंहबोली बेटी अनुभूति चतुर्वेदी भी गई थी। जब हम दोनों कैंवेंटर्स-अज्ञेय जी के निवास पर गए तो देखा-वे बगवानी कर रहे है। हम दोनों लान में कुछ देर तक खड़े रहे फिर उनके पास तक गए। उन्होंने हमें देखकर फूलों के रखरखाव से ध्यान हटाया और उठकर खड़े हो गए। हम दोनों ने उन्हें प्रमाण किया और मैंने परिचय कराया। ये अनूभूति चतुर्वेदी है, जगदीश चतुर्वेदी जी की बेटी, बहुत सुन्दर डांसर और कवि हैं। अनुभूति यूं भी कोई ऐक्ट्रेस जैसी लगती हैं। इलाजी ने बरामदे से उसे घूरकर देखा और अंदर चली गईं। अज्ञेय ने हमें भीतर बैठक खाने में ले जाकर बैठाया और नास्ते के लिए पूछा-वे अंदर गए, संभवतः नौकर को कुछ हिदायत दी। स्वंय बड़ी ट्रे में कई तरह की मिठाइय़ां लेकर आएं। इसके बाद नौकर ने टोस्ट, पकौड़े, काफी लाकर तिपाई पर सजा दिया। हमने नास्ता लिया, काफी पी। अज्ञेय जी ने पूछा- कब तक दिल्ली रहना है? मैंने कहा गुरुवर, कल शाम को चला जाउंगा। अपने साथ मैं सागर-प्रिया की पांडुलिपि ले गया था, जिसे वे पढ़ना चाहते थे। मैंने उन्हें पांडुलिपि देते हुए कहा कि आप इसे पढ़कर मुझे अवश्य मार्गदर्शन देंगे। फिर अज्ञेय कुछ देर के लिए पांडुलिपि को उलटते पलटते रहे और अपने मौन में कहीं खो गए। मैंने अनुभूति से कहा अब हमें चलना चाहिए। हम उठ गए। अज्ञेय जी हमें गेट तक पहुंचाने गए, लेकिन हमारे उस घर में लगभग 45 मिनट ठहने के बीच इलाजी एक बार भी नहीं आईँ। जबकि उन्हें अज्ञेय जैसे महान लेखक की पत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त था। क्या वे इस संबंध को निभा नहीं पा रही थीं। इसका यही अर्थ हो सकता है कि दोनों में अंतरटूटन था।  मुझे लगा अज्ञेय जी अंदर से व्यथित हैं। किन्तु उनका मौन उनके भीतर के अंतरद्वंद को ढके रहता था। उस सुबह अज्ञेय के साथ मुलाकार मुझे कभी भूलती नहीं। जब अज्ञेयजी को हम दोनों को विदा करने मुख्य द्वार तक आए और हमने पांव छूकर प्रणाम किया तो देखा उनकी आंखों में आंसू तैर रहे थे।

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