Wednesday 14 March 2012

हमारे भीतर रेत-तट

सदियां, युग गुजर जाते हैं एक के बाद एक
मौसम परिवर्तन हो
अथवा सम्बन्धों का व्यामोह, आत्मबंधन
अथवा विछोह
सभी स्थितियों में प्रकारान्तर से मनुष्य छला जाता है

समय-महासागर-तट से
अस्तित्व की लहरें टकराती
अपने हाथों में स्मृतियों के रूप में
शंख, सीपियां, मोतियां, विविध उपादानों से भर
उद्वेलित मन से
चेतना-तट पर समर्पित कर
खाली हाथ वापस लौट जाती...

रह जाते रेत कण अतीत बनकर
लहराता हमारे भीतर. बाहर अभिव्यक्ति का समुद्र
चिन्तन की हथेलियां थामें,
कभी प्रगाढ़ आलिंगन बद्ध
मानव इतिहास की विविध परिवर्तनशील स्थितियां,
रुपाकार छवियां बनकर
हमारे भीतर कर्म की ज्योति जलाते हैं
यूं ही, यूं ही सदियां, युग गुजर जाते हैं।

                                                             भिलाई 6 मार्च 2012




युग परिवर्तन
युग, सदियां गुजर जाते हैं
एक बाद एक
मौसम परिवर्तन हो अथवा
सम्बन्धों का आत्मिमलन या विछोह
सभी परिस्थितियों में
प्रकारान्तर से मनुष्य बदलता है
मानव-महासागर-तट पर
समय के साथ ढलता है
अस्तित्व की लहरें कभी उद्वेलित, आक्रामक,
कभी शान्त तटस्थ प्रच्छालित करती
अपने हाथों में थामें अतीत की स्मृतियां
शंख, सीपियां, मोतियां, विविध रत्न लिए आती
और आह्लादित मन से
चेतना-तट को समर्पित कर लौट जाती
रह जाते हवा और धूप में तपते, सूखते
नीरवता के रहस्य-द्वार खोलते रेत कण
सहेजते तट की मर्यादा क्षण-प्रति-क्षण
लहराता रहता वर्तमान का सागर
मन में छिपाए ढेर सारी व्यथा
उकेरता अतीत की युद्धक-शांति-कथा
लहरों की हथेलियां थामें
आलिंगनबद्ध कहता जीवन सत्य
कि मनुष्य के भीतर भी एक समुद्र लहराता है
कर्म की लहरें आलोछाया के बीच
हृदय-तट से टकराती हैं और
स्मृतियों की रेत छोड़ जाती हैं
अतीत से नव संस्कृतियों के गहरे नाते हैं
जब भी सदियां, युग गुजर जाते हैं।

रायपुर से कलकत्ता 7 मार्च, 2012

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