हे चित्त, अशांत मन में उभरती हैं कितनी सारी भ्रांति
कहां किस जगह ले जाऊं तुम्हें
जहां मिलती हो शांति
तुमने अपने सुख के लिए क्या नहीं किया
लोभ-लाभी-युद्ध में शरीक हुए
कितने सारे मोर्चों पर संघर्ष किया, हारे, जीते
अपने से अधिक दूसरों को जिया
रचते रहे कितनी सारी नव युगान्तर-क्रांति
हे चित्त, तुम अपने आपको बुद्धिमान समझते रहे
विद्या बुद्धि के मिथ्याभिमान में
शास्त्र और महापुरषों के मार्गदर्शन की
अवहेलना करते रहे
विविध भोगों में रम कर
अपने को नष्ट करते रहे
फैलाते रहे जन-जन में अशांति
ऐसे माहौल में अपने को युग के साथ विलय न
करना
बुद्धि, बल, कौशल का ह्रास है
यही मनुष्य का सर्वनाश है।
हे चित्त , अपने को दृढ़ निश्चयी करो
अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए करो या मरो
अन्तर-चक्षु से देखो
प्रकृति कितनी सुन्दर है
पंचभूत के कितने सारे नवान्न प्रिय आयाम
हैं
जो जन-जन, पशुपक्षी में विद्यमान हैं
ब्रह्मवेत्ताओं में भी इसी से सभी कर्म
क्रियावान है
शांति का महामंत्र मन के अन्दर है
तो ईश्वर की सत्ता व्याप्त है हमारे भीतर
बाहर
एकाग्रबुद्धि से अनुभव करो महाशांति
महाशांति।
25 अगस्त, 2012
औरत की महिमा
औरत जीवन भर प्रेम का रंगीन चश्मा लगाती
और उसी से दुनिया देखती
अपने भीतर सपनों के अनगिन घर बनाती
कुछ घर तोड़ती जोड़ती
एक सहारा खोजती...
औरत अपनत्व की चाह में भटकती
हृदय में चाहत का प्रदीप जलाए
कई-कई तरह से अपना गन्तव्य मोड़ती
औरत एक फूल की तरह मन की डाल पर फूलती
किन्तु अपनी छठा, पराग-गंध
अधिक अवधि तक नहीं सहेज पाती
औरत एक अजूबा स्वप्नदर्शी लोभ लाभी होती
अपने में ही, अपनों के लिए जीती
अपना जीवन दूसरों के लिए न्यौछावर कर देती।
27 अगस्त, 2012
शरीर के खुलेंगे ग्यारह द्वार
मेरे शरीर के ग्यारह द्वार खुले थे
अब एक घ्राण-द्वार बन्द हो गया है
इसी तरह सभी द्वार क्रमशः बन्द हो जाएंगे
रह जांगा चारो ओर से बंधा विंधा
उस क्षण कोई भी खोल नहीं सकेगा तन-मन-कपाट
भूल जाऊंगा अतीत, वर्तमान, भविष्य
समय स्थिर दुर्गम होगा जीवन,
जब नाक से प्रवेश करती
हवा भी हो जाएगी गति-शून्य, बंद
बुद्धि जो हजार हजार योजन की यात्रा
क्षण भर में कर लेती थी, हो जाएगी कुन्द
सब कुछ अंधकार में डूब जाएगा
मेरे इर्द-गिर्द का संसार
आंखों से ओझल हो जाएगा सौन्दर्य, प्यार
उड़ जाएगा कोमल, स्निग्ध, कमनीय, सरस मराल
सूखेगा जीवन-पुष्प
खुलेंगे नहीं ग्यारह द्वार।
28 अगस्त, 2012
आत्म-संधि-पत्र
प्रति दिन संधि-पत्र लिखता हूं आलो छाया
के बीच
मस्तिष्क के कागज पर कितने सारे आख्यान
आत्मीय संबंध कथा अथवा टूटने विखरने का
आघात प्रतिघात
अपना या औरों का बखान
लिखता अपने सुखों को हृदय से भींच...
संधिपत्र लिखता हूं किसी भी क्षण, कहीं भी, कभी भी
सबेरा हो या शाम की स्वर्णीम-रेखा
जो क्षितिज में नव-रंग-वितान बनाती है
हम उस प्रकृति-चित्र से ग्रहण करते बहुत
सारे प्रभाव
भाव-विभाव
और ममत्व की सूखी फसल को अश्रुजल से
सींच..
इसी तरह संधि-पत्र लिखता रहूंगा आत्म
संघर्षों के बीच
29 अगस्त, 2012
अदृश्य का मनन
मैं आश्रित हूं कहीं न कहीं उस अदृश्य
शक्ति पर
जिसके इशारे मात्र से निकलते हैं
शब्द-स्वर
और कर्म-अकर्म के होते सारे क्रिया क्लाप
उसी शक्ति से संचालित होता
जीवन का आनन्द-मंगल अथवा प्रतिशोध अभिशाप
जन-जन के सुख-दुख को संचालित करता
वह कौन है सर्वत्र, सब समय रहता
हमारे भीतर विद्यमान
उसी के हाथों बंधा है आदमी का समस्त कर्म
धर्म, आस्था-अनास्था
उसी के संकेत पर जीवन होता सुखी अथवा
मृयमान
आओ, हम मिलकर उसी शक्ति का
करें चिन्तन-मनन, करें समर्पित सर्व कर्म-धर्म
आनन्द, व्यथा भर
सुने अनहृद-आनन्द-गान-स्वर
30 अगस्त, 2012
प्रेम की स्थिति
सुख तोड़ता है
और दुख जोड़ता है
यह मन की अनन्तकथा है
जीवन के प्रारंभ से अंत तक
अपन्तव के लिए
अपने को कई रास्तों की ओर मोड़ता है।
अप्रेम का सान्निपात ग्रसता है
प्रवंचना से डरता है
हर हाल में प्रेम खालीपन को भरता है।
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