Wednesday 29 February 2012

वसन्त आगमन

बहुत धीमे पग
घुसपैठिए की तरह
नव पल्लव-तूणीर में
फूलों का सर लिए
किसी भी क्षण
मन को संघान करने
रिक्त मनको सौन्दर्य-आनन्द से भरने
मन-धरती के ओरछोर
आ गया है नव-वसन्त धीमे पग
प्रेम-स्पंदन से करने सजग...

हवा भी शिशिर का आवरण उतार
कलियों का सुवास लिए माताल सी
वन प्रांतर, सिवान और शहर सीमा रेखा के आरपार
जगा रही मन में अभिसार
कर रही अनुतप्त क्षणों का दुखदैन्य
और मन की पीड़ा हमसे अलग
किस किस ओर से
आनन्दोत्सव मनाने
आ रहा वसन्त धीमे पग...

                                          7. 02.2012

चार चक्र

।। सूरज, माटी, जल, आकाश
जीवन गढ़ता हवा-बताश।।

।। कर लें पंचत्त्व से यारी
जीते जन-मन, दुनिया सारी।।

।। जन का जन से साधे नाता
जन ही जन का विश्व विधाता।।

।। प्रेमनाव को मन-पतवार
ले जाती सागर पार।।

                               8. 02.2012

आत्मबंधन
मैं लहर हूं
समुद्र के क्रोधोन्माद से जन्मी
कभी धीरे,
कभी प्रचंड आवेग से सुनामी बन
रौंदती, जलमग्न करती तट
सर्जित करती जन-संकट ...

मैं लहर हूं
सागर के क्षोभ-विक्षोभ, दुःख-दावानल से जलती
हृदय की आग से झुलसती
सागर में जन्म लेती, पलती, हवा की ताल पर
नाचती, गाती, हुंकार भरती, लहराती
अथवा शांत होकर तट की बाहों में सो जाती...

मैं लहर हूं
जल से बनती, जल में मिटती
तट से अपना संबंध जोड़ती
तोड़ती सारे अवरोध तटबन्ध किन्तु रहती सीमाबद्ध
जल के साथ ही अपना पथ मोड़ती
महासागर की जल-शैय्या पर बनाती सप्तपदी अर्थवान
यौवन की उद्दाम केलि  क्रीडा आनन्द से भरती अन्तर-मन प्राण...

मैं लहर हूं
लहराना मेरी प्रकृति है, ज्वार-तरंगों में
अनन्तकाल से निभा रही तट के साथ आत्मबंधन
जन-जन को देती सीख-सौगात आनन्द अनुरंजन
जोड़ती तट और लहर का अटूट शास्वत संबंध-बंधन
जीती हूं नियंत्रित कर तन मन
चलती महाकाल-प्रवाह की अनन्त यात्रा में क्षण प्रतिक्षण...

                                                             9. 02.2012

मानव-सत्ता
हे वन्धु!
समय का विक्षिप्त, व्यथित, आत्म-खंडित नर्तन देखो
कैसे लोग ठग रहे लोगों को, विक रहे अधिकार
निजता और लोभ की हो रही विजय-जयकार...
हे वन्धु,
मानव-मूल्यों की उड़ रही धज्जियां
सिवान में नगर तक
उड़ रही निराशा की धूल
अभावग्रस्तों की आशाएं हो रही निर्मूल...

हे वन्धु,
मनुष्य में जिस तरह लोभ और लभा की प्रवृत्ति,
धन-लिप्सा, जन अनादर, नफरत की तेज हवा बह रही है
उससे हमारी जड़ें छिन्न-भिन्न हो जाएंगी
मोहनजोदड़ों, हड़प्पा, सिंधु घाटी की आर्य सभ्यताओं का
समाप्त हो जाएगा इतिहास
मिट जाएगा ऊंचे उठने का विश्वास...

हे वन्धु,
तुम सुनो खंडित मानव की दर्प-हताशा,
टूटे विश्वास और आशा का करुण-अट्ठहास,
आत्म हत्याएं, चेतना के विनाश का आत्मदाही स्वर,
किस तरह मिट रही आत्म-सत्ता
आदमी इस माहौल में कैसे जिए निरुपाय, निहत्था...।
                                                 
                                                                  10. 02.2012


प्रेम-सगाई
ओ प्रियस्विनी,
तुम मेरे हृदय का लौह कपाट खोलकर
जब आ ही गई हो,
तो फिर लौटकर जाने का प्रश्न ही नहीं उठता
यूं तो आना-जाना इस जीवन की विकास-प्रक्रिया है
किन्तु हमने और तुमने जो शपथ लिया है -
कि रहेंगे हम सदा साथ-साथ
गहे हाथ में हाथ
प्रेम के अटूट बंधन में बंधे
ओ प्राणस्विनी
हम उस बंधन को कभी तोड़ें नहीं
एक दूजे से मुंह मोड़े नहीं
बने रहें दोनों एक इकाई
और कह दें जनजन से
जगत में सबसे ऊंची प्रेम-सगाई

                                                       11. 02.2012 



अन्तिम क्षण का अहसास
जब रुक जाती सांस
खुल जाते बंधे हाथ
हो जाता प्राण विन तन अनाथ
छोड़कर चला जाता जीव
सब कुछ
सब कुछ और सबका साथ
तब बन जाता वर्तमान
स्मृतियों का इतिहास-
कितना कष्टकर होता अन्तिम क्षण का अहसास।

                                                     12. 02.2012

मनरेगा
गांव के गरीबों को रोटी देने का हुक्मनामा-मनरेगा
सड़कें, पुल, बांध बनाने की श्रमशक्ति-मनरेगा
पत्थर तोड़ने, जंगल साफ कर रास्ता बनाने का परिश्रम-मनरेगा
ग्रामीण विकास और नव निर्माण के लिए श्रम-मनरेगा
सत्ताधारियों का वोटखोरी के लिए आमजन को फुसलाने का शस्त्र-मनरेगा
अफसरशाही की तिजोरियां भरने का यंत्र-मनरेगा
मन.. रे.. गा, म.न...रे...गा - मनरेगा
सत्ता के जाल में उलझी भूख और रोटी-हायरे मनरेगा
उजड़ी झोपड़ी, रोते पल्लि-पथ,
सूखे सिवान, भूखे किसान पगश्लथ

                                                                      13. 02.2012 

प्रकृति का प्रकोप
जब आकाश से वर्फ बरस रही होती है
जब धरती, सागर, नदी, झील, बनजाती बर्फ
जब घर आंगन द्वार, जंगल, सभी बर्फ में जम जाता है
जब ठंडी वर्फीली हवा तूफान की बाहों में बाहें डाले
झकझोरती दिशाएं, उद्दीप्त उत्तप्त बदहवाश दौड़ती
निर्मूल करती घरबाड़ी जंगल वन
करती मानव जीवन भयाक्रांत, पंगु, अस्थिर
तोड़ती मकान, पुल, बिजली के खम्भे, खेलती विध्वंस का खेल
सर्जित करती जन कोलाहल, क्रन्दन
फिर भी मानव बचाता है अस्तित्व
रहता है जीवित प्रकृति की राक्षसी, उद्दाम, आतंकवादी
वज्राघात से बचता बचाता
 प्रकृति के साथ जोड़ता जन्म-जन्मान्तर का नाता...।

                                                                         14. 02.2012




Saturday 25 February 2012

चिन्तन की डोर

चिन्तन की डोर में
संवेदना की गागर बांध
अभिव्यक्ति के गहरे कुएं से
सार्थक ज्ञान रस पीने की साध साधे

फिर उसी डोर से समय-प्रवाह में डगमग डोलती,
मन की आत्महन्ता पीड़ा से लदी आस्थावी नाव
प्रेम-तट से बांधे

और समय-असमय देखते रहे
स्मृतियों की उठती गिरती लहरें
हृदय तट से टकराती
प्रच्छालित करती हृदय की चाह
खुली खाली हथेलियों से
कभी भरी भरी, कभी खाली या आधी

अजाने सत्य के पार
मैं देख नहीं पाता आखिर कौन खोलता है
हृदय का द्वार
कौन दे जाता प्रेमोपहार, आनन्द संभार
और कह जाता वह हमारी आस्था ही तो है
जो समय के साथ हरी भरी होती है
घृणा से असमय मुर्झाती है किन्तु
विश्वास के सहारे फूलती फलती है
जीवन-संघर्ष में नहीं मानती अपनी हार
सदा विजयी होकर भर जाती अन्तरमन के अंधकार में प्रकाश
जगा जाती ढाई आखर प्यार विक्षिप्त लहरों के चढ़ाव उतार में
युद्ध विद्ध क्षणों में, कुहासा और अंधकार में
मैं जान नहीं पाता कौन दे जाता प्रेमोपहार
ममता और सांत्वना अपार।

जिया-अनजिया सत्य

हमने आश्रय के लिए घर बनाए
और रोटी के लिए तरह-तरह के उपाय किए
कभी सुख, कभी दुःख में जिए....

हमने अपनी आकांक्षा और सपनों के पंख खोले
विविध दिशाओं में उड़े
बहुत सारी स्वार्थ की भाषाएं बोले...

हमने दूसरों का सुख चैन अपने लिए छीन लिए
अपने को औरों से अधिक साधन-सम्पन्न बनाए
अंतःकलह और प्रवंचना को कहां छोड़ पाएं...

हमने प्रेम किए किन्तु प्रेम के लिए त्याग और समर्पण नहीं किए
अपना नहीं छोड़े, दूसरे का अधिकार छीनकर
इसी तरह जिए चाहत के जाल में
सदा अमृत पान के लिए
दिए अथवा अनपिए जिए।

नहीं बन पाते फूल या मकरंद
दिन प्रतिदिन मन में बहुत सारा होता है द्वन्द
कभी सपने आकांछाए टूटने से क्षुप्ध
मनोरोग से आक्रांत हम हो जाते सीमित सीमाओं में बन्द

दिन प्रतिदिन हम कितने सारे मनसूबे बनाते हैं
और उन्हें सफल बनाने अपना सर्वस्व दांव पर लगाते हैं
कितनी बार, कितनी तरह से खंडित होता आनन्द
मन की शांति, दिमाग का सुख चैन
जन्म लेने से मृत्यु पर्यन्त
जोड़ नहीं पाते हम जीवन का नवछन्द
प्रेम और जीवन के साथ नहीं हो पाता गहरा अनुबंध

दिन प्रतिदिन मन में उमड़ता घुमड़ता द्वन्द
किंकतर्व्य विमूढ़ता से जब हृदय कपाट हो जाते बन्द
प्रेम जैसे शब्द लगने लगते विनार्थ बेमानी
हम जीवन के वसन्तोत्सव में बन नहीं पाते फूल या मकरन्द

अजाने समय का धृतराष्ट्र
आहत मन साध लेता मौन
भीतर कौन पैठकर पीड़ा देता है?
कौन आंखों के आकाश से
अश्रुवर्षा करता है और
हमारी आकांक्षाओं को अपने घटाटोप से
छायांकित कर लेता है
कौन हृदय को मथता है
काले समय की मथनी से
अवसाद के क्षीर से दुखों का मक्खन निकालता है
और हमारे पीड़ा भरे घावों पर उसका लेप लगाता है
और हमारे सपनों को अपाहिज बनाता है
वह कौन है
 जो दृष्टिहीन धृतराष्ट्र के रूप में समय-असमय
आस्था के कुरुक्षेत्र में हमें हराने आता है
आखिर वह है कौन?

Wednesday 15 February 2012

समय की अवधारणा

समय हमारे चारों ओर
कण कण में व्याप्त है
समय कहता है- मुझे दे दो जीवन की तितीक्षा
दे दो सारे संघर्ष और प्रेम भी
जिससे हुआ तुम्हारे मन का वरण
जिन सपनों, आशाओं, अधूरी आकांक्षाओं का करते रहे अनुसरण
जिनके लिए किया दिन-प्रतिदिन, सालों साल प्रतीक्षा

तुम्हारा अतीत अब समाप्त है
और वर्तमान भी अतीत बनने वाला है
तुम मेरी बातें सुनो, हताशा के तन्तुओं से
मोह-जाल मत बुनो
अपना अच्छा बुरा मुझे दे दो
अतीत की चिन्ता छोड़ दो
मुक्त हो जाओ काली करतूतों और उदास, हारी, थकी दिन चर्याओं से
जिन्होंने बनाया था तुम्हारे जीवन को विषाक्त
अपनी सभी सफलताओं, असफलताओं को
प्रेम-अप्रेम, चाहत के विविध आयामों को मुझे दे दो
और भविष्य-पथ पर आगे बढ़ो
सफलताओं की ऊंचाईयां चढ़ो
जो जितना कुछ किया
जैसा भी जिया
उस सब की करो समीक्षा,
गहन आत्म चिन्तन
और अपनी सारी पीड़ा, यातना का बोझ मुझे दे दो
हो जाओ आत्म विश्वास से सशक्त, चिन्ता मुक्त
सावधान रहो 
अतीत का एक एक क्षण न हो जाए समाप्त
और वर्तमान को जी भर जिओ।

                                         कोलकाता - 28.1.12

समय और प्रेम
समय अपनी गति से चलता है
चलना ही उसकी गति है
वही मौसम परिवर्तन का चक्र साधता है
हमें रात दिन, अंधकार और प्रकाश से बांधता है
अतीत के पर्वत, पठारों, चट्टानों, जंगलों, मरुस्थलों को पार करता
समय-प्रवाह में बहता जाता
कितने सारे किनारे छोड़ता
आगे भविष्य की ओर बढ़ता जाता
इस आपाधापी में प्रेम एक घायल पंक्षी सा
पर फड़फड़ाता हमारे हृदय की पीड़ा और
उमंग-उच्छ्वास के पिंजड़े में बंद प्रेम का अर्थ गुनता है
स्मृतियों के उमड़ते घुमड़ते बादलों की उन्मुक्त खेला में
जीवन की नव वसंतग्राही वेला में
मन का नव्यनीड़ गढ़ता है
नये-नये सपनों के तारों से उसे बुनता है
और फिर प्रवंचना के आघात से  क्षुब्ध
पिंजड़ा तोड़कर मनचाहे क्षितिजों में विचरता है
आह! आहत प्रेम में भी
एक नया सपना ढलता है
समय अपनी गति से चलता है।

            कोलकाता - 30.01.12


यादों में सिमटा समय का संधिकाल
तुम याद करना
जब पागल हवा बसन्त की सुगन्ध लेकर मदिर मन
मंद मंद बहती, हृदय को आलोड़ित करती
खिड़कियों पर थपकी देकर आहिस्ता-आहिस्ता जगाती और कहती
अमराई में बौर लगने लगे हैं
तुम याद करना
जब प्रथम वर्षा की बूंदें परती धरती पर पड़ें
रसासिक्त हों वृक्षों की जड़ें
वन प्रांतर, किसान की आंखों में नई खुशियां भर जाएं
तुम याद करना
जब दुनिया निद्रा में स्वप्नशील होकर नए-नए सपने देखती हो
किसी नीड़ में पंछी पर फड़फड़ाता हो
निविड़ अंधकार में सब ओर सन्नाटा हो
तुम याद करना
शिशिर में वन प्रांतर मरुस्थल, पर्वत, नदी, सागर-तट पर
आकांक्षा के नव्यतम भाव से जीवन की व्यथा-कथा कहती हो
ठंड और शीत लहरी, झंझा की मार सहती हो
तुम याद करना
अतीत की स्मृतियों के साथ
जब वर्तमान और भविष्य  के संधि-पत्र पर समय लिखता हो -
प्रेम ही जीवन-अस्तित्व का उत्स है
तुम याद करना।

                      कोलकाता - 31.02.12

जाने का दम

जिया बहुत
बहुत जिया
जितना लिया
इतना दिया
मेल-बेमेल
संबंध प्रबंधन का
अमृत-विष पान किया
जिया बहुत जिया...
जलाया मन का अपनत्व-प्रदीप
संप्रीति की बाती
आस्था के तेल से
विश्वास की थाती के साथ
जीवन को आलोकित किया
जिया बहुत जिया...
संघर्ष और कर्म के बीच
जो भी जितना मिला
वही तो लिया
प्रेम के बहुरंगी चित्रों से सजी
चाहत की चादर
जब भी फटी कटी
हृदय की सुई से सी लिया
जिया इसी तरह जिया....

                                   कोलकाता-  23.01.12



चलना ही जीवन-अस्तित्व
और कितना चलना है
जीवन तो बस एक मायावी-छलना है
हमें तीव्र गति से प्रवाहित समय-परिवर्तन धारा में
कर्म की लहरों के थपेड़े सहना है
इसी तरह आगे बढ़ना है
नए युग के सांचे में ढलना है

समय का बहाव चाहे जैसा हो
उसे रोक नहीं सकते
उस बहाव में इतिहास, स्मृतियां, अतीत का उच्छिष्ट
सब कुछ विलीन होता
 इयत्ता का स्वरूप खोता
वर्तमान के पड़ाव में रुकता,
और फिर चलता भावतव्य की ओर
यही अस्तित्व के होने, न होने का क्रम समय की भट्टी में
नए-नए रुपों में ढलता है
आह! मैं पूछता हूं अपनी नियति से
और कितना चलना है...

चलते रहने के अतिरिक्त कोई उपाय भी तो नहीं
रुकना कष्ट कारक है
पीछे भागना आत्मदंश है
चेतना का विध्वंस है
हमें नई ऊर्जा के साथ बदलना है
नव्य-पथ पर चलना है....
                        
                              कोलकाता-  24.01.12


सत्ता की शीत लहर
चारों ओर शीत लहर
ठंड से कंपकपीं, लहचल
कुलू, मनाली, शिमला, श्रीनगर, लेह, दार्जिलिंग
हिमलयी-उत्तर से उत्तरांचल, पूर्वांचल
कुम्भ मेला, कल्पवास के लिए संगम तट पर जुटे
ठिठुरते भक्त, कांपते
जवान, बूढे-अशक्त
ऊपर से वर्फीली हवा का कहर....

गंगा भी ठंड से कांप रहीं
तीव्र प्रवाह के साथ सागर की ओर
चंचल उद्वेग से बह रहीं
भक्तों से कह रही.
शीत, ताप, दुख, सुख अस्तित्व के आधार हैं
बिना कोई हलचल, संघर्ष, जीवन एक भार है
चैतन्यपूर्ण रहना है हमें हर प्रहर.....

चारों ओर शीत लहर का कहर
फटेहाल किसान, दलित, कामगार, खेतिहर
टूटी फूटी झोपड़ी की तरह भग्न जिंदगी, भागती
सतत् संघर्ष शीत, पल्लिपथ से शहर दरशहर
संकटग्रस्त है आदमी
चाहे प्रकृति की मार हो
कुव्यवस्था, सत्ता का विषाक्त जहर...

              कोलकाता-  25.01.12


झंडा ऊंचा रहे हमारा
वन्दे मातरम का देशगान-स्वर
गूंज रहा सारे भुवन में
भारत-जन-सागर-तट पर प्रच्छालित
चेतनाकी चंचल गति से प्रवाहित नदियों की लहरों में
आत्म विश्वास से भर
कि विश्व में होंगे हम अद्वितीय, महान
विश्व विजयी होगा ध्वज हमारा
बढ़ेगा सम्मान क्षितिज के आरपार
गूंजेगा वन्दे मातरम्   स्वर
आनन्द प्रभा से आलोकित होगा जग सारा
जन-जन को देंगे संप्रीति, प्रेम-सुख
मानवता को बाहों में भर
बोलेंगे हम सभी एक प्रण-स्वर न्यारा -
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा
झंडा ऊंचा रहे हमारा।

                                   कोलकाता - 26.01.12




स्वप्न चित्र

प्रतिदिन मैं सूर्योदय होते ही सोते से जग जाता हूं
अपनी दिनचर्या पर लग जाता हूं
सबसे पहले अखबारी समाचार बांचता हूं
अथवा रेडियो, दूरदर्शन पर देखता हूं
देश-विदेश की खबरें
और सत्ता के लोभ-लाभी बाजार में
सपने बेचते सत्ता के दलाल..... चल देता हूं

मैंने आत्म विश्वास की तूलिका और संप्रीति के रंगों से
जो सपनों के कैन्वश चित्रित किये थे
और उन्हें  सागर, नदियों के तट, पर्वतों, झरनों, मरुस्थलों,
हरियाली के बीच 
लेकर सत्ता की बाजार में बेचने आए थे
लोभ, प्रवंचना, झूठ, लूट के सामने
कहीं भी टिके नहीं
एक भी चित्र बिके नहीं
हाय, कितने चाव से बनाए थे मैनें सपनों के रंग-विरंगे चित्र
धोखा, फरेब और बेईमानी के बाजार में
नहीं मिला कोई क्रेता, आत्मीय, मित्र
मैं सपनों के चित्र कंधे पर रखे हुए
समय-सागर-तट पर चलता जाता हूं
रोज व रोज एक नया स्वप्न चित्र बनाता हूं
और भविष्य की ओर बढ़ता जाता हूं।

                              कोलकाता - 27.01.12


Saturday 4 February 2012

जल और मछली

जल मछली। जल मछली।
किसिम किसिम की जल मछली
उजली, गोरी, मटमैली, काली।
चुपचाप चुपचाप नदी तट
पानी की सतह पर
उथले उथले गहरे लगाती चक्कर
लहरों के कंधों पर बैठी चंचल चितवाली
जल मछली। जल मछली।
कोई मछुआरा फैलाता है जाल
कोई लगाए वंशी बैठा मौन तट पर
आंखों में अजनबी कोतूहल भर
नदी हो या विस्तृत सागर अपार
जनरव में डूबे फुटपाथ के आरपार
गांव का पोखर हो या झील रुपहली
जो जितना चतुर है पारखी
उतनी चालाकी से मारता है मछली
जल मछली। जल मछली। जल मछली।

Fishing and Water
Fish in waters, fish in waters
of different and different species of different colours
their waries fair and
grey, dusty, blackish
Noiseless, silent, visible
On the surface of the waters; near banks of river
wandering in shallow circles
sitting on the shoulders of waves
fickleminded fish in waters.
fish in waters, fish in waters.
Some fisher-men/fish mongers
cast their nets wide, someother sits silent
quiet and motionless
on the riverbanks with fishing-tackles
Their eyes reflect strange curiosity and wonder
no matter whether it is river or ocean
pond or water tanks across the footpath
Be it a village puddle or a lake
in the mountainous region
whosever is cleaver and crafty
in the game of fishing
gets more bounty of his catches.
Fish in water's, fish in waters.

मेट्रो रेल

रात का निःशब्द अंधकार
चौंक उठता सड़क के नीचे
धरती कटती। धरती के नीचे
रेल-सुरंग बनती। धरती कटती।

मशीनों का प्रचण्ड शोर
रात का अंधकार चौंक उठता
फुटपाथ टूटता, सड़क फैलती
भूगर्भ सुरंग बनती। धरती कटती।
ऊंची अट्टालिका पर सहमी खड़ी पीली चांदनी
दिशाओं को कंपाती प्रतिध्वनियां
कर्णभेदी शोर
सोये फुटपाथ पर लेटा
रद्दी कागज बेचने वाला छोकड़ा
आंखें मिचमिचाता जग उठता
यह तो भोर नहीं रात का है तीसरा पहर
सोता शहर। गरजता गजर
शब्द जागते, सोते अर्थ
प्रतिध्वनियां भागती हताशा प्रतिध्वनियां से
आश्रय मांगती महानगर के बीच
मशीनों का प्रचण्ड शोर गूंज उठता
गजर गरजता। फुटपाथ कटता। सुरंग बनती
उम्र की तरह धरती कटती।

Metro Railway
The night's silent darkness
Is shocked by dented the road
The earth underground is beng drilled
The metro-rail is being built
A tunnel for a new rail system under construction is built
beneath in the womb of earth

Even the night's darkness, shocked
Foot-paths are broken. The Earth beneath is cut
under the cover of terrible noise
the road widens the earth is frightened

The yellowish shivering moon stands on
the high-rise structures
The unbearable echoes pierce the ears
The sleeping newspaper-boy hurriedly
awakens with eyes blinking exclaims
on! this is not early-morning
It's the hour after midnight only.
the metropolis is embraced by deep slumber
In this city of madding crowd words awake, meaning sleep
Echoes are running away from, furious sound
The earth cuts like our aging.

Kolkata Book Fair - 2012

A Book Fair Started on 25.01.12 and ends on 05.02.12 in which Book almost in all the Mazor Languages are exhibited. Its a Literaly Festival of Indian Literature Art & Culture Where only 3-4 Hindi. Publishers have come. A national Language Hindi in not represented Properly and Calcutta Hindi Writers are quite ignorant to the infact of language culture and readership habit.

I am happy that my two Books in Hindi - Novel- Aranyak (The Jungle Mate) and Poetry Collection Bhagta Hua Samay (The Times run off) Have been released.  A Literary Meet-The time and literature was also organised on 2.2.12.
In which I have adovocated that a serious writer have to be free from all the dogmas, political colours and other side effects to be honest in his creative work.
Almost all the Hindi Dailies have published my views and news about release of the books. I feel Hindi should be promoted by the publishers seating in Delhi, Banaras , Allahabad, Bhopal and Jaipur etc. and Govt. should promote.

Friday 3 February 2012

प्रेम-सत्ता

प्रेम के आगोस में मनुष्य को ही नहीं
जड़ चेतन, पशु पक्षी को बांधा जा सकता है
प्रेम से ही ईश्वरत्त्व-बोध साधा जा सकता है
प्रेम ही इस धरती पर जीवों को आनन्द सुख देता है
प्रेम की बस एक ही शर्त है -
जो निश्छल मन अपना सर्वस्व देता है
वही प्रेम-सगाई का अंतरंग आनन्द-सुख लेता है
प्रेम में अपने को अपने से अलग करना जरूरी है
लोभ-लाभ की दृष्टि से प्रेम-जाल बुनना
और उसमें अपने आत्मीय को बांधना निरा मजबूरी है।
                                                             -18.01.2012

विषपायी जीवन
मैं जिन जिन राहों पर चला
वे सभी पीछे छूट गई हैं
बस एक स्मृति रेखा खिंच गई है
अन्तर मन में
ऐसे में अपने पथ पर आगे बढ़ते जाने पर
मैं देखता हूं शताब्दी का उभरता हुआ नया स्वरूप
वर्तमान के क्षण-प्रतिक्षण,
कण-कण में परिवर्तन चेतना की चादर बिछ गई है।
पौरुष और विश्वास ने हार नहीं मानी
और प्रवंचना के आकाश में ऊंचे, बहुत ऊंचे
दुराशा की जो पतंगें उड़ रही थीं
पलभर में
दृढ़ निश्चय की डोर से टूट गई
मैं सागर-तट पर बैठा
देख रहा अस्तित्व-अनस्तित्व की लहरें
बार बार आकर चेतना के विस्तृत खुले हुए तट को
चपल चंचल चतुर प्रेमातुर समर्पण जल से
भिंगो जाती हैं और
अनमने मन लौट जाती है
फिर नई ऊर्जा लेकर आती हैं
तट को छू जाती हैं
अथवा उसे अवगाहित करती हैं
हृदय-मन जलप्लावित कर
जीवन का नया संदेश दे जाती हैं -
जीना है तो तटस्थ तटकी तरह नहीं
लहर की तरह जीना है
अमृत के साथ विष भी पीना है
विषपायी होना है।
                                                         19.01.2012

महानाद-स्वर
संप्रीति का महानाद स्वर जब झंकृत होगा
जन-मन में
बदलेंगी अनास्था, अविश्वास, अन्तर विरोध की धारा
और कुव्यवस्था की स्थितियां,
कर्म-चेतना, अभिव्यक्तियां
सार्थक होंगी जीवन की, क्षण-प्रतिक्षण के परिवर्तन में।
हटेगा अंधकार भऱा कुहासा
मानव होगा विजयी प्रत्येक संघर्ष में
परिवर्तित होगा जीने का स्वरूप हर्ष -आनन्द में
परिष्कृत, स्पष्ट प्राण-दर्पण में
संप्रीति का महानाद-स्वर
जब-जब झंकृत होगा कण-कण में
जन-जन में
इतिहास अपने ही गर्त में गिरकर विलीन हो जाता है
किन्तु हमारी संघर्षशक्ति, आस्था
अनन्त काल तक अपराजित रहेगी
मनुष्य का उत्थान अपने आत्मबल से होगा
युग बदलेंगे,
चलता रहेगा नव परिवर्तन अनवरत,
हमारी चेतना के विविध आयाम में
नए नए इतिहास बनाते रहेंगे,
मनुष्यता की होगी विजय
अनपेक्षित विपरीत परिस्थितियों में
काल का महानाद-स्वर संप्रीति की धुन पर
झंकृत होगा जन-जन में......
                                      20.01.12

भाग रहा जीवन
तेजी से बह रही हवा
हमारे भीतर बाहर
सड़क पर, पल्लिपथ से लेकर राजपथ पर
सिवान से नगर तक
भाग रहा जीवन द्रुतगति से
पृथ्वी से महा अंतरिक्ष-पथ पर
महाशक्ति बनने का सपना लिए
भाग रहा मानव
इस छोर से उस छोर तक
बह रही हवा अपने साथ ले जाती
मनुष्य के संघर्ष की व्यथा-कथा-स्वर
हो रहा आत्म विमर्ष का अवसान
हमारे भीतर बाहर
अस्तित्व भाग रहा अग्नि-पथ पर
आशा विश्वास लिए
प्राण में नवोच्छ्वास भर
                                                     21.01.2012