Monday 30 July 2012

टूटते तारे की व्यथा

टूटे तारे की अन्तर्व्यथा को कौन जाने
जो अपने केन्द्र से टूटकर
महाअंतरिक्ष के किसी नक्षत्र में समा जाता है
क्षणभर में कहां से कहां चला जाता है
किन्तु टूटे तारे का प्रकाश खोता नहीं
किसी दूसरे, तीसरे नक्षत्र के साथ
वह हृदय में प्रकाश लिए हाथ मिलाता है

टूटा तारा महाशून्य-पथ पर भागता चला जाता है
वह भी अपने समय से छला जाता है
किन्तु ग्रहों, उल्कावलियों की बाहों में बाहें डाले
उन्मत्त नाचता है, हुड़दंग मचाता है
जलते हुए हृदय की तपिस में आत्मदग्ध
अपने अस्तित्व को हर तरह से बचाता है
अन्तरिक्ष में विलीन हो जाता है।


कर्म का खेल
परती धरती की तरह दुःख
नए-नए मौसम में अपने को सजाते हैं
कभी त्रयोगुणी वर्षा की प्रतीक्षा में दिन काटता
कभी विसंगतियों की आग में झुलसता है
आधा जीता, आधा मरता है।
हम जो, जैसा चाहते हैं, वैसा होता नहीं
जो होता है उसे चाहते नहीं
जीवन की इस आपाधापी में
मिट्टी में दबे बीज की तरह अंकुर बन फूटता हूं
अपने को मौसम की हरियाली से जोड़ता हूं
आदमी जैसा जो करता है
वही, वैसा ही तो भरता है
उम्र-दर-उम्र प्रेम नवस्फूरण की चाह लिए
कितनी तरह से जोड़ता -तोड़ता है
हर किसी को नए मौसम की प्रतीक्षा रहती
आस्था ही विखराव का दर्द झेलती
भाग्य हमें मोहरा बनाकर स्वच्छन्द खेलती

कोलकाता
4.5.12

अन्ना का आंदोलन

अन्ना का आंदोलन साधारण गरीब जनता का आन्दोलन है और सरकार सच्चे मन और राष्ट्रीय भावना के साथ उन मांगों को पूरा करें जिससे इस देश का सर्वांगीण आर्थिक विकास और सामाजिक उत्थान हो सके।
राजनीति का अर्थ निःस्वार्थ जन हित की सेवा है। हमें हर हालत में आज देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक विश्रृंखलता से आम आदमी को बचाना है। लोकपाल लाना है।
                                                                                                                 - स्वदेश भारती

Tuesday 24 July 2012

25वां अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन, पुरी

रजत जयंती
25वां अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन
राजभाषा प्रदर्नी, विशेष हिन्दी प्रशिक्षण कार्यशाला
अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी, राष्ट्रीय कवि सम्मेलन एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम
पुरी (ओड़िशा) 2-4 अक्टूबर 2012

भारत की स्वतंत्रता की 65वीं वर्षगांठ  एवं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 143वीं जयंती के उपलक्ष्य में आयोजित 25वां अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन, अंतर्राष्ट्रीय साहित्य संगोष्ठी, विशेष हिन्दी प्रशिक्षण कार्यशाला एवं राजभाषा प्रदर्शनी।
पुरी (ओड़िशा में 2-4 अक्टूबर, 2012 को होटल तोशाली सैंड्स सभागार में विशेष हिन्दी प्रशिक्षण कार्यशाला द्वारा हिन्दी अधिकारियों एवं कार्यपालकों को राजभाषा के प्रचार-प्रसार हेतु कार्यकुशलता तथा व्यापक प्रिक्षण प्रदान करने की योजना।
राजभाषा प्रदर्शनी में सम्मिलित संस्थानों को दुरदर्शन, राष्ट्रीय मीडिया, समाचार पत्रों द्वारा व्यापक स्तर पर प्रचारित, प्रसारित, किया जायेगा।
भारत में अनेक मतावलम्बी एवं बहुभाषा-भाषी लोग रहते हैं और हिन्दी उनके बीच एक सम्पर्क भाषा का काम कर रही है। हिन्दी मात्र एक भाषा नहीं है, बल्कि यह हमारे राष्ट्र की एकता और अखंडता की सांस्कृतिक धारा है। यह समूचे राष्ट्र की हृदयवाणी है तथा करोड़ों लोगों में भावनात्मक संबंध बनाने की आत्मीय क्षमता रखती है। विश्व में विज्ञान और प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में आज तेजी से विकास हो रहा है। अतः हम वैश्वीकरण के इस परिवर्तित परिवेश में विश्वभाषा हिन्दी के उन्नयन के लिए सामूहिक रूप से नये उपाय, नए सीमांत अन्वेषण कर रहे हैं। राष्ट्रीय हिन्दी अकामदी, रुपाम्बरा द्वारा गांधी जयंती के ही दिन 25 वर्षों से लगातार अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन के आयोजन हो रहे हैं। यह राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के  लिए ऐतिहासिक प्रयास है।
देश के हिन्दी प्रेमियों का हार्दिक सहयोग अपेक्षित है।
नामांकन भेजने की अंतिम तिथि 08.08.2012 है।
विवरण प्राप्त करें - सचिव, राष्ट्रीय हिन्दी अकादमी, रुपाम्बरा, 3 जिब्सन लेन, कोलकाता - 700 069
टेलीफैक्स  033-22135102, ईमेल - editor@rashtrabhasha.com, (Mo.)09831155760

बधाई


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Thursday 19 July 2012

माननीया श्रीमती ममता बनर्जी,
                                          सादर नमन।

कवि द्विजेन्द्र लाल राय की 150वीं जयंती के अवसर पर राज्य के सूचना एवं संस्कृति विभाग की ओर से कवि की  कविता धन्य धान्य के नाम पर प्रस्तावित प्रेक्षागृह बनाने का माननीय मुख्यमंत्री का निर्णय सराहनीय है। परन्तु नामकरण ठीक नहीं है। कविता का नाम धन्यधान्य के स्थान पर धनधान्य उचित शब्द है। यह संस्कृत का शब्द है जो हिन्दी, बंगला, तेलगु, मलयालम, ओड़िया आदि भाषाओं में प्रयुक्त  होता आया है।  जिसका अर्थ है धन-समृद्धि। कवि गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जीवनानन्द दास ने भी धनधान्य शब्द का अपनी कविताओं में प्रयोग किया है। 
हार्दिक शुभकामनाओं सहित,
                                                                                                          आपका,

                                                                                                      स्वदेश भारती

प्रतिष्ठा में,
माननीया ममता वन्द्योपाध्याय
मुख्यमंत्री  
पश्चिम बंगाल सरकार
राइटर्स बिल्डिंग,
कोलकाता - 700 001


Friday 13 July 2012

तीन छोटी कविताएं

मेरे हिस्से की धूप
विखर गई रिश्तों में
जिन्दगी जिया भी तो
कई कई किश्तों में

जानने के लिए
बहुत कुछ सुना, देखा, जाना
जिस आदर्श को पिछली पीढ़ी ने दिया
उसी को जीवन का अभीष्ठ माना
और इस अहसास से आत्म विभोर हुआ
कि मुझे हर हालत में गन्तव्य तक है जाना

बहुत कुछ छोड़ दिया
खट्टे-मीठे दिनों से
सम्बन्धों से नाता तोड़ लिया
जलाया अन्तरमन का प्रदीप
उसकी रोशनी में आत्म-व्यथा को जिया


कोलकाता
28.04.2012


गन्तव्य-पथ का संकट
हम धीरे-धीरे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते गए
रास्ते में बनाते रहे संबंधों के सेतु नए-नए
चिन्तन-कैन्वश पर आंकते रहे स्मृतियों के विविध चित्र
और उन्हें आत्मबोध के रंगों से रंगते रहे
फिर भी खालीपन का अहसास भीतर कौंधता रहा
एकाकी मौन की उदासी छाई रही अन्दर बाहर
हृदय के अन्तराल में मचती रही हलचल
झेला उस दुखांत स्थिति का पीड़ाजनित पल
कितने सारे क्षण, मौसम बदलते रहे
और हम अपने गन्तव्य की ओर बढ़ते रहे

कोलकाता
29.4.2012



लड़कियां उम्र भर रोती हैं

लड़कियां उम्र भर दुख और सुख में रोती है
लड़कियां संबंधों का विषाक्त जीवन जीती है

प्रेम के लिए प्रेम का दुर्बोधि-पथ खोजती है
और रह जाती है अकेली, निरुपाय आंचल में बांधे स्मृतियों की थाती
मर्द नाम के भेड़िए से बचती बचाती

लड़कियां उम्र भर प्यार और आंसू का बोझ ढोती है
टूटे विश्वास की प्रत्यंचा पर वेदना के तीर चलाती
उत्श्रृंखला, स्वच्छन्द जीवन में सर्वस्व खोती है
लड़कियां जीवन पर्यंत रोती हैं।

कलकत्ता
30.4.12


कई मौतें मरता रहा
मैं कई मौतें मरता रहा
दुःख के सैलाब में
अपने को बचाता रहा
संवेदना का खाली घट भरता रहा
और फिर जी उठता
सपनों की दुनिया के अंधकार भरे घने जंगल से गुजरता
जिसके बीच से
गन्तव्य-पथ जाता है
मैं बार-बार कांटेदार झाड़ियों से हिरन की तरह फंसता, क्षत-विक्षत होता
व्यथा झर से कहरता रहा
कई मौतें भरता रहा...

कई कई बार गन्तव्य-पथ पर चलते हुए
अवरोध, ठहराव, बाधाएं आती रहीं
प्रत्येक संघर्ष में विजयी होकर आगे बढ़ता रहा
ऊपर पहुंचने की सीढ़ियां चढ़ता रहा
हृदय के खालीपन को
आस्था विश्वास और दृढ़ प्रतिज्ञा से भरता रहा
ऐसे में कई मौतें मरता रहा...
भले ही जंगल -पथ हो, नदी-सागर तट हो
हर डगर पर चलते हुए
तीव्र गति शाली तूफान, घनघोर वर्षा के बीच
हर सिंगार के फूल की तरह झरता रहा
कई मौतें मरता रहा।

कलकत्ता
01.05.12



अस्तित्व युद्ध- विद्ध
मैं ऊबड़ खाबड़ समय की भग्न सड़क पर
चल रहा हूं युद्ध विद्ध
युग की भीड़ भरी चिल्ला हटों के बीच
लोमड़ी की तरह चालाक
गिद्ध आंखों वाले
हृष्ट-पुष्ट, भ्रष्ट, धृष्ट, आत्म-लोभी
जन-शिकारियों की बस्ती पार करता
देख रहा कैसे कैसे छल, प्रपंच,
भ्रष्टाचार की कुर्सियों पर बैठे
मनुष्य के रूप में मांशाहारी गिद्ध
छीनते आमजन के मुंह से निवाले
रोज व रोज कितनी सारी हत्याएं
कितने सारे बलात्कार कर डाले

ऐसे में कविता
की अंगुली थामे चल रहा हूं
सपनों के विखरा व में नए-नए सपनों में पल रहा हूं
कैसे बनाऊं इस स्वेच्छाचारी माहौल में परम्परा के खंडहर पर
शब्द-ज्ञान-प्रणीत-प्रारव्ध-घर
कैसे करुं अपने छन्दों को नवताल-तान-सिद्ध
समय की टेढ़ी मेढ़ी सड़क पर चल रहा अस्तित्व युद्ध विद्ध


कलकत्ता
02.05.12



Thursday 12 July 2012

कवि की खोज

ओ कवि!
कब तक खोजत रहोगे नए मौसम में
नई नई कलियों के रंग, रूप, रस, गंध
प्रेम-आघात से मर्माहत वेनिस के गुस्साए सांड की तरह
सुख और आनन्द में आकण्ठ डूबे प्रेमियों पर आक्रमण करोगे
निराशा की आत्मघाती प्रवंचना का खाली घट भरोगे
ओकवि!
तुम शायद जानते हो
चन्द्रिमा की रोशनी अधखुली खिड़की से कूद कर
जब बाल विधवा के विस्तर पर पसर जाती है
अथवा लहराते सागर की ऊंची उठती लहरों में
चन्द्रिमा का प्रकाश आंख मिचौनी खेलता है
तब प्रेम अपने विविध उपादानों के साथ
हृदय को मथता है
नई-नई पीड़ा को जन्म देता है
या तो बहुत कुछ देता है
अथवा सब कुछ हर लेता है।
ओ कवि!
तुम यह भी जानते होगे कि
प्रेम जीवन की सबसे सुन्दर चाह है
रति-खेला के आह-शब्द में हृदय का
कितना कुछ मीठा-तीता स्वाद होता है
वही तो है जो हृदय के कलुष को धोता है
वही प्रेम जब अभागे का भाग्य बन जाता
बचे हुए जीवन की यत्रणा को ढोता है।

कलकत्ता
23.4.12


पृथ्वी और प्रकृति का औदार्य
दुःख से अधिक सुख हमें सालता है
दुःख से अधिक सुख में कई तरह की गांठें होती
जैसे प्रेम और उसके असंतुलन में
आत्म-सत्ता अपने गन्तव्य पथ से भटकती
इयत्ता की मर्यादा खोती...

फिर भी जीवन का प्रवाह प्रेम और दुःख के तटों के बीच
अपनी गति-अगति में बहता रहता
धरती का कण कण
मनुष्य के उत्थान और पतन की कथा का
मौन साक्षी बन
अतीत के खंड खंड हुए सपनों का दर्द सहता रहता
पृथ्वी और प्रकृति का औदार्य ही हमें पालता।

कलकत्ता
24.04.12


भटकाव
मैं भटक रहा हूं
पृथ्वी के चारों ओर अपनी आंखों
देखा है प्रथम और द्वितीय महायुद्ध का
भयावह चेहरा। जब किसी एक देश को
पांच देश चारों ओर से घेर ले
और दिन-रात आक्रमण करते रहे
ऐसे समय जान बचा कर भागते हुए भयाक्रांत
आम नागरिकों में मैं भी रहा हूं
और लाखों यहूदियों को संघातिक
गैसचैम्बरों में मृत्युदंड का पर्यवेक्षक रहा
मैंने कांगों, वियतनाम, अफगानिस्तान, ईराक
के नर संहार को देखा है
मां-बाप से विछुड़े रोते विलखते
भूखे असहाय शिशुओं,
कटे रक्त रंजित सैनिकों को देखकर
मर्माहत हुआ हूं।
मैं पृथ्वी पर भटक रहा हूं

समुद्र के आर पार, क्षितिजों के चारों और
शिखरों, घाटियों, वनों जंगलो,
मरुस्थलों , गांवो और नगरों का चक्कर लगाता
देखता रहा हूं मनुष्य की अभागी भाग्य का अंधकार
युद्ध के लिए पत्येक देश तैयारियां करता
नए-नए साज-सम्मान से लैस
सब समय युद्ध के लिए सदल बल तैयार
विकास, शांति और सुरक्षा के ऊपर मंडराते
काले बादल
देखता रहा हूं आकाश में उड़ते पंछियों के झुंड
नए-नए सघन वृक्षों के पातों के बीच
निर्मित करते नीड़
और मनुष्य अपने घर में ही होता पराया संकीर्ण
जातियों और धर्मों में बटा
लबादा पहने पुरानी सम्यता का जीर्णशीर्ण
विचारों का टकराव, सत्ता की आपा-धापी,
संस्कृतियों का विघटन देखता भटक रहा हूं।

कलकत्ता
25.4.2012


पूर्वजीय संदेश
मेरे पिता के पिता कहते थे -
तोड़ो मत
सबको जोड़ो
अपनों को अपनों से
जन-गण के सपनों से जोड़ो,
विस्तृत करो अपनत्व का आकाश
प्रेम, स्नेह बंधन तोड़ो
मन, भले के लिए मोड़ो
यही है जीवन का सार और आनंद-धन-अभिनंदन
आंतरिक अभिमत
अपने अभीष्ट गन्तव्य-पथ को तोड़ो मत
चलते रहे भले ही थके , पांव
छोड़ो मत अपनी मिट्टी, अपना गांव
अपने संस्कार
यही है जीव का सार

कलकत्ता
26.4.2012




विश्वास
जो करे राम करे
बाकी सब श्याम करे
जेसस, अल्लाह। नानक गुरु सब जगह है
कोई खोज नहीं पाता
उन सभी का कहना है एक वाक्य
जैसी करनी, वैसी भरनी
श्रद्धा ही भक्ति है
भक्ति ही पूजा
आस्था से बढ़कर
कोई भी काम न दूजा
इतना भर करे
कि समय से डरें
सारा जीवन खेलते रहे
पाप-पुण्य का खेल
पोषते रहे लोभ
बांधकर नकेल
जीवन भर कर्म-अकर्म का घट भरे
जो करें सब राम करें
बाकी का श्याम करे।

कलकत्ता
27.4.12



Wednesday 4 July 2012

मन की माटी में

मन की माटी में
कभी उगाता धान
कभी गेहूं, बाजरा, मकई
तरह तरह के अनाज
साग सब्जियां, फल
पाषाण हृदय, वक्रबुद्धि के आघात से
सूख जाती फसल
किन्तु धूप, हवा और बादल
देते मुझे जीवन-दान
दिन प्रति दिन
किसी न किसी विन्दु पर
चाहता हूं प्रकृति का अवदान
क्योंकि वहीं तो
प्रत्येक स्थिति में
करती है संकट से परित्राण
ऊब और खीझ भरा दिन चर्याओं के बीच
आस्था परिवर्तन में
हंसी और क्रन्दन में
प्राप्य और अप्राप्य की बांटा बाटी में
हृदय के प्रस्फुरण में अंकुरित होता नवचिन्हत
मन की माटी में...

                   कोलकाता 16.4.12

जीने का अर्थ

जीने का अर्थ
सबेरे से शाम और रात के अंधकार कि समाप्ति तक
कितने सारे शब्द उभर कर रिक्त हो जाते हैं
निजता की खातिर हमारी अस्मिता
तरह तरह के स्वांग करती,
रंग-बदरंग खेल दिखाती
कितनी सारी दिशाओं में, सिवान और शहरों में
तरह-तरह से भागती, विजयी होने के लिए
शताब्दी की सन्निपातग्रस्त काली सड़क पर
भागते भागते हांफती, बैठ जाती, सुस्ताती
यह शब्दों की दुनिया का एक पहलू है
एक क्रीड़ा स्थल है, दंगल है, प्रतिस्पर्धा है
हमारा अस्तित्व, छल, बल, कौशल जैसा है
उसे स्वच्छन्द भाव से दिखाना सामर्थ्य है
वास्तविक जीने में, समय-मंच पर, जन जन को
अपने को स्पष्ट तय; दिखाने में क्यों पर्दा है?

जैसा दिखता हूं वैसा नहीं हूं
जैसा हूं नहीं परन्तु दिखता नहीं वैसा
कौन देखे पाता है
किसी के भीतर
जैसा देखता है वैसा दिखता नहीं
भले ही जीवन की बाजी हार जाएं
किन्तु एक हृदय-दर्प है जो बिकता नहीं
शब्दों की रंग-विरंगी चूनर पहन
अभिव्यक्ति की सुन्दरियों
कविता के कालजायी मंच पर
करतीं चेतना का प्रदर्शन
किन्तु वास्तव में
करतल ध्वनियों से भरा माहौल वैसा नहीं होता
जो नकली मुस्कान के साथ
मन्द, तेज चाल चलती
शब्द-सुन्दरियां दिखाती अपने रूप का जादू
उनके भीतर वैसा नहीं होता
मौसम की भार सहता
एक अकेले वृक्ष की अन्तर-सोच
और हमारे जीवन के संघर्षों से आहत मन की
दशा का स्वरूप जैसा दिखता है
वैसा नहीं होता
जो शब्दों का जाल बुनता हूं। आस्था की नहीं के बीच
रोज व रोज नव चिन्तन की
बड़ी छोड़ी मछलियां पकड़ने का यत्न करता हूं
वह श्रम अस्तित्व के बाजार में बिकता है
अन्ततः शब्द भी छूट जाते हैं
उनसे जब संबंध टूट जाते हैं
तब दोनों मुट्ठियों में भर जाती समय सिक्ता
जैसा जो है क्या वैसा दिखता।

चन्द्रिमा एक रोटी
महानगर के बीच झोपड़पट्टी पर
पूर्णमासी की चंद्रिमा अपनी प्रभा विखेर रही थी-
झोपड़ी के बाहर भूखा बच्चा रोटी बनने की प्रतीक्षा कर रहा था
उसने चांद को देखा, मां से कहा -
देखो मां आकाश में कितनी अच्छी
बेशन की रोटी अटकी है
उसे लाओ न मां, बड़ी भूख लगी है
मां ने आंसुओं को आंचल से पोंछते हुए
धीमें स्वर में कहा - बेटा, वह चांद मामा हैं
और रोटी अपने घर ले जा रहे हैं।

अंतहीन प्रतीक्षा

प्रतीक्षा का कभी अंत नहीं होता
एक प्रतीक्षा थी कि बड़ा होकर
सर्वश्रेष्ठ शिक्षा ग्रहण कर
अपने रहने लायक धन कमाऊंगा
और एक प्रतीक्षा थी
कि अपना घर बनाऊंगा, ओ सजाऊंगा
माता-पिता को हर तरह से सुख दूंगा।
एक और प्रतीक्षा थी
कि जीवन साथी को प्रेम के अतिरिक्त
वह सब दूंगा जिसके लिए
औरत प्रत्येक सुबह नए नए फरमान देती
यह चाहिए, वह चाहिए
हंसी और आंसू का कितना सारा खेल
कितनी बार देखा है
प्रतीक्षा करता रहा कि दिन अच्छे फिरेंगे
सुख संसाधन के जो फल
श्रम साध्य-वृक्षों की डालियों से कर गिरेंगे
उन्हें सबके साथ बांटकर खाऊंगा
किन्तु ऐसी तूफानी हवा आई
कि उसके निर्मम हाथों से फल ही नहीं
वृक्ष ही जड़-विच्छिन्न हो गए
प्रतीक्षा है कि फिर से पौधे बड़े हों
उनकी डालियों में फल लगे, पके
और नई सोच के वन्दे खाएं, सुख पाएं
यूं तो प्रतीक्षा का कोई अन्त नहीं होता
एक के बाद दूसरी, तीसरी, चौथी
और ऐसी कितनी ही प्रतीक्षाएं करता हूं
दुखिना-सुखिना की आलोछाया में
नए नए शब्दों से हृदय की खाली झोली भरता हूं।

                                                 कलकत्ता 
                                                 20.04.12




गर्मी से बचने के उपाय


घर बाहर भीतर गर्भ तापतपी हवा
अनाछूत घुस आती है
शरीर की नसों में बहते रक्त को उबाल लेती है
मन में बेचैनी बढ़ाती है
झंझावात की बाहों में बाहें डाले
गर्म हवा झौस जाती है
बाहर दोपहरी धू धू कर छोड़ रही विश्वास
सूख रहे बगिया के पेड़, बेला, चम्पा, पलाश
गर्मी की तपिस से क्या निस्तार है
फ्रिज हो या मिट्टी का घड़ा हो
ठंडा पानी पियो। फेरी वाले से
आइस्करीम लेकर खाओ। ठंडा पेय पिओ
बस इसी तरह पसीना पोंछते हुए जिओ

इसके अतिरिक्त भीषण गर्मी से बचने के लिए
क्या क्या कोशिशें होती हैं - दरवाजे,
खिड़कियां बन्द करो, गर्म हवा घुसने न पाए
पानी के छींटे फर्श पर, विस्तर पर मारो
पंखा चलाओ, बेना से काम लो
और कुछ न हो तो अखबार से करो हवा
गर्मी से बचने की बस यही है दवा

                                                 
                                                 कलकत्ता 
                                                 21.04.12




 आजादी की लड़ाई
देश में आजादी की दूसरी लड़ाई की तैयारी हो रही है 

झूठ-फरेब, आनियंत्रित भ्रष्टाचार के विरुद्ध
सिवान से लेकर नगर तक नव जागरण का बीज जनमानस बो रही है
जीर्म-शीर्ण कपड़ों में निर्धन बच्ची पोखर के किनारे
टूटे-फूटे बर्तन धो रही है
आजादी के ढूंढ पर बैठे कौवे पंचायत कर रहे हैं
भ्रष्ट मान सून से बचने के तरीके खोज रहे हैं
देश की तकदीर कालेधन के विस्तार पर बेपर्द
आराम से सो रही
नयनों में उमड़ता इतिहास का दर्द