Saturday 24 November 2012

स्मृतियों की गागर अधूरी आधी या भरी-भरी पूरी

मैंने चिन्तन की डोर से
संवेदना की खाली गागर बांधी
और मनके गहरे कुएं से
जल बाहर करने की साध ठानी

फिर मैंने उसी डोर से
मन की आत्महंता पीड़ा से लदी नाव को
समय-सागर की प्रबल लहरियों से बचाकर
प्रेम-तट पर बांधी

और देखता रहा निर्निमेष तट पर बैठ
स्मृतियों की उठती-गिरती लहरे
तट से टकराती
तट को प्रच्छालित करती, भर लेती 
खुली हथेलियों में शंख, मुक्ता, सीपियां
किन्तु मुट्ठियां रह जातीं खाली
कभी अधूरी आधी

                                                        स्वदेश भारती
                                                        25.05.12       



समय का रूप

समय क्षण-प्रतिक्षण
अपना रूप बदलता
कभी किसान बन हल, ट्रैक्टर चलाता, मजदूर खेतिहर बनकर खेतों में काम करता
कभी धान की फसल के बीच मेड़ पर बैंठ
फसल के लहराने और नये ऋतु के आने की प्रतीक्षा करता
कभी नहर खोदता, पुल बनाता, सड़कें बनाता
अट्टालिकाएं बनाते हुए ऊंची अट्टालिका से गिरकर 
प्राण-निछावर कर देता।
समय ग्रीष्म की तपती कड़ाही में फूटते मकई के दानों सा
गर्म बालू से फटफटाता, छटपटाता
आम आदमी का सपना बन जाता।
समय- बादलों की सेना के भागते हुए रथ, हाथी, घोड़े, युद्धक काली घटा देखता
और मयूर-मन नाचता रहता
जब तक कि वर्फीली वर्षा की बूदें
उसके श्वेद कणों को अपने सजल हाथों पोंछ नहीं लेती
कोई बन-सिवार के फूल के रूप में गांव, जंगल-तड़ाग को अभिनंदित करते हुए
उसकी आत्मा आनन्द विभोर हो उठती
कभी वह स्वाग करता, नाचता, एक पतली डोर पर
चढ़ जाता, भीड़ तालियां बजाती, पैसे देती
समय आम आदमी के बीच रहता है
किन्तु आम आदमी की भाग्य नहीं बन पाता
समय हमें अपना सब कुछ देता, परन्तु
आशीर्वाद के रूप में आदमी को
अपनी अंतरंगता नहीं दे पाता
और यह भी कि तुम्हारा जीवन
सुखमय, मंगलमय, घन आनन्द से
भरित पूरित होता
समय बेहद तटस्थ भाव से अनमने
हमारी आंखों के सामने से गुजर जाता।


                                                        स्वदेश भारती
                                                        26.05.12  




दोपहरी का रौंद्रीय - दुःख

श्वेद कणों से भरी भरी
गर्मी की दोपहरी
जब मुरझाकर सिकुड़ जातीं पत्तियां हरी-हरी
उनका मौन कराह सुनाई देता अन्तर्मन में
ऊब और हताशा की रेखाएं खिंच जाती जनजन में
वनजीवी, श्रमजीवी, किसान और कलकारखानों में काम करते
अट्टालिकाएं गढ़ते मजदूर उसी तपती गर्मी में झुलसते
वे देख नहीं पाते, बस अहसास करते कि
कैसे आग लगती मन-प्रांगण में
कैसे डगमग डोलती प्राण-तरी समय की लहरों के उद्वेलन में
जीवन की घात-प्रत्याघात खतरों से भरी
जेठ की दोपहरी...

संवेदना पंखा झलती
पोंछती पसीना,
नवशब्द-अर्थ के ताने बाने गढ़ती
धूप का धुआं-गुवार उड़ता चारों ओर
मौसम की डोर से बंधा आदमी का जीवन
दहकता अशांत धरती का कण-कण 
रोती हरीतिमा हाथ मलती
हांफता हिरण, भागती किसी घने वृक्ष की
छाया की खोज में
किन्तु फंस जाती कंटीली झाड़ियों के बीच
सब कुछ बदल जाता समय के ओज में
बहू पंखा झलती, बूढ़ी सास करी कथरी सीतीं
बादल घिरते परन्तु वर्षा हंसती हाथ खींच
कैसे पसीना पोंछती जेठ की दोपहरी
सजल आंखों में श्वेदकण से भरी-भरी




                                                       स्वदेश भारती
                                                        28.05.12




कोयले की मधुरस भींगी तान

कोयल अलख सबेरे कू..कू...कू करती है 
आम्र कुंज से उसकी मीठी बोल उड़कर
सिवान के आरपार तक
नगर सीमा के द्वार तक
हृदय-आनन्द रस में भिंगोती है
कोयल किसी डाल पर बैठी
प्रातःकाल के पूर्वी क्षितिज पर
रंगोली खेलती सोनाली आभा-रंगी
किरणों के रंगोत्सव देखकर
अपनी कूक के स्वर बदल लेती है
आनन्दातिरेक में मीठे गान सुनाती है

कोकिला, कोयल, कलपाखी,
इतनी काली होते हुए भी
अपनी आवाज से दिशाओं में
मधुरस घोलती है
कितना मधुर मीठा मृदु मोहक बोलती है
हमारी आत्मा के खालीपन को
आनन्द-रस से भरती है
कोकिला अलख सबेरे
अपना मधुरस-तान-गान छेड़ती है।



                                                       स्वदेश भारती
                                                        29.05.12  





शब्द-निःशब्द

जन्म, रोने से शुरू होकर
मृत्यु की खामोशी तक
शब्द-निःशब्द के बीच
सार्थक, निरर्थक होता है
मनुष्य शब्द का इतिहास ढोता है
और अतीत की देयता स्वीकार कर
वर्तमान की काली चौड़ी सड़क पर
अपनी अभिलाषाएं लिए
गन्तव्य की ओर बढ़ता है।

शब्दों की दुनिया में कोई मौज उड़ाता है
कोई संत्रस्त, आहत अस्तित्व विहीन हो जाता है
शब्दों के अर्थ विगड़ते नहीं
किन्तु जो प्रवंचना और छल-छद्म के सेतु बनाते
वे स्वयं शब्द-जाल में मछली की तरह फंसते जाते
शब्दों के भीतर ही मानव-अस्तित्व पलता है।

हम तरह-तरह से शब्द नीड़ बनाते
उसे तरह-तरह से सजाते
समय की अंधी-आंधी, तूफान, वर्षा से बचते-बचाते
शब्द की भूल भुलैया में 
मन-बुद्धि के साथ तलमेल बैठाने की
असमर्थता से समय के अंधेरे में विलुप्त हो जाते
शब्द से ही मनुष्य के कर्म का इतिहास बदलता है
शब्द-निःशब्द हमारी चेतना के भीतर बाहर
जीवन्त, सुखदायी, अजर-अमर बनकर जीवन को बदलता है।




                                                        स्वदेश भारती
                                                        30.05.12  








सीख

जीवन की पत्तों को खोलना नहीं
अनिष्ट कभी बोलना नहीं
वैभनश्य का बीज बोना नहीं
जो चमकता नहीं वह सोना नहीं
अस्तु अपने रंग में चमकना ही सार्थक है
मनुष्य अपने वर्तमान और भविष्य का सर्जक है
समय की तुला पर छलप्रपंच तौलना नहीं
जीवन की पत्तों को खोलना नहीं....

अपने अतीत से बहुत कुछ सीखना है
हृदय की सूखी माटी को स्नेह-रस से सींचना है
अंतर्बोध की अबूझ पहेली को सुलझाना है
कर्म से ही अपना अभीष्ट पाना है
दुनिया में यदि आए हो तो हर हाल में जीना है
सुख-दुख का मधुरस और विष पीना है
कटु शब्द कभी भी बोलना नहीं
जीवन की पत्तों को खोलना नहीं....।


                                                         स्वदेश भारती
                                                        31.05.12  


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