Tuesday 18 December 2012

अपनत्व-बंधन


मन कभी अपनत्व-बंधन में बंधा
आह्लादित, प्रमुदित, आनंदित मयूर की तरह नाचता..
मन कभी उदास, निराश, एकाकी, विपन्न
संत्रास झेलता फिर भी सपने सजाता...

मन के हजार रूप मैने देखे हैं
कभी वह बांधता हृदय-जाल में आकांक्षा की सोन मछलियां
कभी आगोश में बांधता अनाघ्रात कलियां
वह प्रेम-रोगी जीवन पर्यन्त प्रेम के अध्याय बांचता...

कभी नीरस, दुःखदैन्य के अंधकार में डूब जाता
कभी अकल्पनीय सुख-माया चित्र आंकता...

सौन्दर्य और प्रेम से भरता नहीं उसका मन
जगाता विगलित आश से देता नई आश
जब तक जीवन है छूटता नहीं प्रेम, सौन्दर्य
जब तक दम में दम है सांस में सांस
नहीं छूटता प्रेम का उच्छ्वास।

                                                                  22 अगस्त, 2012





शब्द - खेल

काव्य की ऊंची शिला पर बैठा
मैं शब्दों से खेलता रहा
तरह-तरह के भाव-संकट झेलता रहा...

शब्दानुराग कितना कठिन होता
वही तो दुख-सुख का उत्स होता
मैं प्रेमानुरागी शब्दों का खेल खेलता रहा...

कभी प्रेमार्थ जनित शब्दों को अपनाया
कभी उसके अर्थ को
और उसका विनार्थ झेलता रहा

                                                                  23 अगस्त, 2012






नए-नए अर्थ गढ़ते

चलो शब्द से शब्द बनाएं
फिर उसके अर्थ से और भी नए-नए अर्थ बनाएं
शब्द चाहते हैं बदलाव अर्थ से लगाव
चंचल चतुरचित्त हाव भाव से
अथवा उत्तेजना के प्रभाव से
या युग के बदलाव से
मनुष्यता के सर्जन के समभाव से
गढ़ना है संप्रीति के स्तम्भ-सेतु
जिस पर चल सके ऐसे लोग
जो शब्दों की करते हैं तस्करी
और उसी से करते हैं हर संकट में अपना बचाव..

श्रुतियों, उपनिषदों, धर्मग्रन्थों में
शब्दों से सर्जित हुए महानता के पैमाने
अथवा अधोगति के बदल गए माने
समय के साथ चलते हुए
पल-पल शब्दों के अर्थ बदल जाते
लोग कमर-बद्ध नाचते रहे
जलाकर बुद्धि का अलाव...

                                                                  24 अगस्त, 2012

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