Saturday 3 March 2012

पृथ्वी का प्यार

मैं जीवन के मायावी खेल का एक पात्र हूं
कभी कठपुतली बन
कभी नाच निदेशक बन
प्रकृति के विविध उपादानों से सजाता रागरंग मंच

सजाता नाट्यशाला
प्रकृति की हरियाली, फूलों, हरे धान की सुषमा
वन-प्रान्तर का मुक्त उल्लास
मनुष्य की हंसी, आनन्द, प्रेम और संघर्ष
सब का करता मेल
खेलता प्रतिपल खेल

यह नाटक अन्त है
मेरे बाद भी चलता रहेगा
जब तक पृथ्वी के गर्भ में
मनुष्य के लिए प्यार, करुणा, त्याग, समर्पण
नव-युग बोध पलता रहेगा।

                                       24.2.2012



पृथ्वी की आत्मीयता
समय का चक्र चलता है प्रतिपल
पृथ्वी के एक अक्षांस से प्रारम्भ होकर
दूसरे, तीसरे, चौथे अक्षांशों तक
अंतरिक्ष में तारे मनाते हैं आनन्दोत्सव
किन्तु पृथ्वीपुत्र आपस में लड़ते झगड़ते
नफरत की आग में जलते
बिता देते हैं जीवन हाथ मलते
विभाजित मानसिकता में पलते
स्वप्न-हन्ता बनकर जीते
ढोते अपने कन्धों पर प्रतिहिंसा, दुराव, लोभ और छल..

पृथ्वी से छिपा नहीं पाते अपने कुकृत्य
अपने और दूसरों के जीव में विष घोलते
समय के पीछे घिसटते, भागते, गिरते पड़ते नष्ट होते
पृथ्वी की गोद में समा जाते
किस कदर भूकम्प, तूफान
दैवी प्रकोप हमारे अस्तित्व को विनष्ट करते
उस समय मनुष्य कितना लघुतम, असहाय, अशक्ती व होता
पृथ्वी का उद्दाम कहर झेलता
अपने ही शव को अपने कंधे पर ढोता
कैसे विलुप्त हो जाता उसका लोभ लाभी अहंकार, छल..
उस समय भी
पृथ्वी अपनी करुणा, अपनी ममता से राहत का स्पर्श देती
नए-नए परिवर्तनों से नव्यतम जीवन-अस्तित्व के संदेश देती
हे पृथ्वी पुत्र! यह धरती तुम्हारी है
जियो सुख से, चखो आनन्द-फल...

                                            25-26.2012


जीवन के बहुआयाम
संबंधों की सतता से भरा यह जीवन
जब प्रेम-प्रवंचना का इतिहास बनता है
हमारे दुखों का अंधकार अपना जाल फैलाता है
चारों ओर अपारदर्शी, असहनीय अंतरव्यथा का कुहासा
घिरता है। खंडित संवेदना का वितान तनता है।
तिरता है आंखों में अकेलेपन का अहसास
पुनसर्जित होती है आशा-प्रत्याशा
जलता है अपनी ही आग से
पल्लवित पुष्पित प्रकल्पित मधुमास
वही होता है अनपेक्षित पराजय का क्षण
सिसकता सुवकता मौन आत्म-क्रन्दन...
किन्तु यही अन्त नहीं होता
जीवन यात्रा-क्रम अन्तिम पड़ाव पर पहुंचकर
फिर से प्रारम्भ करता है नई दिशाओं, नई राहों,
नई नई मंजिलों की खोज
मनुष्य के लिए करता त्याग, बलिदान, सर्वस्व अर्पण
बनाने रखता मनुष्यत्व का ओज
आस्था और विश्वास के साथ बढ़ता है आगे
अंतरिक्ष में दूर दूर फैलाता अपना साम्राज्य
धऱती का ओर-छोर करता जय
मनुष्य अपने संकल्प से, कर्म से बनता ईश्वरमय
बसाता आनन्द-भुवन अपने भीतर-बाहर
करता समष्टि के लिए आत्म-समर्पण
प्रकृति के विविध आयामों से भरा जीवन.....

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