Friday 2 March 2012

ऋतुधर्मी मनुष्य

शिशिर वर्फीला हाथ मिलाकर चला गया
नंगे वृक्षों ने नवपल्लव से तन ढक लिया
कलयुगी भंवरे प्यासे चक्कर लगा रहे वन प्रान्तर
कलियों की गलियों में गूंज रहा उनका आहत-स्वर
उन्हें इस तरह परिवर्तित ऋतुओं और समय-छन्द के विविध आयामों का समझकर
सौंदर्य और प्रेम की शास्वत धारा में अवगाहित करना है
जन-पीड़ा से जुड़कर गाना है
नव युगधर्मा-गान समवेत स्वर
कल मुंही भ्रमर सौन्दर्य की सुगन्धित को नष्ट मत कर
नये रूपों को आत्म-प्रियता देना ही तुम्हार कर्म है
यही बदलते हुए जीवन और समय का धर्म है।

वसन्त-आगमन से प्रेमियों का हृदय धड़कता है
किन्तु शहरी सभ्यता में सने बाबुओं के लिए
बसन्त एक मौसम-परिवर्तन है
उनकी दिनचर्चाओं और सोच में बदलाव नहीं आता
उनके लिए अहम नहीं है कि समय कब, कैसे बदल जाता
सौन्दर्य और प्रेम का उपहार लिए प्रकृति खड़ी मुस्काती है
प्रेम की अन्तर-धारा में बहना, हृदय-सागर में उठती
लहरों के आलिंगन में बंधना ही जीवन का सुख है
फिर मनुष्य क्यों रहता अलग थलग
और समझता है जीवन में निरा दुख है।
                               
                                                          18.2.2012

एक काली छाया मंडराती है हमारे इर्द गिर्द
आक्रामक-पंख पसारे
तोड़ती हृदय-सेतु और सपने न्यारे
जो बुने थे मस्तिष्क के करघे पर
जीवन के अंतिम पड़ाव तक
निराशा और असफलता का विलय कर
एक काली छाया करती सार्जित अंधियारे...

जीवन में पग-पग कितना कुछ बदल जाता
मन के अभयारण्य में कोई भटक नहीं पाता
यद्यपि कि हरियाली और सौंदर्य से
तरह-तरह के फूलों की सुगंधित से
मनोरम बनाता है पूरा वातावरण
उस सब की कल्पना से
सौन्दर्य और सुवास से
भरा था अन्तरतम जीवन के प्रथम चरण में
धान की हरियाली और अमराई के बीच
प्लिपथ पर धर दुआरे...

कई बार जीत के नगाड़े बजे थे
नगर की अट्टालिकाओं से प्रतिध्वनित होकर
मस्तिष्क के आरपार गूंजे थे
कितने सारे संघर्ष-चित्र बने और मिटे थे
परन्तु प्रवंचना और छल के बाज पंख पसारे
दुर्दमनीम आतंकधन करते रहे
घिरती रही काली छाया
जब-जब जीवन की आपाधापी में पंथ हारे...

                                                     20.2.12

अज्ञेय संगोष्ठी-मुझे निमंत्रण नहीं मिला। जो अज्ञेय पर अंगुली उठाते थे। उन्हें गालियां देते थे ऐसे कई चेहरे आमंत्रित थे।

कितनी ही बार
कितने तरीके से
मैने बनाए स्वप्न-जाल
और उसमें उलझता गया
कई बार जाल टूटे अथवा बेरहमी से तोड़े गए
और मैने फिर फिर से बनाए स्वप्न जाल नए-नए
चाहे दिन का प्रकाश रहा
अथवा निविड़ अंधकार
कितनी ही बार....

कई कई तरह से पथ को बदला
कभी मरुथल के बीच
कभी बर्फाच्छादित पर्वतों के तंथ पथरीले पथ पर
कभी नदी तट
तो कभी-सागर-तट पर
कभी अरण्य-वीथियों के बीच
यात्रा करते हुए
मुट्ठियां बांधते हुए नए प्राण किए
दिन-प्रतिदिन
जब उग आया प्रभात सुनहरा-रुपहला
फिर दिनचर्चाओं के बीच भोगा असहृय निष्कारुण
प्रवंचना का निष्ठुर प्रहार
कितनी ही बार...

स्मृतियों का प्रदीप जलाए रखा
बनाया जन-जन को आत्मीय सखा
किन्तु अपनी आत्म छलना से उन्होंने
उस दिए को बुझा दिया
अनात्म बोध घिर आया असाध्य दुर्निवार
कितनी ही बार...।

                                             21.02.12



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