हम यूं तो मनुष्य हैं
किन्तु मानव धर्म कहां निभा पाते हैं
जंगल, मरुस्थल, पर्वत, पठार, तलहटियों,
नदियों, सागर के उद्गम-विन्दु पर क्षितिजों के आर पार चक्कर लगाते
कितनी बार
अपनी नावों में
आस्तित्व-प्रवाह में
तट की ओर बढ़ते अथवा
तूफानी लहरों में डूबते
कितनी ही बार
हारी मानते
एकाकी पन से ऊबते
संबंधों की रेत
मुट्ठियों में भरते
किन्तु मुट्ठियों की रिक्तता सहते
अनन्त-पथ पर आगे बढ़ते चलते
हम मनुष्य हैं
अपने आस-पास
नई दुनिया बसाते
राग-विराग बद्ध
निजता का नीड़ सजाते
हम मनुष्य हैं
अपने तईं अरमान जुटाते सयत्न
हम मनुष्य हैं
7 दिसम्बर 2012
समाज के कैन्वश पर
संसद से सड़क तक
सच की राग अलापते
झूठ की ढोल बजाते
और शोभायात्रा बन जाते
इस तरह झूठ औ सच के बीच
हम अपना वर्तमान बनाते
किन्तु समय वह सब कुछ छीन लेता
जिसे झूठ और फरेब से पाया था
हम अपने अहंकार की वंशी बजाते
नाचते गाते, दूसरों का हक मारते
लाभ लोभ के अजब करतब दिखाते
देश प्रेम और स्वाभिमान का गीत गाते
समाज के कैन्वश पर
हविश के नंगे चित्र बनाते
अहम के हाथिए पर लाभ लोभ के रंगा से
खंडित अस्मिता की तूलिका से रंगते जाते
8 दिसम्बर 2012
ओ पंख - आकाशी पाखी
ओ पंख-आकाशी पाखी
उन्मुक्त गति वाहक, क्षितिज पंथाचारी
विविध ऊंचाईयों, क्षितिजों में विचरण करने वाले
अपने गीत-स्वरों का प्रसाद
जनजन में बांटने वाले
तुम नापते हो अपने पंखों से आकाश की ऊंचाइयां
तलाशते हो वह सुरक्षित, हरित-भरित आम्रकुंज
अथवा पसंदीदा वृक्ष
जिसकी डाल पर अपना नीड़ निर्मित कर सको
ओ स्वच्छन्द, अपने पंखों से
हवा का बहाव नापने वाले हरियाली, नवान्न-अनुरागी
तुम पूरी करते पंखों की थिरकन पर
अपनी स्वप्नाकांक्षा
तुम प्रत्येक राजप्रासाद की भव्य बगिया में
अपना नीड़ बनाते रहे संयुक्त अथवा अकेला
देखते रहे राजवैभव, रंगत, बदलते हुए
मुकुट और सिंहासन-खेला
बनते रहे युगान्तर कारी समय साक्षी
ओ आकाश-यात्री पाखीं।
तुम अपने गीतों में
इतिहास का मर्मभेद स्वर मुद्रित करते
सभी स्वार्थों से मुक्त
प्रेम-राग से जन जन का मन हर्षित करते
कौन जाने तुमाहारी भाषा और उसका मर्म
कौन जाने तुम्हारी आंखों देखा धर्म-अधर्म
हरहाल में तुम हो निरानन्द, प्रेम, अभिलाषी समय साक्षी,
चेतना के क्षितिज में लगाते चक्कर ओ पाखी।
9 दिसम्बर 2012
किन्तु मानव धर्म कहां निभा पाते हैं
जंगल, मरुस्थल, पर्वत, पठार, तलहटियों,
नदियों, सागर के उद्गम-विन्दु पर क्षितिजों के आर पार चक्कर लगाते
कितनी बार
अपनी नावों में
आस्तित्व-प्रवाह में
तट की ओर बढ़ते अथवा
तूफानी लहरों में डूबते
कितनी ही बार
हारी मानते
एकाकी पन से ऊबते
संबंधों की रेत
मुट्ठियों में भरते
किन्तु मुट्ठियों की रिक्तता सहते
अनन्त-पथ पर आगे बढ़ते चलते
हम मनुष्य हैं
अपने आस-पास
नई दुनिया बसाते
राग-विराग बद्ध
निजता का नीड़ सजाते
हम मनुष्य हैं
अपने तईं अरमान जुटाते सयत्न
हम मनुष्य हैं
7 दिसम्बर 2012
समाज के कैन्वश पर
संसद से सड़क तक
सच की राग अलापते
झूठ की ढोल बजाते
और शोभायात्रा बन जाते
इस तरह झूठ औ सच के बीच
हम अपना वर्तमान बनाते
किन्तु समय वह सब कुछ छीन लेता
जिसे झूठ और फरेब से पाया था
हम अपने अहंकार की वंशी बजाते
नाचते गाते, दूसरों का हक मारते
लाभ लोभ के अजब करतब दिखाते
देश प्रेम और स्वाभिमान का गीत गाते
समाज के कैन्वश पर
हविश के नंगे चित्र बनाते
अहम के हाथिए पर लाभ लोभ के रंगा से
खंडित अस्मिता की तूलिका से रंगते जाते
8 दिसम्बर 2012
ओ पंख - आकाशी पाखी
ओ पंख-आकाशी पाखी
उन्मुक्त गति वाहक, क्षितिज पंथाचारी
विविध ऊंचाईयों, क्षितिजों में विचरण करने वाले
अपने गीत-स्वरों का प्रसाद
जनजन में बांटने वाले
तुम नापते हो अपने पंखों से आकाश की ऊंचाइयां
तलाशते हो वह सुरक्षित, हरित-भरित आम्रकुंज
अथवा पसंदीदा वृक्ष
जिसकी डाल पर अपना नीड़ निर्मित कर सको
ओ स्वच्छन्द, अपने पंखों से
हवा का बहाव नापने वाले हरियाली, नवान्न-अनुरागी
तुम पूरी करते पंखों की थिरकन पर
अपनी स्वप्नाकांक्षा
तुम प्रत्येक राजप्रासाद की भव्य बगिया में
अपना नीड़ बनाते रहे संयुक्त अथवा अकेला
देखते रहे राजवैभव, रंगत, बदलते हुए
मुकुट और सिंहासन-खेला
बनते रहे युगान्तर कारी समय साक्षी
ओ आकाश-यात्री पाखीं।
तुम अपने गीतों में
इतिहास का मर्मभेद स्वर मुद्रित करते
सभी स्वार्थों से मुक्त
प्रेम-राग से जन जन का मन हर्षित करते
कौन जाने तुमाहारी भाषा और उसका मर्म
कौन जाने तुम्हारी आंखों देखा धर्म-अधर्म
हरहाल में तुम हो निरानन्द, प्रेम, अभिलाषी समय साक्षी,
चेतना के क्षितिज में लगाते चक्कर ओ पाखी।
9 दिसम्बर 2012
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