Monday 25 December 2017

प्रज्ञा की फसल

प्रज्ञा-नदी, चिन्तन की फसल सींचती
किन्तु असमय की झंझा
फसल को सुखा देती
और घनघोर गर्जन, कड़कती दामिनी के बीच
जब मूसलाधार वर्षा, माताल आंधी और ओलों से
फसल क्षतिग्रस्त होती
तब एक लम्बी आह मुंह से निकल पड़ती
और दूसरे क्षण अपनी अस्मिता को
संभालता हुआ फिर से उगाने लगता मन-मस्तिष्क
चिन्तन की नई फसल
और उसकी देख रेख करने लग जाता
कि फिर उसे क्षतिग्रस्तता से बचा सकूं
जो हानि हुई है उसे पचा सकूं।
                         -स्वदेश भारती

उत्तरायण
कोलकाता
3 अप्रैल, 2017


आत्मभाव-वितरण

जितना ही आत्मभाव मुझे तटस्थ रहने
और चिन्ता मुक्त होकर
सकर्मक-पथ पर चलने के लिए साधता है
उतना ही प्रबल आकांक्षा का जाल
मुझे भीतर से बांधता है
ऐसे में मैं अपने संकल्प और विचारों से
अन्तर्मुखी होकर अपने को बदलता हूं
और तब मन और वाणी को नियंत्रित कर
अपने गन्तव्य की ओर आगे बढ़ता हूं-
एक एक पग
ऊंचाई की सीढ़ियों पर रखता
अन्तिम लक्ष्य तक चढ़ता जाता हूं
विघ्न-बाधाओं से बचता बचाता
आत्म-कलश में संचित
चिन्तन-जल की बूंदे
समष्टि को अर्पित करता जाता हूं।

                                               - स्वदेश भारती

उत्तरायण
कोलकाता
4 अप्रैल, 2017


प्रवंचना का जहर

रात के चौथे पहर
स्वप्न से अचानक जागा
अभी अभी तो स्वप्नवत सुन्दर मनोहर
प्राणगर्भा कल्पनाएं परियों जैसी
आह्वदित मन नाच रही थी
ह्रदय-सागर-तट-पर
आरक्त अधरों में छिपी थी
स्वर्णवर्णी उषा की मदिर मुस्कान
उसी तट से ही तो हुआ था प्रारम्भ
यात्रा का नव अभियान
जब छाया था कोलाहल शोर
हाथ में थामे कामना विश्वास की पतवार
सर्जना की नाव को
समय-सागर की
उत्ताल लहरों के चपल आवेग से बचता बचाता
चल पड़ा था लक्ष्य-पथ की ओर
जोरों से हिलोरे लेता रहा है समय-पारावार...

जितना ही आत्मभाव मुझे तटस्थ रहने,
चिन्ता मुक्त होने के यत्न के साथ
सकर्मक-पथ पर चलने की आस्था देता रहा
प्रबल आकांक्षा स्वप्न मेरे भीतर पलता रहा
ऐसे में मैं अपने संकल्प और विचारों से
वहिर्मुखी होता रहा
और मन और वाणी को सुदृढ़ बनाकर
अपने गन्तव्य की ओर आगे बढ़ता रहा
चलाता हुआ चिन्तन की पतवार...
अभीष्ट तक पहुंचने का यत्न करता हुआ
विघ्न-बाधाओं से बचता
आत्म-कलश में संचित
चिन्तन जल की बूंदे समष्टि को
समर्पित करता रहा और सहता रहा
प्राण घातक लहरों का अतिशय उद्‌वेग और विनाशक कहर
रात के चौथे पहर
जब उदविग्न हो रहा था हृदय-पारावार...
खड़े थे कुछ लोग आपनजन, अपरिचित
आत्मीयता सागर-तट-पर
कर रहे थे, चर्चाएं, इशारे
आत्मघाती नजरें छुपाए थके हारे
जिसे मैंने प्रज्ञारोधक माना
आदमी का आदमी के प्रति विद्वेष जाना
और पिया उस आत्मदंशित
प्रवंचना का जहर बार बार
जीवन के चौथे प्रहर
मैंने माना नहीं अपनी हार...
-स्वदेश भारती

उत्तरायण
कोलकाता
5-6 अप्रैल, 2017

क्या खोया क्या पाया

दुख ने अपनत्त्व भुलाया
सुख ने झूला झुलाया
संप्रीति ने पंचम स्वर से गाया
संबंधों ने सूनेपन को सजाया
दुख ने अग्नि-ज्वार बन
हृदय जलाया
अलख सबेरे सोनाली आभा
अन्धकार से भरी डगर को
उजियारे में चलने की सीख सिखाया
एकाकी पथ ने मुझे
करो या मरो का पाठ पढ़ाया
सुप्त चेतना को सोते से जगाया
और सीख दी
चिन्तारहित बनो, अडिग रहो
जग है केवल माया
जीवन होता व्यर्थ यदि मन में रहता पछतावा
फिर इतनी चिन्ता क्यों
क्यों है दुरभि संधि, आत्मग्लानि, छलावा
क्या होगा दुखी सोच से-
क्या खोया, क्या पाया
                        -स्वदेश भारती

उत्तरायण
कोलकाता
7 अप्रैल, 2017

और कितने गीत गाऊं

मन-प्राण के भग्न सितार पर
और कितने स्वर मिलाऊं
और कितने गीत गाऊं
पल-दर-पल
तिल तिल कर प्रदीप की रोशनी सा जला
काले समय के भग्नाशेषों में पला
रंगीनियों से भरा स्वर को साधकर
दुख दैन्य की संगत किया
वेदना की ताल पर
आगत समय का गीत गाया
खुले मन से स्वागत किया
कई-कई बार चेतना के
विविध वाद्य-यंत्रों पर सजाया
नए नए ताल स्वर साध गाया
अनहद नाद पर
मन हृदय को नाचा नचाया
अब समय की शिला पर
और कितने दीप जलाऊं
और कितने गीत गाऊं।
               -स्वदेश भारती

उत्तरायण
कोलकाता
8 अप्रैल, 2017

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