Tuesday 14 January 2014

जीने की विवशता

आदमी अपने भीतर की
प्रेमाग्नि-ज्वाला में जलता है निरन्तर
फिर भी आकांक्षा भरी चाहत का सपना
सदा उनके दिल में पलता है
वह नहीं जानता कि
प्रेम-प्रवंचना के रेतीले बियाबांन में
अकेले चलना दुष्कर और असाध्य होता है
जब अन्धड़-तूफान के बीच
हमारा जिस्म आधा या पूरा
भयंकर रेतीले तूफान या बर्फवारी में
धंस जाता है अथवा
आत्म-झलना के चक्रव्यूह में
बुरी तरह फंस जाता है
उस वक्त हम असहाय, अशक्त हो जाते हैं।
यदि यह मालूम हो जाए कि
प्रेम का प्रभाव या तो अमृत बनकर
अमरता के गन्तव्य तक पहुंचाता है अथवा
विषपायी बनकर हृदय और मष्तिष्क को पंगु बनाता है
प्रेम भरा जीवन या तो आत्म समर्पण, श्रद्धा,
आस्था, विश्वास के चार स्तम्भों पर
टिका होता
 उसी में सफलता है
लोभ, अविश्वास की
वैसाखियों परचलना जीने की विफलता है।
                               
                                         बैंगलोर,
                                                       30 मई, 2013




प्रेम - संबंध

प्रेमाश्रयी संबंध टिकता नहीं
अखाद्य, अशोभनीय, अनचाहा फल
हृदय की बहुरंगी हाट में बिकता नहीं
भले ही उसे सघन, सुन्दर, सुशोभित
रससिक्त फलदायी वृक्ष से चुनकर तोड़ें
अथवा किसी मंडी से खरीदकर
हाट में विक्रय के लिए
दूसरे सामानों के साथ जोड़ें
सारा हिसाब प्रेम सिक्ता सा
मुट्ठियों से झर-झर कर निकल जाता
और मुट्ठियां रह जाती खाली
वह अप्रेम ही तो है।
मैंने हमेशा ही जीवन पर्यन्त
प्रेम - सागर की लहरों की तरह देखा है
जो अहर्निशि मचलती,
तटों को जलप्लावित करती,
उमड़ती घुमड़ती फेनोच्छसित,
उंचे नीचे गिरती उठती लहरों के बीच
अपनी विराटता को बांधे सरल शांत तटस्थ होता है
प्रेम हृदयों के निष्कलुष
निश्छल, निरारम्भ क्षणों का
अटूट बंधन है, हृदय का वंदन है
और सिर्फ निर्थक वादों से
लोभ लाभी प्रलोभनों का रिश्ता नहीं होता।

                                                        बैंगलोर,
                                                       31 मई, 2013




बीत जाते दिन

कैसे-कैसे बीत जाते दिन
उनका कोई हिसाब भला कौन रखता है
दुःख या सुख में जीना अपने उद्यम,
कर्म फल को तटस्थ भाव से जीना ही
हमारी समर्थता अथवा असमर्था है
अनर्गल कर्म के मिथ्या व्यामोह में पड़ना निरा अंधता है
इस पृथ्वी पर सब कुछ तो हैं
फिर भी लोभ लाभ को ही चुनते हैं
दिन रात बड़े धनपति, यशस्वी, सत्ता सेवी
अनन्य सुख-भोगी का सपना देखते हैं
एक गोलाई में घूमती फिरती है-
आकांक्षा, समय के पतझर में
पीली पत्तियां बन जाती हैं
तब दुखों का पतझर हमारे सजे सजाए
नीड़ को असमय उजाड़ देता है
हमारे बाहर भीतर किंकर्तवबोध और
अवसाद का कुहासा छा जाता है
ऐसे में हृदय, मस्तिष्क और हमारी मनीषा
हाथ मलते हुए पछताती है
 अतीत की दिन चर्या छिन-भिन्न हो जाती है
यही श्रुतियां भी कहती हैं कि
हमें अपने बाहर, भीतर और चारों ओर
निष्ठा एवं साम्य भाव से अन्वेषण करना
कर्म की पहली सीढ़ी है।
अन्यथा सारा कुछ किस गए क्रम में
असफलता का घुन लग जाताहै
कर्म की हेरा-फेरी में
यों तो बेहिसाब दिन बीत जाता है।


कोलकाता
11 जून, 2013


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