Saturday 24 March 2012

यात्रा पथ

बहुत सारे असाध्य और दुर्गम रास्तों से
चलते हुए मैंने अपनी यात्रा संयोजित की
अनिष्ट सम्बन्धों से नाता तोड़कर
भवितव्य के साथ अपने को जोड़कर
आगे बढ़ता रहा, सफलता की
एक-एक सीढ़ियां चढ़ता रहा
बस अतीत की स्मृतियों से मुक्त नहीं हो पाया
और उन संदर्भों से जिनसे मन लगाया
प्रेम जैसी असाध्य बीमारी से बचता, बचाता
समय-सागर- तट पर चलता रहा
कभी तेज कदमों से चलते, कभी थककर बैठ जाता
प्रकृति के विविध सौंदर्य देख आह्लादित मन गाता
और अपनी यात्रा पर आगे बढ़ जाता.....

कभी सोचा नहीं था कि यात्रा में पग-पग पर
कितने विघ्न, कितनी कठिनाइयां आती हैं
परन्तु, अन्धकार भरे सघन वन, मरुथल,
ऊंचे, नीचे कंटकाकीर्ण पथ को पार कर
चलता रहा आशा और विश्वास के सहारे
श्लथपग, थक हारा, क्षत-विक्षत
प्रवंचना की कंटीली झाड़ियों से उलझते, बचते बचाते
अपनी मंजिल की ओर बढ़ता रहा...
समय की सीढ़ियां चढ़ता रहा...

                                             14.3.2012
अभियान
सावधान सावधान सावधान
मेरे रास्ते से हट जाओ
समेट लो अपने तामझाम
मेरे रथ के घोड़े शक्तिशाली, चपल, चंचल है
उन्हें दुर्गम, कंटकाकीर्ण पथ पर भागने का
अपने को बचाते हुए सुरक्षित
गन्तव्य की ओर तेजगति से जाने की समझ है
कर्म पथ पर मंजिल की ओर आगे बढ़ने की कूबत है
भले ही पथ के अवरोधों को हटाने कोई आए, न आए
मेरे पांचों घोड़े निर्बाध गति से चलते रहे हैं
भाग रहे हैं बिना कोई व्यवधान
सावधान सावधान सावधान
मेरा रथ द्रुतगामी है जो बिना ठहराव के
चलता जा रहा है समय की टेडी मेढ़ी पगडंडी पर
आदमी के विरुद्ध खडयंत्र करने वाले
रास्ते से हट जाओ, लोभ लाभ की खिड़की बंद करो
अपने मनसूबे की खिचड़ी कहीं और पकाओ
मेरा रथ चारचाक मजबूत है
मैं उसकी तथा पांचों घोड़ों की देख रेख करता हूं
रथ के पहियों को सक्रिय रखने के लिए
हर तरह से रख रखाव करता हूं
यह रथ मेरे विजय अभयान का सशक्त श्रोत है
पंच अश्व के अदम्य साहस से भरा
युग की नवता से ओत प्रोत है
यही तो समय के साथ चलेंगे
और साकार करेंगे विजय-अभियान
सावधान सावधान सावधान
                                       15 मार्च 2012


जीवन को बार-बार दोहराता हूं
मैं अपने जीने को बार-बार दोहराता हूं
जो कभी छन्द बद्ध तो कभी छन्दहीन कविता बन जाता है
समय के ताल पर निजता का गीत गाता हूं...
बाहर आदमी का संघर्ष जीता हूं
और भीतर आत्मबोध के प्याले में
संसृति का विष पीता हूं
मैं बार-बार अपने को जगाता हूं...
बाहर आजादी और खुशहाली से लड़ता हूं

अपंग, अपाहिज नारों पर
आजादी का बेसुरा गीत गाता हूं...

                16 मार्च 2012


आदमी का संघर्ष
मैंने आदमी के संघर्ष में शरीक होकर देखा है
आदमी किस तरह जीता है
कैसे सर-संघान करता है
कंधे पर खाली तूणीर टांगे
सत्ता की काली सड़क पर कैसे चलता है
विनार्थ नारों और वादों में कैसे पलता है
असहाय, अशक्त, हर तरह से हार मानकर
तेलहीन, वर्तिका विहीन प्रदीप की तरह जलता हुआ
असमय की हवा में बुझता हूं
आदमी खाता है सरकारी गोदामों का सड़ा हुआ अनाज
बाढ़, सूखा, दैवी विपदा से त्रस्त, भूख से पस्त
ऐने पौने दामों में अपने बच्चों, बहू को बेचता,
आत्महत्या करता है।
कोई उसके संघर्ष में साथ नहीं देता

आदमी कहीं का, किसी भी देश का हो
आजादी और अनाज के लिए
जीवन की बर्बरता झेलता है
और असहनीय संघर्षों का बोझ लादे
दुनिया से अस्तित्व विहीन हो जाता है
भूख की आत्मा की शांति के लिए
किसी मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा में
कन्फेशन-पाप-आत्मस्वीकृति के लिए
कोई भी पंडित, पुजारी, पादड़ी, इमाम,
क्षमा का आशीर्वाद नहीं देता।

                                  17.3.12

जीवन की आपाधापी में
यूं ही यू हीं नहीं जिया
जीवन के असंख्य अवरोधो को पार किया
जितना, जो कुछ पाया
उसे ही तो उन्हें दिया
जिन्हें चाहिए आजादी का नया सूर्य
आनन्दोल्लास
समय के साथ चलते हुए
कंटकाकीर्ण पथ पर
आगे बढ़ता रहा
सफलताओं की सीढ़ियां चढ़ता रहा
दुःख-सुख, मान-अपमान जीत-हार के बीच
गन्तव्य-पथ पर आगे बढ़ता रहा
समय-सागर-तट पर दूर, बहुत दूर
चलते हुए अपनी लघुता को स्वीकार किया
आह! मैंने किस किस तरह से जीवन की आपाधापी में
काले समय के हाथों गरल पिया
यूं ही, यूं ही नहीं जिया...
                                  19.3.2012

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