Saturday 9 July 2011

अज्ञेय के साथ संवाद

हिन्दी की नई कविता तथा प्रयोगवाद के प्रवर्तक अज्ञेय द्वारा संपादित चौथा सप्तक का संपादन वर्ष 1979 में सरस्वती विहार नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ था। जिसमें औधेश कुमार, राज कुमार कुंभज, स्वदेश भारती, नंद किशोर आचार्य, सुमन राज, श्री राम बर्मा, राजेन्द्र किशोर कुल 7 कवियों को सम्मिलत किया गया था। अज्ञेय जी ने इस काव्य संकलन की भूमिका में लिखा था कि -आज कविता पर एक दावे करने वाला मैं बुरी तरह छा गया है। कविता में मैं निश्चिंत नहीं है। कविता प्रतिश्रुत और प्रतिबद्ध भी हो सकती है। लेकिन कहां तक इन सबका काव्य में निर्वाह हो सकता है और कहां ये काव्य के शस्त्र बन जाते हैं यह समझना आवश्यक है।

चौथा सप्तक में मैंने अपने वक्तव्य में सर्जनात्मक कविता के बारे में कुछ प्रश्न उठाए थे - क्या हमारी संवेदना एक खास नजरिया में ही बंधी रहती है, जो शब्दाडम्बरी, सपाट बयानी कविता को क्रांति या नवचेतना की खातिर लिखते हैं वे क्रांतिद्रष्टा मनीषियों का अनादर करते हैं। और क्रांति का मजाक उड़ाते हैं। वे स्वनिर्मित प्रगतिशीलता की मिथ में जीते हैं। यही उनकी स्वकेन्द्रित उपलब्धि है। कविता न लिख पाने की असमर्थता, निराशा उनके दूसरे संघर्षों के साथ मिलकर उन्हें दिमागी दिवालिया बना देती है। बाढ़ में घिरे मकान की तरह मौलिकता ढह जाती है। मैंने हमेशा माना है कि कविता की आत्मा के बिना कविता जी नहीं सकती। चौथा सप्तक में मेरी 19 कविताएं संग्रहीत हैं। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स तथा अन्य विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में जो आलोचनात्मक लेख चौथा सप्तक के संदर्भ में लिखे गए वे निष्पक्ष, वस्तुनिष्ट नहीं थे। क्योंकि अज्ञेय का विरोध करना उनका खास नजरिया रहा है। फिर भी प्रखर चिन्तक, आलोचक डॉ. चन्द्रकांत वाडिवदेकर, डॉ. विनय, डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, डॉ. विवेकी राय आदि ने संकलन को आधुनिक हिन्दी कविता का ऐतिहासिक दस्तावेज माना और कविताओं पर आलोचकीय दृष्टिपात किया। जितने भी आलोचना आलेख, टिप्पणियां, समीक्षाएं प्रकाशित हुईं, उन सब में मेरी कविताओं की कुछ ज्यादा ही चर्चा हुई।

वर्ष 1981,  4 सितम्बर को मैं अज्ञेय से प्रातः 8 बजे उनके नये निवास कैवेन्टर्स, नई दिल्ली में मिला था। इसके लिए पहले से ही समय नियत था। मैं जब पहुंचा तो देखा अज्ञेय जी बगीचे में रंग बिरंगे फूल चुनकर हाथ में ली गई छबिया में एकत्र कर रहे थे। मुझे देखते हुए पास आए, मैंने प्रणाम किया तो बोले कलकत्ता से कब आए? मैंने उत्तर दिया कल सबेरे राजधानी से आया। फिर उनका दूसरा प्रश्न था - कहां ठहरेहैं? होटल यात्री निवास में- मैने बताया। अज्ञेय जी बोले आईए चलते हैं। क्या लेंगे? मैंने कहा चाय लूंगा। उन्होंने बैठक खाने में मुझे बैठने के लिए कहा और नौकर से चाय तथा कुछ नमकीन खाने के लिए मंगवाया। फिर कुछ सोच कर वे उठ गए और कुछ ही देर में बड़ी प्लेट में कई तरह की मिठाइयां लिए आए। टेबल पर रखते हुए बोले- स्वदेश जी कलकत्ता की तरह स्वादिष्ट मिठाइयां दिल्ली में नहीं मिलती। मुझे भीतर से बड़ी ग्लानी हुई कि कलकत्ता से चलते समय गुरुवर के लिए मिठाई लाना भूल गया। उन्होंने कई बार आग्रह कर मिठाइयां खिलाई। फिर पूछा कि चौथा सप्तक कैसा लगा। मैंने कहा कि आपकी संपादकीय काफी विवेचनीय है और कवियों के लिए मार्ग दर्शक भी। किन्तु संकलन की आलोचना ठीक ढंग से नहीं हुई। उन्होंने कुछ देर मौन के बाद कहा- हिन्दी में सतही आलोचना के कारण सर्जनात्मक साहित्य उभरकर आगे नहीं आ पा रहा है।  उस दिन मैं अज्ञेय के साथ लगभग 1 घंटे तक रहा और साहित्य के विभिन्न आयामों पर चर्चा होती रही। उनका मौन टूट चुका था और साहित्य की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही थी। उस त्रिवेणी में स्नान कर मैं तृप्ति भाव से होटल लौटा तो लगा कि मेरे भीतर नई प्राण चेतना भर गई है।

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