Thursday 29 November 2012

मैंने शब्दों से यारी की

मैंने शब्दों से यारी की
मैंने संप्रीति न्यारी की
मैं शब्दों के पीछे भागता रहा
अनसोया करवटें बदलता जागता रहा
शब्दों से प्रेम किया
शब्दों के लिए ही जिया...

प्रकृति ने जो भी उपहार दिए
उन्हें ही अपना लिया
उन्हीं से मैंने अपने भीतर
मस्तिष्क की राख में दबी चिंगारी को
प्रज्जवलित किया
शब्द-ज्योति से सभी को प्रकाश दिया...

उस प्रकाश-ऊर्जा-शक्ति को विकीरित करने से
कभी रुका नहीं
किसी भी स्थिति में किसी के सामने झुका नहीं
अपने गन्तव्य-पथ पर चलता रहा
नए-नए सपनों के तईं समय के संयंत्र में ढलता रहा
कितनी ही  बार
अवश, अबोध, अनियंत्रित उत्सृजत होते शब्दों से
भावाभिव्यंजना के विविध आयामों से
समयबद्ध स्थितियों में अपने को बदलता रहा
वही मेरी जीत या हार थी
किन्तु उसी को परचम बनाकर
संघर्षों से लड़ता रहा
आगे बढ़ता रहा
नींद में भी जागता रहा
शब्दों के पीछे अनवरत भागता रहा
शब्दों की यारी प्रकृति से मांगकर अपना लिया...

                                                                        नई दिल्ली
                                                                        16.06.12




सत्याचार

सत्य का कोई राग नहीं
रंग नहीं
नाटकीय ढंग नहीं
सत्य का एकपक्षीय संग नहीं
झूठ की आंखों में डर की बिल्ली बैठी होती है
वैसा सच की आंखों में नहीं
कभी भी, कहीं भी सत्य के स्वभाव में उद्वंड नहीं, घमंड नहीं
सत्य झर-झर झरते शुभ्र झरने की तरह होता
वह अपना स्वरूप कभी नहीं खोता
सत्य का कोई हठ या विराग होता
सत्य में कोई भी भी दाग नहीं होता
सत्य ही समय के साथ चलता
झूठ सदा दूसरों को छलता
सत्य किसान के लिए लहलहाती फसल का सपना है
सत्य में कुछ भी पराया नहीं, न अपना है
सत्य सदा तटस्थ, निर्विकार होता
सत्य जीवन का सार होता
सत्य में कोई अनुराग नहीं
सत्य में किसी का कोई अनुभाग नहीं
सत्य में विराग नहीं
सत्य आत्मा का दर्पण है
सत्य जीवन का समर्पण है



                                                                  नई दिल्ली
                                                                                                   18.06.12







आजा बदरा

सूखी धरती विलख पुकारे
आजा बदरा, पानी दे
पानी दे गुड़ धानी दे
सूख रही हरियाली सारी
वन की सुषमा प्यारी न्यारी
श्वेद कणों को पोंछ पोंछकर
गरमी से व्याकुल नर नारी
विजुरी के कंधों पर चढ़कर
आजा बदरा, पानी दे
पानी दे, गुड़धानी दे
सुखकर लगती सजल बयार
पहली वर्षा-सुखद फुहार
आजा बदरा पानी दे
जन-जन को गुड़धानी दे


                                                              नई दिल्ली
                                                                                              19.06.12











सूर्य-अस्तित्व

सूर्य उगता है दिन प्रति दिन
उषा की सतरंगी आभा का वरदान देता
जन-मन में आनन्द रस भरती
चहक उठते खग-वृन्द,
महक उठती धरती
वहीं सूर्य दिन भर की यात्रा से थककर
गोधूलि बेला में
सान्ध्य-क्षीतिज की खेला में
पश्चिम का मेहावरी कपाट बन्द कर लेता
अंधकार आखेटक सा
अपने शिकार की खोज में चल देता
समय सभी के कर्मों का हिसाब रखता गिन-गिन

सूर्य हमारी आंखों के सामने सबसे बड़ा नक्षत्र है
देवरूपी, हिरण्य गर्भा धरा-आकाश में सर्वत्र है
वह हमें देता है प्रकाश, अंधेरे से मुक्त कराता
सुनिश्चित रेखांकित पथ पर चलता जाता
मनुष्य कभी लौटा नहीं सकता सूर्य ऋण

सूर्य हमें प्रकाश देता
गर्मी वर्षा शिशिर मधुमास देता
जन-जन के कर्म का श्रोत बनता
कण-कण को नई आभा, नवानन्द देता
किन्तु हम अस्त होते सूर्य को
कहां कर पाते हैं नमन
फिर भी सूर्य हमारे अस्तित्व का रक्षक बनता दिन प्रतिदिन



                                                                                             कोलकाता
                                                                                              20.06.12











जीवन का अर्न्तद्वन्द

एक सन्नाटा भरा मौन
मन मस्तिष्क को रौंद जाता है
सत्य-असत्य की अतीत कथा कहता
भवितव्य की एक धुंधली सी आकृति उकेर जाता है
मैं अतीत में लौटना नहीं चाहता
जो बीत गया, बीत गया
जो रीत गया, रीत गया
अब करना है कुछ सार्थक नया
हर तरह से तोड़ना है
अनावश्यक, मनमर्दित अतीत से नाता...

हम मुक्त होकर ही
अभिष्ट-पथ पर चल सकते हैं
जरा सा बंधन औंधे मुंह गिराता है
समय हमेशा कहता है
प्रसन्नचित्त होकर कर्म करने की सार्थकता
हमें देती है नई ऊर्जा, नया प्रकाश
आधा जीवन जीने का दर्द देता संत्रास
जीवन की आपाधापी में कहां कौन मुक्त हो पाता है
मन में उठता अन्तरद्वंद आंसू बहाता है



                                                                                             कोलकाता
                                                                                              21.06.12











प्राण संवेदना के कोरे कागज पर

मैं रोज-ब-रोज कुछ न कुछ लिखता हूं
मैं शब्दों के विविध रूप
मस्तिष्क की चाक पर गढ़ता जाता हूं
रस-रूप-गंध से बने आत्म-सौंदर्य के उच्छ्वास से
गन्तव्य-पथ पर आगे बढ़ता जाता हूं
लिख लिखकर रिक्त होता हूं
उसी से जीने की नव-प्रक्रिया के साथ जुड़ता हूं
उस सीख से होती आत्मीयता की सघन्ता पुष्ट
भले ही होते हों सपनों के चित्रित स्वरूप रुष्ठ
इस तंग दिल दुनियादारी की  विचित्र रूप कथाओं के
अपरूप सौन्दर्य प्रभाव में आकर
बार-बार अपने रास्ते से मुड़ता हूं
जन्मों का यही प्राणान्तरण है
यही सच है कि जैसा है नहीं
वैसा दिखता भी नहीं
और जैसा दिखता है
वैसा है नहीं
अनन्त समय-सागर-तट पर यह अहसास होता
कि कर्म की लहरियों द्वारा छोड़ी गई सिक्ता हूं
जिसे बार-बार मुट्ठी में भरता हूं
प्राण संवेदना के कोरे कागज पर लिखता हूं




                                                                                               कोलकाता
                                                                                              22.06.12












अस्तित्व की सुरक्षा

मैंने ऊंचे-ऊंचे गिरि-शिखरों को, घाटियों को
सघन जंगलों, पठारों, मरुस्थलों के विशाल फैलाव को
झरनों के दुग्धधारी रुपों को, असंख्य रंग-विरंगे फूलों को
नदियों के प्रवाह और अनन्त-सागर की नीलिमा में
उद्वेलित, फेनोच्छसित चंचल लहरों के रूप ज्वार को देखा

मैंने संसृति के विभिन्न भागों में
भिन्न-भिन्न वर्ण, जाति, भाषाओं बोलियों, वेशभूषा के बीच
जीवनयापन करते देखा
उन देशों में भी गया जहां लोग आज भी
मध्ययुगीन सभ्यता में पलते हैं
अपनी तरह से बनाए गए रास्तों पर चलते हैं
और दूसरी ओर ऐसे देश भी हैं
जो आधुनिक सभ्यता के बेमेल संस्कारों में जीते हैं
किन्तु आत्मिक बोध के उन्मुक्त व्यवहार में निरा रीते हैं


ये  देखना जरूरी है कि हमारे आसपास
अड़ोस-पड़ोस, दुनिया के देशों में कहां क्या हो रहा है
यह भी देखना है कि
हमारे घरों में कौन सेंघ मार रहा है
और संस्कृति, सभ्यता, संस्कारों की हत्याकर रहा है
यह जरूरी है कि हम उसी तरह चैतन्य
और सावधान रहें कि कहीं से होने वाले खतरों से
हम लड़ सकें-सुरक्षा के पैमानों के बीच
अपनी विरासत बच्चा सकते हैं।
उसे सुरक्षित रख सकें


                                                                        कोलकाता
                                                                                              23.06.12










अस्तित्व की सुरक्षा

मैंने ऊंचे-ऊंचे गिरि-शिखरों को, घाटियों को
सघन-जंगलों, पठारों, मरुथलों के विशाल फैलाव को
झरनों के दुग्धदारी रूपों को, असंख्य रंग-विरंगे फूलों,
नदियों के प्रवाह और अनन्त-सागर की नीलिमा में
उद्वेलित, फेनोच्छसित चंचल लहरों के रूप ज्वार को देखा

मैंने संसृति के विभिन्न भागों में
भिन्न-भिन्न वर्ण, जाति, भाषाओं बोलियों, वेशभूषा के बीच
जीवनयापन करते देखा
उन देशों में भी गया जहां लोग आज भी
मध्ययुगीन सभ्यता में पलते हैं
अपनी तरह से बनाएगा रास्तों पर चलते हैं
और दूसरी ओर ऐसे देश भी हैं
जो आधुनिक सभ्यता के बेमेल संस्कारों में जीते हैं
आत्मिक बोध के उन्मुक्त व्यवहार में निरा रीते हैं

हमें देखना है कि हमारे आसपास
अड़ोस-पड़ोस, दुनिया के देशों में कहां क्या हो रहा है
यह भी देखना है कि
हमारे घरों में कौन सेंघ भार रहा है
और संस्कृति, सभ्यता, संस्कारों की हत्याकर रहा है
यह जरूरी है कि हम उसी तरह चैतन्य
और सावधान रहें कि कहीं से होने वाले खतरों से
हम लड़ सकें-सुरक्षा के पैमानों के बीच
अपनी विरासत बच्चा सकते हैं।
उसे सुरक्षित रख सकें।


                                                                                              कोलकाता
                                                                                              23.06.12









जीने का यत्न


इतना कुछ किया
जैसे भी जिया
किश्तों में जिया
फूल और कांटों के बीच
विष और अमृत पीया
आंखें भींच
कुछ अच्छे अवसर गंवाएं
समय से जो कुछ भी पाएं
जीवन को राग-रंग से सजाएं
अंधेरे में जलाएं
मन के छोटे-बड़े दिए
असाध्य संत्रास के बीच
यह जीवन विविध कोणों पर जिए
मैंने सदा दूसरों की परवाह किये
निजता त्याग कर जिया
सन्नाटा
असंगतियों के परकाट कर
अपने को कई भागों में बांटा
किसी से कुछ भी नहीं लिया
प्रकृति से प्रेम किया
उसी से जीने की सीख लिया
अपने पावों पर खड़ा होने में
जितना भी समय दिया
देखा कि जीवन के क्षण
सहज-असहज बिता दिया
जैसा भी किया
वैसा ही तो जिया


                                                                                              कोलकाता
                                                                                              25.06.12










थोड़ा-थोड़ा बांटो प्यार


थोड़ा-थोड़ा बांटो प्यार
प्यार पाना है दुश्वार
टपटप करती बूंदे वर्षा की
धरती पर पग पड़ते ही इतराती
हरियाली संग रास रचाती
हंसती, गाती, घुमड़-घुमड़कर नाचती
भरती हृदयों में अभिसार
थोड़ा थोड़ बांटती प्यार

पशु पक्षी, जन-जन तनमन को
सुख कर लगता प्यार
प्यार बिना जग सूना लगता
चतुर्दिक घिरता है अंधकार
संक्रामक आवाजें आ रहीं बार-बार
थोड़ा थोड़ा बांटों प्यार

प्यार बिना लगता जग सूना
दुख, पीड़ा, हो जाते दूना
मौसम-परिवर्तन से धरती
सबको यह संदेश बांटती
जग में जो आनन्द भरा है
वहीं है हृदय को संचित प्यार
थोड़ा थोड़ा बांटो प्यार...






                                                                                               कोलकाता
                                                                                              26.06.12








कविता-घर


मैं दिन प्रतिदिन कविता-घर बनाता हूं
कभी गांव की झोपड़ी से मिलती जुलती
मन की चौड़ी-लम्बी चौपाल,
विस्तृत द्वारा, आंगन, बखार-कक्षा, पूजा भवन
संवेदना के दरवाजे, खिड़कियां, भावाभिव्यक्ति के
रंग-विरंगे कार्निश, बहुतेरे भित्ति-चित्र
हृदय के फूलों, लतरों, कई तरह के पौधों,
झाड़ियों, हरियाली से सजाता हूं
मैं कविता घर बनाता है
यह घर कभी पूरा नहीं हो पाता
कितने बरस बीते
कितने मौसम रीते
जिन्हें इस घर में रहना था
वे अजानी दिशाओं में चले गए
बस बच गया एकाकी मन
जो पूरे घर में रहता है
अकेलेपन की यंत्रणा सहता है
मैं अपने तईं, स्वयं एक नाता हूं
दिन प्रति दिन घर बनाता हूं
अपने को भीतर से जगाता हूं
यह जो आतंक, भय, निराशा फैली है चारो ओर
इन सबसे सुरक्षित रहे घर
इसलिए उसे मजबूत बनाता हूं।


                                                                                              कोलकाता
                                                                                              27.06.12









सोच की नांव


सोच की नांव
संवेदना की पतवार
अनन्त शब्द-सागर
दुःख दैव्य मझधार
किसी भी सूरत में तटिनी को
ले जाऊंगा उस पा....

चिन्तन की उद्वेलित लहरें
उठती गिरती शोर मचाती
तट को छूती, वापस जाती
फिर आ जातीं बारम्बार.....

शब्दों का है बूढ़ा नाविक
नांव पुरानी, भग्न पतवार
मन-सागर कितना अगम्य है
कैसे हो भवसागर-पार.....


                                                                                               कोलकाता
                                                                                              28..06.12











अभी और जीना है


अभी और कुछ दिन तक
धरती की मन-मादक मृदुल गंध से
सम्मोहित होना है
अभी और कुछ दिन तक
अपने कंधों पर सुख-दुख का भार
अदम्य-उत्साह से ढोना है
अभी तो केवल मौसम-परिवर्तन देखे
नदी का प्रवाह, सागर तट पर गिरती
बाहों में आगोष्ठित करती लहरों का
उद्दाम, उच्छ्वल, उद्वंड रूप देखा है
संत्रासयुक्त स्वत्वहीन, संज्ञाच्युत, स्वप्न-विहीन
विगलित संबंधों को जिया है
असमय की अगम्य, अगोचर, अन्तरवर्धी
असामान्य पीड़ा को हृदय की कोठरी में बन्द किया है
जब हारिल की तरह
मुक्त-पंख उड़ जाऊंगा किसी अजाने क्षितिज की ओर
जीवन-नाटक का पर्दा गिर जाएगा
थम जाएगा आपाधापी का शोर
उस समय की प्रतीक्षा कर रहा हूं
अन्तस् के खाली घट को
आत्म-इतिहास की होनी-अनहोनी घटनाओं से
सुख-दुख के पैमानों से भर रहा हूं
अभी शायद इसी तरह
हां, इसी तरह सघन कर्मी से बंधा जीवन जीना है
न चाहते हुए भी
अभी अन्तश्चेतना के विपर्यय का
आत्महन्ता विष पीना है
अभी और जीना है।



                                                                                                कोलकाता
                                                                                              29..06.12








समय भाग रहा है


जल्दी-जल्दी चलो
समय द्रुत-गति से भाग रहा है
सबेरा सूर्य-आभा से नहा रहा है
पंछी कर रहे हैं स्तवन
जागृत है स्मृतियों का आकाश
कैसे बीत गया शीघ्रता से मधुमास
जल्दी जल्दी चलो
कहीं आगे का पथ विपथ-विपतिजनक न बने
बहु तेरे सोन- किरण-जाल में
आशा-स्वप्नाकांक्षा की मछलियां फंसा रहे
कोई व्यर्थ में आनन्द-रस बहा रहाहै
समय निःपृह भाव से भाग रहा है
सौभाग्य का देवता
हमारी अन्तस की पीड़ा को शांत करने के लिए
देर रात में भी जाग रहा है
जल्दी जल्दी चलो
समय अपने समय से भाग रहा है।


                                                                                               कोलकाता
                                                                                              30..06.12

























Tuesday 27 November 2012

हंसी को विषाक्त बनने मत दो

हंसता हूं तो जैसे लगता है जग सारा हंसता है
रोता हूं तो अकेलापन डसता है
क्या देखता नहीं कि
बूढ़ी पृथ्वी मौसम परिवर्तन में
खुशियां मनाती है
फिर वह मेरे दुःख भरे आंसुओं से
संवेदित नहीं होती
क्योंकि उसके पास ऐसे ही
इतिहास-हन्ता दुःख हैं जो बनाते उसे उदास उन्मन
जिनसे जर्जर हो उठा है उसका अन्तर्मन

तुम मना लो उल्लास
अथवा रो लो, चाहे जितना, जिस तरह से
विखरा हो तुम्हारा मन- विन्यास
धरती अपनी पीड़ा से आहत
सागर तट पर शंख, सीपियां, मोती, मूंगे विनती है
 संसृति की वेदना से मुक्त नहीं हो पाती
अब वह अपने बचे हुए दिन गिनती है।

हंसना जीवन का सुमधुर क्षण है
रोना निःकृष्टतम अपकर्म है
अपने को जन-जन से जोड़ना ही मानवधर्म है
अन्यथा समय का अजगर
हमारी हंसी को डसता है।

                                    स्वदेश भारती
                                    05.06.12










सूर्य पर काला धब्बा

सौर जगत की अद्भूत घटना
शुक्र के बीच सिमटना
कितने सारे मिथ में बंटना
देव, दनुज, धरती, जन-जन का
विस्मय, भय के बीच सिमटना
अद्भूत खेल ग्रहों हाय रब्बा
सूर्य पिंड पर काला धब्बा


                                   स्वदेश भारती
                                    06.06.12






मनुष्य की स्थिति

जब ईश्वर ने मनुष्य बनाया
तो पहले मछली और अजगर का स्वरूप दिया
उसे यह शक्ल पसन्द नहीं आई
तब उसने मनुष्य को गिरगिट बनाया
लेकिन यह भी पसन्द नहीं आया
तो उसने प्रकृति, जीव-जन्तु, पंछी के रंग ढंग का ओज चढ़ाया
हृदय में प्रेम की अनुभूति भर दी
जो आज भी मनुष्य के उत्थान और पतन का
सबसे बड़ा कारण है
मानव मन के इर्द-गिर्द प्रेम का आवरण है
जो उसे आन्दोलित करता है
जिसके लिए मनुष्य मृग की तरह
कस्तूरी की खोज में भागता है
और समय की झाड़ियों में फंसकर अस्तित्वविहीन  हो जाता है
आखिर ईश्वर को मनुष्य के निर्माण का करिश्मा
कैसे भला रास आया
प्रेम और लोभ के इर्द-गिर्द उसे जीवन पर्यंत भटकाया।


                                                    स्वदेश भारती
                                                    07.06.12






सूर्य को शुक्र ग्रहण

ग्रहों को भी भुगतना पड़ता है दंड
वह दंड संसृति का निर्माण करता है और ध्वस्त भी
उन्हीं के प्रभाव में रहते हैं अस्तित्व-रक्षित
सचराचक, जड़-चेतन और ब्रह्नाण्ड भी
चंद्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, शुक्र ग्रहण
 ऐसे ही महाअंतरिक्ष में कितने सारे ग्रहण
कितनी सारी खगोलीय घटनाएं
पृथ्वी को प्रभावित करती हैं
ये घटनाएं धरती के वातावरण को
ऊर्जा से भरती हैं अथवा खाली करती हैं

एक सौ पांच वर्ष बाद फिर देखने को मिलेगा
सूर्य-शुक्र ग्रहण का अद्भूत संयोग
किन्तु तब हम न होंगे, होंगे नए लोग
नए लोग होंगे, नई संस्कृतियां, नए-नए योगायोग
धरती पर तब क्या गुल खिलेगा?

दुनिया आश्चर्यचकित है शुक्र का सूर्य पर
अपनी काला छाया प्रत्यावर्तित करना
ग्रहों, नक्षत्रों का अपनी दबंगई सिद्घ करना
महाशून्य का यह दृश्य कितना आश्चर्यजनक है
जिसका असर अंतरिक्ष से धरती तक है
हम हो नहीं सकते निःसंग-एक सबक है।


                                                         स्वदेश भारती
                                                          08.06.12










यह पृथ्वी

यह पृथ्वी सालोंसाल इतनी सारी वर्षा का पानी पी जाती है
फिर भी तृप्त नहीं होती उसकी पिपासा
गढ़ती रहती सूखेपन की परिभाषा
गांवों, खेतों में धरती मागती है जल
बिना जल न फूल होते, न हरियाली, न फल
जब पृथ्वी जलमग्न होती है
पल दो पर में पी जाती सारा जल
यद्यपि कि इतने बड़े महासागर
उसके वक्ष पल में लहराते हैं
पर्वत नदियों के रूप में अपनी व्यथा अभिव्यक्त करते हैं
सब कुछ ग्रहण कर लेती पृथ्वी
महासागर, नदियों, वर्षा का जल
मनुष्य की अस्थियां
अपने भीतर कर लेती समाहित
बड़े-बड़े राजा, महाराजा, शूरमा
विशाल भव्य राजप्रासाद ऐश्वर्यवान साम्राज्य
इतिहास का भगनावशेष छुपा लेती अन्तराल में
यह पृथ्वी अनन्त काल से
मनुष्य-अस्तित्व का आधार बनती
वनश्री, फूलों, फलों से सजाती अपना अंग प्रत्यंग
कृष्ण के लिए रचाती रास, सीता-राम के लिए वनवास
कितनी सारी सत्ता-महत्वाकांक्षाओं की युगदृष्टा बनी
अपने भीतर सब कुछ समाहित कर लेती
यह पृथ्वी...।


                                                         स्वदेश भारती
                                                          09.06.12







सुब कुछ होता विनार्थ

पशुत्व होता है, प्रत्येक पुरुष में
और नारी अंक-शायिनी होती
मनुष्य की प्रभु-सत्ता में वह अपना अस्तित्व खोती
यूं चलता रहता जड़चेतन में
प्रेम-अप्रेम, निर्माण-विध्वंस,
चुम्बन और वैराग्य का चक्र
समय बली होती
समुद्र के अन्तराल से लहरें उठा लाती मोती शंख-पीपियां अनेकों रत्न
और छोड़ जाती तट पर निःस्वार्थ
कोई शब्द-चालीसा भी बनाए
तो संसृति के खेल का कैसे कर भावार्थ
ब्रह्मलोक से, नक्षत्रों से कौन कहे
सब कुछ अनन्तः हो जाता विनार्थ
सब कुछ चला जाता हमारी मुट्ठियों से झरझर रेत कण सा
चाहे नर-नारी हो अथवा देवता
कोई नहीं रहता अपने स्वरूप में अद्यतन
भले ही प्राण-संवेदना की देयता
असंख्य शब्द और उनकी अर्थवत्ता


                                                          स्वदेश भारती
                                                          11.06.12








अश्लीलता जीवन का आदि और अंत

मनुष्य का जन्म-अश्लीलता की चरम पराकाष्ठा है
किन्तु मनुष्य ही
अश्लीलता से परहेज करता है
अश्लीलता शोषण का मनोरंजक खेल है
जिसका विधि विधान रचता है कोई सृष्टिकर्ता
अश्लीलता से सत्-संस्कृति का क्या मेल है?
किन्तु चलता है अश्लीलता का अनिष्ट नाटक
चौबीसों प्रहर, घर-बाहर
होटलों, बारों, नाच घरों, विवाह-समारोहों में
आदमी की कामना मनचाही तृप्ति का आवरण पहन
अश्लीलता से निकलकर अश्लीलता पर समाप्त होती है
शब्द, गान, छन्द उसके इर्द-गिर्द नाचते हैं
सुखमय, सुमधुर जीवन मानव की आश्था है
उसी के इर्द-गिर्द हम सभी भागते रहे
कितनी सारी पीड़ा के घाव सहे
अश्लीलता और मनुष्य का जीवन पर्यंत अटूट नाता है
कोई कहे या न कहे
अश्लीलता ही जीवन का आदि है और अंत



                                                          स्वदेश भारती
                                                          12.06.12





सौंदर्य की सत्ता

स्वर्ग से धरा-लोक तक
सौन्दर्य जीवन का अपरिमित साध्यहै
मानव-मन सौन्दर्य के विविध रूपों को
अपने भीतर बाहर मानने को वाध्य है
क्योंकि सौन्दर्य से ही अनन्त लीलामय बनता आत्मबोध
सौंदर्य ही जीवन का आकर्षण है
जो कभी भी विद्रुपता, कटुता और अपरूप चिन्तन का
सहज अथवा असहज सह सकता है कोई अनरोध
सौन्दर्यही हृदय का श्रेष्ठतम आराध्य है
सौंदर्य की सत्ता कण-कण में व्याप्त है
देव, ऋषि-मुनि गण, मनुष्य को आत्मा के सौन्दर्य की निष्ठा
और उसके विविध स्वरूप की महत्ता का स्वाद प्राप्त है
सौन्दर्य की महत्ता छाई रहेगी अनन्त काल तक
स्वर्ग से धरा लोक तक






                                                          स्वदेश भारती
                                                          13.06.12











झरी अमराई की व्यथा-कथा

आम बागान के सारे फल झड़ गए
कुछ लोगों ने तोड़े, कुछ आंधी में गिरे
कुछ कोमल, तोते, काग ने खाए
और अब आम की डालियां
जो आम के गुच्छों से सजी थी
फलमुक्त होकर मना रही एकाकी मौन
कोयल बार-बार आम्रकुंज की डाल पर बैठ
पूर्ववत् गान गाती है कू-कू-कू
किन्तु उसकी आवाज में आम केन होे का सच
उभर कर वनश्री को उदास बना रहा है
गांव की झोपड़ी से बूढ़ी अपनी चोटी बच्ची के साथ
आम बिनने आती थी, अब निराश, भूखी
आम के बाग में फिर से बौर आने की आशा लिए
बच्ची को गीत गाकर सुलाती है -
अबकी बेरिया बगियन में लगेंगे बौर
आम खाइन तोहरे साथ रे सुगनिया।


                                                          स्वदेश भारती
                                                          14.06.12





उड़ता हुआ आकाश में

उड़ता हुआ आकाश में
फिर धरती पर आकर
अपने कर्म की दिनचर्याओं से जुड़ जाता हूं

जुड़ना ही जीवन की सार्थक प्रक्रिया है
वही मधुरतम सत्य है और तोड़ना अपने को दूसरों से
टूटना अंधकारमय होता है
ऐसी स्थिति में मैं उस रास्ते को छोड़ता हूं
जिस पर टूट की विडम्बनाएं होती
और दूसरे पथ से जुड़ जाता हूं

रास्ते अनेकों हैं- कोई साफ सुथरा है
तो कोई कंटकाकीर्ण, कष्ट कारक, उबाऊं
घुमावदार, निर्जन, ऊबड़-खाबड़, सघन जंगल
उपात्यिकाओं घाटियों, पर्वतों से होकर
समय-महासागर के विस्तृत रेतीली तट पर
चलते जाना है
पता नहीं फिर कब लौटना है
इसीलिए आत्मछातक स्थितियों में
आत्म -अनात्म से जुड़ जाता है
आशा, विश्वास भरे मन मस्तिष्क सोच से
असाध्य पथ पर मुड़ जाता हूं।


                                                          स्वदेश भारती
                                                          15.06.12

























Monday 26 November 2012

राजभाषा अधिनियम की स्वर्ण जयंती वर्ष पर संविधान में हिन्दी को राजभाषा के स्थान पर राष्ट्रभाषा किए जाने का प्रस्ताव समर्थन

10 मई 1963 को भारतीय संसद के दोनों सदनों द्वारा हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में प्रस्ताव पारित किया गया था। वर्ष 2013 में अधिनियम की स्वर्ण जयंती के अवसर पर राष्ट्रीय हिन्दी अकादमी का हिन्दी जगत की ओर से यह प्रस्ताव है कि राजभाषा अधिनियम को (1963) संशोधन किया जाए तथा राजभाषा प्रयोग शब्द के स्थान पर राष्ट्रभाषा किया जाए। राष्ट्रीय हिन्दी अकादमी समस्त हिन्दी जगत से अपील करती है कि वे इस प्रस्ताव पर अपना समर्थन-पत्र भारत के महामहिम राष्ट्रपति को भेजें तथा अपना अभिमत राष्ट्रीय हिन्दी अकादमी को निम्नलिखित पते पर भेजें तथा अकादमी द्वारा 2-4 अक्टूबर 2013 को कलकत्ता में आयोजित राजभाषा स्वर्ण जयंती समारोह एवं 26वां अखिल भारतीय हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने की कृपा करें।

अध्यक्ष
राष्ट्रीय हिन्दी अकादमी
331, पशुपति भट्टाचार्य रोड,
कोलकाता - 700 041
दूरभाष - 91-24067127
टेलिफैक्स - 033-22135102
ईमेल- editor@rashtrabhasha.com
ब्लॉग - bswadeshblogspot.com

Request for support and suggestion for changing Rajbhasha with Rashtrabhasha on the occasion of Golden Jubilee Year of Official Language Act 1963

On 10th May , 1963 Official Language Act (1963) was passed by both Houses of Indian Parliament. In 2013 we have to celebrate Golden Jubilee of the Act. The National Hindi Academy Proposes that 2013 should be observed Golden Jubilee of Rajbhasha and the official Language Act (1963) should be modified as National Language Hindi in place of Rajbhasha, Official Language.
The Indian Citizens are requested to send their support letter to the honorable President of India in this regard and send their views to the Chairman Rashtriya Hindi Academy.

The Chairman
National Hindi Academy
Uttarayan
331, Pashupati Bhattacharya Road,
Kolkata - 700 041
Ph. : 91+033-20467127
Telefax  : 033- 22135102
email-editor@rashtrabhasha.com
blog : bswadesh@rashtrabhasha.com


हाय रे औरत तेरी प्रवंचना

औरत एक खौलता हुआ दरिया है
जिसमें प्रत्येक पुरुष को बहना है
औरत-मानसिकता से उद्वेलित लहरों के
आलोड़न को सहना है

औरत मां है, बहन है, बेटी है
और पत्नी है, रखैल है
दुनिया में पुरुष-कामना की सहचरी है
जो करुणा, क्रोध, दया, क्षमा से भरी है
कितने सारे युद्ध औरत के कारण हुए
द्रोपदी न होती तो महाभारत भी नहीं होता
आर्यावतर् महान शूरवीरों को नहीं खोता
सीता भी राम-रावण युद्ध का कारण बनी

औरत की प्रवंचना, छलना से इतिहास के 
कितने सारे पृष्ठ भरे पड़े हैं
और मर्द तो भूखा कुत्ता की तरह
रोटी की तरह, नारी देह से अपनी भूख मिटाता है
मातृ देवो भव का आदर्श किसे सुहाता है?
इस आधुनिक युग में
जब जीवन और संस्कृतियां
तेजी के साथ बदल रही है
चरित्र में नवोन्माद भरता जा रहा है
इस युग का अन्त, संस्कृतियों का क्षय,
औरत के कारण ही होगा।

                                                       स्वदेश भारती
                                                       01. 06.12






अकेला विहग

जंगल का अकेला विहग
क्षितिज में उन्मुक्त उड़ते, दाएं बाएं मुड़ते
नए-नए क्षितिजों से जुड़ते
किसी आश्रय-वृक्ष की सघन छाया में
अपना नीड़ बनाएगा?
एक नीड़ छोड़कर दूसरा अपनाएगा
वह तो नितान्त अकेला है
कोई नहीं है उसके संग
जंगल का विहग...

वह उड़ता जाता है अनन्त आकाश में मनचाही दिशाओं में चक्कर लगाता 
अकेले ही अनमने मन मौनबद्ध गीत गाता
अकेले गीत गाने का भी बड़ा मौजूद होता है
जिस झलकता है अन्तर मन का रंग
जब अपना बसा बसाया नीड़ छोड़कर उड़ता है
उस पंछी के बहुत से हैं प्रसंग
अतीत को छोड़ता भविष्य की तलाश करता
क्षितिज के आरपार चक्कर लगाता
जंगल का अकेला विहग

                                                       स्वदेश भारती
                                                       02. 06.12








हारिल

तुमने कहां से सीखा है सुमधुर-तान-गान
शायद उन पर्वतों से
जिनपर बर्फ से टकराकर सबेरे की सोनाली किरणों
अपनी स्वर्ण आभा बर्षाती है
सीखा है तुम ने
उन घाटियों, उपत्यिकाओं से
उन झरझर झरते झरनों से, सागर और
नदियों के कलकल से, लहरों के उद्वेलन से
कहां सीखा है गान की मधुर तान

तुम्हारे सुमधुर गान सुनकर सोई हुई
हृदय-वेदना जाग उठती है
मस्तिष्क में स्वप्निल सपनों का ज दुअई संसार
जागृत हो उठता है।
कितना आकर्षण है
कितना मनको मयूर की तरह नचाने वाला है
तुम्हारा स्वर-ताल-गान
जिसे सुनकर बेसुध हो जाता है हृदयमन-प्राण

                                                             स्वदेश भारती
                                                            04. 06.12







Saturday 24 November 2012

स्मृतियों की गागर अधूरी आधी या भरी-भरी पूरी

मैंने चिन्तन की डोर से
संवेदना की खाली गागर बांधी
और मनके गहरे कुएं से
जल बाहर करने की साध ठानी

फिर मैंने उसी डोर से
मन की आत्महंता पीड़ा से लदी नाव को
समय-सागर की प्रबल लहरियों से बचाकर
प्रेम-तट पर बांधी

और देखता रहा निर्निमेष तट पर बैठ
स्मृतियों की उठती-गिरती लहरे
तट से टकराती
तट को प्रच्छालित करती, भर लेती 
खुली हथेलियों में शंख, मुक्ता, सीपियां
किन्तु मुट्ठियां रह जातीं खाली
कभी अधूरी आधी

                                                        स्वदेश भारती
                                                        25.05.12       



समय का रूप

समय क्षण-प्रतिक्षण
अपना रूप बदलता
कभी किसान बन हल, ट्रैक्टर चलाता, मजदूर खेतिहर बनकर खेतों में काम करता
कभी धान की फसल के बीच मेड़ पर बैंठ
फसल के लहराने और नये ऋतु के आने की प्रतीक्षा करता
कभी नहर खोदता, पुल बनाता, सड़कें बनाता
अट्टालिकाएं बनाते हुए ऊंची अट्टालिका से गिरकर 
प्राण-निछावर कर देता।
समय ग्रीष्म की तपती कड़ाही में फूटते मकई के दानों सा
गर्म बालू से फटफटाता, छटपटाता
आम आदमी का सपना बन जाता।
समय- बादलों की सेना के भागते हुए रथ, हाथी, घोड़े, युद्धक काली घटा देखता
और मयूर-मन नाचता रहता
जब तक कि वर्फीली वर्षा की बूदें
उसके श्वेद कणों को अपने सजल हाथों पोंछ नहीं लेती
कोई बन-सिवार के फूल के रूप में गांव, जंगल-तड़ाग को अभिनंदित करते हुए
उसकी आत्मा आनन्द विभोर हो उठती
कभी वह स्वाग करता, नाचता, एक पतली डोर पर
चढ़ जाता, भीड़ तालियां बजाती, पैसे देती
समय आम आदमी के बीच रहता है
किन्तु आम आदमी की भाग्य नहीं बन पाता
समय हमें अपना सब कुछ देता, परन्तु
आशीर्वाद के रूप में आदमी को
अपनी अंतरंगता नहीं दे पाता
और यह भी कि तुम्हारा जीवन
सुखमय, मंगलमय, घन आनन्द से
भरित पूरित होता
समय बेहद तटस्थ भाव से अनमने
हमारी आंखों के सामने से गुजर जाता।


                                                        स्वदेश भारती
                                                        26.05.12  




दोपहरी का रौंद्रीय - दुःख

श्वेद कणों से भरी भरी
गर्मी की दोपहरी
जब मुरझाकर सिकुड़ जातीं पत्तियां हरी-हरी
उनका मौन कराह सुनाई देता अन्तर्मन में
ऊब और हताशा की रेखाएं खिंच जाती जनजन में
वनजीवी, श्रमजीवी, किसान और कलकारखानों में काम करते
अट्टालिकाएं गढ़ते मजदूर उसी तपती गर्मी में झुलसते
वे देख नहीं पाते, बस अहसास करते कि
कैसे आग लगती मन-प्रांगण में
कैसे डगमग डोलती प्राण-तरी समय की लहरों के उद्वेलन में
जीवन की घात-प्रत्याघात खतरों से भरी
जेठ की दोपहरी...

संवेदना पंखा झलती
पोंछती पसीना,
नवशब्द-अर्थ के ताने बाने गढ़ती
धूप का धुआं-गुवार उड़ता चारों ओर
मौसम की डोर से बंधा आदमी का जीवन
दहकता अशांत धरती का कण-कण 
रोती हरीतिमा हाथ मलती
हांफता हिरण, भागती किसी घने वृक्ष की
छाया की खोज में
किन्तु फंस जाती कंटीली झाड़ियों के बीच
सब कुछ बदल जाता समय के ओज में
बहू पंखा झलती, बूढ़ी सास करी कथरी सीतीं
बादल घिरते परन्तु वर्षा हंसती हाथ खींच
कैसे पसीना पोंछती जेठ की दोपहरी
सजल आंखों में श्वेदकण से भरी-भरी




                                                       स्वदेश भारती
                                                        28.05.12




कोयले की मधुरस भींगी तान

कोयल अलख सबेरे कू..कू...कू करती है 
आम्र कुंज से उसकी मीठी बोल उड़कर
सिवान के आरपार तक
नगर सीमा के द्वार तक
हृदय-आनन्द रस में भिंगोती है
कोयल किसी डाल पर बैठी
प्रातःकाल के पूर्वी क्षितिज पर
रंगोली खेलती सोनाली आभा-रंगी
किरणों के रंगोत्सव देखकर
अपनी कूक के स्वर बदल लेती है
आनन्दातिरेक में मीठे गान सुनाती है

कोकिला, कोयल, कलपाखी,
इतनी काली होते हुए भी
अपनी आवाज से दिशाओं में
मधुरस घोलती है
कितना मधुर मीठा मृदु मोहक बोलती है
हमारी आत्मा के खालीपन को
आनन्द-रस से भरती है
कोकिला अलख सबेरे
अपना मधुरस-तान-गान छेड़ती है।



                                                       स्वदेश भारती
                                                        29.05.12  





शब्द-निःशब्द

जन्म, रोने से शुरू होकर
मृत्यु की खामोशी तक
शब्द-निःशब्द के बीच
सार्थक, निरर्थक होता है
मनुष्य शब्द का इतिहास ढोता है
और अतीत की देयता स्वीकार कर
वर्तमान की काली चौड़ी सड़क पर
अपनी अभिलाषाएं लिए
गन्तव्य की ओर बढ़ता है।

शब्दों की दुनिया में कोई मौज उड़ाता है
कोई संत्रस्त, आहत अस्तित्व विहीन हो जाता है
शब्दों के अर्थ विगड़ते नहीं
किन्तु जो प्रवंचना और छल-छद्म के सेतु बनाते
वे स्वयं शब्द-जाल में मछली की तरह फंसते जाते
शब्दों के भीतर ही मानव-अस्तित्व पलता है।

हम तरह-तरह से शब्द नीड़ बनाते
उसे तरह-तरह से सजाते
समय की अंधी-आंधी, तूफान, वर्षा से बचते-बचाते
शब्द की भूल भुलैया में 
मन-बुद्धि के साथ तलमेल बैठाने की
असमर्थता से समय के अंधेरे में विलुप्त हो जाते
शब्द से ही मनुष्य के कर्म का इतिहास बदलता है
शब्द-निःशब्द हमारी चेतना के भीतर बाहर
जीवन्त, सुखदायी, अजर-अमर बनकर जीवन को बदलता है।




                                                        स्वदेश भारती
                                                        30.05.12  








सीख

जीवन की पत्तों को खोलना नहीं
अनिष्ट कभी बोलना नहीं
वैभनश्य का बीज बोना नहीं
जो चमकता नहीं वह सोना नहीं
अस्तु अपने रंग में चमकना ही सार्थक है
मनुष्य अपने वर्तमान और भविष्य का सर्जक है
समय की तुला पर छलप्रपंच तौलना नहीं
जीवन की पत्तों को खोलना नहीं....

अपने अतीत से बहुत कुछ सीखना है
हृदय की सूखी माटी को स्नेह-रस से सींचना है
अंतर्बोध की अबूझ पहेली को सुलझाना है
कर्म से ही अपना अभीष्ट पाना है
दुनिया में यदि आए हो तो हर हाल में जीना है
सुख-दुख का मधुरस और विष पीना है
कटु शब्द कभी भी बोलना नहीं
जीवन की पत्तों को खोलना नहीं....।


                                                         स्वदेश भारती
                                                        31.05.12  


Friday 23 November 2012


हिन्दी की ताजा पुस्तकें प्राप्त करें Avail Latest Hindi Books
भारत तथा विश्व के उन विश्वविद्यालयों, संस्थानों में जहां हिन्दी का पठन-पाठन एवं शोध होता है। पाठ्यक्रमों में सर्जनात्मक हिन्दी साहित्य की पुस्तकों का अभाव है इसके लिए कलकत्ता स्थिति भारत का सुप्रसिद्ध आशियान प्रेस, कोलकाता द्वारा प्रकाशित हिन्दी पुस्तकें संग्रहणीय है। नई पुस्तकों की सूची ब्लॉग पर पाठकों, साहित्य प्रेमियों के लिए प्रकाशित की जा रही है। इस प्रकाशन द्वारा हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि, उपन्यासकार स्वदेश भारती की पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं
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Wednesday 21 November 2012

आहत-प्रेम के रूप

जबसे मेरे चिन्तन की मौन-धारा में तुम समाई 
हृदय की शांत संवेदना की लहरें उद्दवेलित हो गईं
आत्म विभोर तो हुआ मन उल्लसित, आनंदित
किन्तु धारा का बहाव प्रबल हो उठा
चारों ओर तीव्र ध्वनि छाई
बजने लगी प्राण में प्रतीति की शहनाई
जब से तुम जीवन में आई....

प्रेम-आत्म विभोरता के सामने शहंशाहियत का
ठाठ-बाट, ऐश्वर्य-वैभव कुछ भी नहीं 
हृदय हो जाता नशेमान, विह्वल
जब चढ़ता है रंग प्रेम का 
किन्तु जरा सी असावधानी संगत मनुहार में
जब गिरते हैं अश्रुजल, हृदय पत्रों पर
तैरता है मन बेकल विकल आत्म पीड़ा-मझधार में
पता नहीं कहां से कैसे प्रेम-संवेदना ने की सगाई
जबसे द्रवित मन में तुम आई..

प्रेम निष्ठुर नहीं होता, नाही कोई मांग करता
वह अपना संसार स्वयं रचता
उसे प्रभामय बनाता, करता सर्वस्व आत्म समर्पण
किन्तु अविश्वास और प्रवंचना से आहत
प्रेम बन जाता टूटा हुआ दर्पण
ऐसे में अविराम होती है जग-हंसाई....

                                       स्वदेश भारती
                                       कोलकाता - 11.05.12


कितने सारे पैमाने जीवन के

कितने सारे पैंमाने जीवन के
कितने सारे आत्मदाही क्षण
आनन्दोत्सव मनाते, करते चिन्तन-मंथन
कौन हर लेता पीड़ा-कसक जन-जन की
बनाए घरौंदे आकांक्षा के और हर तरह से सजाए
हमने कितने सारे स्वप्न-आकांक्षा सेतु बनाए
जीवन को सजाने के लिए कितने सारे उपादान संजोए-
घने जंगलों, पर्वतों, नदी, सागर-तट पर
बहु आयामी स्वप्न-रेत को मुट्ठियों में भर लिए 
आगाध, अनन्त का स्मरण कर
अंतर-विषाद का किए तर्पण
किन्तु जो कुछ बचा मुट्ठियों में
वो स्वप्न-रेत नहीं थी
मुट्ठियां खाली थी
फिर यह सीख लिए-
आत्माहत होकर जीवन जीना
कितना कठिन, कितना औदार्य-हीन होता है
इसी क्रम में मनुष्य अपनी अस्मिता के आयाम खोता है
और स्वप्नाकांक्षाओं का होता विसर्जन
जीना है तो स्वीकारना होगा 
सभी तरह के खट्टे मीठे क्षण

                                       
                                      स्वदेश भारती
                                       कोलकाता - 12.05.12




अस्वस्थ शरीर

अस्वस्थयता शरीर को पंगु बना देती है 
मन में एक विषाद भर जाता है
जब हाथ पांव काम नहीं करते
और आंतों में भर जाता है अपरूप धुंआ 
जीवन का आनन्द घायल हारिल पंछी तरह उड़ नहीं पाता
जब सूखने लगता है रुग्ण-सूखा तन


                                        स्वदेश भारती
                                        कोलकाता - 13.05.12





जीने की कशिश

मैंने सभी अर्थों को जानने का यत्न किया 
शब्द और अर्थ को पहचान कर यह जीवन जिया
किन्तु सम्बन्धों के विविध संदर्भों के बीच
मनुष्य के भीतर छिपे सत्य-असत्य के अर्थ को
जीवन पर्यन्त समझने की कशिश से
दूर होता गया
क्योंकि संबंधों का चोला बदलता रहा नया नया
कभी अपनी अंतर-पीड़ा अभिव्यत किया
कभी पुराने फटे-कटे संबंधों को सी लिया
उसे भी जिया अनपेक्षित , अनचाहा
बस जितना जिया प्रारब्ध बन गया।


                                       स्वदेश भारती
                                       कोलकाता - 14.05.12



स्वतंत्रता-परतंत्रता

देखो न! कैसी कैसी लड़ाई हो रही है
अन्याय के विरुद्ध नहीं, भ्रष्टाचार के विरुद्ध नहीं
बलात्कार, अत्याचार के विरुद्ध नहीं
गरीबी, बेकारी, बीमारी, भूख और संत्रास के विरुद्ध नहीं
लोग भाग रहे संसद से सड़क तक
सत्ता के लिए लड़ाई लड़ रहे, झंडों के पीछे भाग रहे
साधुओं संतों से लोहा ले रहे, 
प्रगति के रास्ते अवरुद्ध कर रहे
आजादी में हर आदमी आजाद है
उसकी आत्म-लिप्सा उसका सरताज है
जीवन जीने की सार्वजनिक नीलामी हो रही है
भ्रष्ठ जीवन यापन से कहां किसे कितनी लाज है।


                                       स्वदेश भारती
                                       कोलकाता - 15.05.12




अक्षरज्ञान का अधूरापन

अक्षरज्ञानी, विज्ञानी, उपदेशक, मार्गदर्शक
अपने को पूरी तरह अभिव्यक्त   नहीं कर पाता
यही एक कारण है 
जो उसकी मन-बुद्धि को सताता
जीवनपर्यन्त, जितना भी चाहे जिए, मरे,
चेष्टाएं करे, जितना भी ज्ञान-रस
जीवन के रिक्त-कलश में भरे
किन्तु वह आधा-अधूरा ही होता है
वही फसल काटता है, जो बोता है।

जीवन एक पहेली है
जो पूरी तरह समझता है
वही समय-प्रवाह में तैरता है
जो आधी समझ से
पूरा का पूरा जीवन जीता है
वह किनारे पर बैठा उस प्रवाह को देखता है
जिसमें हर आदमी बह रहा होता है

अक्षर-शिल्पी तुम्ही बताओ
क्या अपने को या समय को पूरा का पूरा अभिव्यक्त कर पाओगे
निरुत्तर होने के अतिरिक्त भला कहां जाओगे
जो प्रारब्ध में है ही नहीं
वह मिल नहीं पाता
बस यही रिक्तता जीवन के सभी अर्थ-
विनार्थ का अपरुप छन्द बन जाता
जो पल-दर-पल मन बुद्धि को सताता।


                                      स्वदेश भारती
                                       कोलकाता - 16.05.12




आदमी का मरण-जीवन

आदमी रोज मरता है
रोज जीता है
नए-नए परिवेश में
नई-नई आकांक्षा विश्वास के साथ
नए-नए कारनामों से
रिक्त मन-कलश भरता है
आदमी रोज मरता है

आदमी फिर-फिर से जी उठता है
इस मरने और जीने में
आग जो सुलगती है सीने में
एक अहसास ही तेरा नाम जिन्दगी है
कि हम होंगे कामयाब
कभी न कभी, किसी न किसी दिन
खोज लेंगे अस्तित्व का मार्ग नायाब
मनुष्य के पसीने से जो श्वेदकण टपकता है
वही खालीपन को भरता है
आदमी कभी अपनों के विश्वासघात से
कभी सपनों के टूट जाने के आघात से
प्रतिदिन मरता है
किन्तु संसार का नियम है कि वह जीए
मरण-पर्यन्त नई आशाएं लिए
इस सबके बावजूद स्वतः समय के हाथों 
आदमी अपनी मौत मरता है
एक करुण स्वर गूंजता है हर समय अतःस्य अनस्वर
आदमी अपने को पूरी तरह खोलने से डरता है।


                                      स्वदेश भारती
                                       कोलकाता - 17.05.12






केवल जीने के लिए

केवल एक बात के लिए
इतनी सारी दिनचर्चाएं-थकी, हारी, असमर्थ
खोजती जीने का अर्थ
केवल इस बात के लिए
कि कैसे अर्थ का संकट जाए
सुख, हंसी, आनन्द आए
बस इतनी सी बात
और सारा जीवन सहते
विपरीत परिस्थितियों का निर्मम आघात
भागते रहते अस्तित्व की काली सड़क पर
जागते, सोते, कभी मौन के अवगुंठन में बंधे
कभी चीखते, चिल्लाते करुणा-स्वर,
जीने के क्रम में झेलते जाते सब कुछ
प्रिय, अप्रिय, मान-अपमान
भय की सुई से होंठ सिए
बस जीने के लिए....


                                      स्वदेश भारती
                                       कोलकाता - 18.05.12






लिच्छवि का आहत मन

लिच्छवि के घर आंगन में
मिथिलेश कुमारी खेलती, भागती, छुपती, हंसती
वन-प्रांन्तर में सखियों के साथ घूमती
विविध क्रीडाएं करती बड़ी हुई
राम के गले में जयमाल डालती हुई
प्रसन्नता से अधीर हुई जानकी
ठहर गई हवा, धरती उत्फुल्लित हुई
जन-जन, वन-वन आनन्दातिरेक से भर गया
फिर 14 वर्षों के वनवास का समाचार
और जब उनका हरण हुआ
मिथिला के नर-नारियों के रुदन से धरती का दम घुट गया
जैसे सब कुछ उनका लुट गया
करते हुए प्रार्थना घरों से निकल आए नर-नारी
भूल गए व्यापारिक चातुरी बनिया, व्यापारी 

फिर जब राम रावण युद्ध में राम विजयी हुए
मिथिला आनन्दोल्लास से हर्षित हो उठा
जन-जन, वन-प्रांतर में होने लगे उत्सव
नाच, गान, एक स्वर एक प्राण, एक तान

फिर जब सीता को अयोध्या के बाहर
बीहड़ जंगलों में भेज दिया गया
लिच्छवी का करुणा-रुदन
मिथिला के चारो ओर गूंजने लगा
विक्षोभ भरा दुःख भर गया जनजन में
सिया के मन में


                                      स्वदेश भारती
                                       कोलकाता - 19.05.12





दर्द टीसता है भीतर

दर्द केवल टीसता नहीं भीतर ही भीतर
बल्कि आंखों से चलकर, हृदय और
मस्तिष्क को तोड़ता मरोड़ता
अंग अंग में अपने अहसास का बीज
बोता है
यही दर्द में होता है


                                      स्वदेश भारती
                                       कोलकाता - 21.05.12





जीवन की सत्य परता
जितना कुछ जीवन का अवशेष बचता है
उतना ही उसे प्यार का संकट डंसता है
कठिनाइयों में भी
यूं तो सही माने में
बाहर से भरा भरा
किन्तु भीतर से रोता हूं


                                      स्वदेश भारती
                                       कोलकाता - 22.05.12





स्वयं सिद्ध-पथगामी

जैसे जैसे दिल में असमय की कालिख
लगती रही, मैं संतापग्रसित अपनी
जीवन-यात्रा में चलते-चलते थकान का अहसास,
और प्रवंचना के संताप का दुख सहता रहा
मैं ठीक हूं, स्वस्थ हूं, दुरुस्त हूं कहता रहा

जैसे-जैसे समय का पहिया आगे बढ़ता रहा
मैं अपनी असमर्थता-बोध का संत्रास झेलता रहा
प्रभात में नए आलोक से नई-नई शपथें लिया
अंधकार में रास्ता भटक गया और पुनः शपथ लिया
अब मैं अंधेरे के बीच भीच लूंगा
प्रवंचित इतिहास की छाया से दूर
नए विश्वास, नई आशाओं से भरपूर
अपने गन्तव्य-पथ पर चलता हुआ

समय का क्या, कभी भी असमय में बदल जाता है
फिर जब नई खुशियां, नई उमंगें, नई आशाएं,
नव-अस्तित्व का प्रदीप जलाती है
कर्म की बाती और चेतना के तेल से ही
हृदय-प्रदीप जल पाता है। इतिहास यही मानता है,
मैं इतिहास के खंडहरों में इधर से उधर
वर्तमान के कुहासे के बीच
नव-संस्कार खोजता घूम रहा
और शब्दों के जंगल में भटकता हुआ
अपने पथ पर चलता रहा।


                                      स्वदेश भारती
                                       कोलकाता - 23.05.12





मनुष्य की जीने की कशिश

जब प्राकृतिक छठा भाती नहीं
जब हृदय में प्रेम की नई पीड़ा आती नहीं
तब आदमी कठोर बनता जाता है
अपने भीतर, बाहर क्षुब्ध विचारों को जन्म देता
जन्म लेने, कर्मक्षेत्र में युद्ध करने 
और जीवन-यात्रा को जब 
गन्तव्य तक ले जाने की कशिश भी सताती नहीं
तब वह मृत प्राय कहा जा सकता है।
आदमी का जीना
उसकी आदमियत के दर्प पर निर्भर करता
अन्यथा वह बेमौत मरता।


                                      स्वदेश भारती
                                       कोलकाता - 24.05.12