हरे भरे कटते वृक्ष का आहत
मौन
आर्तनाद भीतर तक कर जाता
असहाय, व्यथित
उसके फूलों, फलों, हरी पत्तियों, डालों को
कुल्हाड़ी की चोट से
अस्तित्वविहीन करता
आदमी का निष्ठुर, ममत्वहीन हाथ
करता हरियाली पर आघात...
जब पेड़ अंकुरित होकर बड़ा
हुआ सघन
अपनी छाया से राहत देने लगा
पंछियों के घोंसलों के लिए
देने लगा डाल की छाया
फूलों, फलों से हमारी कामना की रिक्त झोली भरता
आज वही हो गया अनाथ...
हाय! हे वृक्ष तुम्हारी बस
इतनी कहानी
तुम देते सर्वस्व, यहां तक की अपना जर्राजर्रा
चुपचाप झेलते रहते मनुष्य की
नादानी
काटे जाते हुए तुम्हें समझ
में आती है अपनी औकात।
17 अगस्त, 2012
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