Thursday 1 September 2011

जन लोकपाल आंदोलन


जन लोकपाल आंदोलन और मीडिया

कुछ राजनीतिज्ञों ने जन लोकपाल आंदोलन को मीडिया द्वारा व्यापक कवरेज देने के लिए विरोध प्रकट किया है जो ईर्ष्या और छोटी सोच को दर्शाता है। देश और जनतंत्र की रक्षा के लिए बुद्धिजीवियों और मीडिया ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत ऐतिहासिक, अभूतपूर्व और प्रशंसनीय कार्य किया है। उन सभी को धन्यवाद देना चाहता।

अब माननीय सांसदों को निहित दायरे की सोच को जनहित के लिए व्यापक बनाना देश और स्वस्थ, भ्रष्टाचार मुक्त समाज के लिए आवश्यक है। आम आदमी के हितों की रक्षा करना मीडिया अच्छी तरह जानता है। और जब उसे कोई भी चुनौती देता है अथवा अपनी अल्पबुद्धि का परिचय देता है। और भ्रष्ट राजनीति का मुखौटा पहनकर बात करता है। तो मीडिया उसे कवर करता है तो क्या अन्याय करता है।

धन्यवाद प्रधान मंत्री जी

माननीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंहजी ने मेदान्ता अस्पताल में भर्ती अन्ना हजारे को शीघ्र स्वस्थ होने का संदेश फूलों का गुलदस्ता भेजकर गांधीवादी परम्परा का उदारतापूर्वक निर्वाह किया। इसके लिए बधाई के पात्र हैं। माननीय प्रधानमंत्री की जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम है। उन्होंने बड़ी सूझबूझ से जनलोकपाल के तीन मुद्दों को संसद द्वारा पास कराया, इसके लिए उनकी भूरि भूरि प्रशंसा की जानी चाहिए।

एशिया सोसाइटी, न्यूयार्क का गलत नजरिया

एशिया सोसाइटी, न्यूयार्क ने अन्ना हजारे के जन-लोकपाल आंदोलन की आलोचना की है। ऐसा इसलिए है कि वे सच्चे लोकतंत्र का अर्थ नहीं जानते। वे नहीं जानते कि लोकपाल बिल सन् 1967 से संसद में लंबित है, और इन चालीस वर्षों में कई प्रधानमंत्री आए, गए। लगभग 140 संसद के सत्र हुए परन्तु किसी संसद सदस्य, मंत्री या प्रधानमंत्री ने उस बिल को पास कराने का प्रयत्न नहीं किया। भ्रष्टाचार से त्रस्त भारत की जनता को अहिंसात्मक तरीके से अपनी मांगे मनवाने के लिए अनशन का, जन आंदोलन का सहारा लेना पड़ता है तो क्या गुनाह करता है। ऐसा करना जायज है।

अन्ना और भ्रष्ट राजनीति बनाम साहित्य

गांधी जी के 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में हर वर्ग के लोग हजारों की संख्या में शामिल हुए थे। आजादी के 64 वर्ष के बाद हजारों की तादात में आंदोलन में शामिल हुए। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरोध में अन्ना के अगस्त 2011 के जनलोकपाल आंदोलन में दिल्ली, मुम्बई, कलकता, बैंगलोर, चेन्नई, पटना, लखनऊ हैदराबाद, कानपुर, भोपाल आदि शहरों एवं कस्बों, गांवों में लाखों की संख्या में जन सैलाब देखकर आश्चर्य होता है। इस जन शैलाब में बच्चे, युवा वर्ग, बूढ़े, स्त्रियां, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राएं स्वेच्छया शामिल हुए। सबके सिर पर मैं अन्ना हूं लिखी हुई सफेद गांधी टोपी, हाथ में राष्ट्रध्वज, भारत माता की-जय, बन्दे मातरम्, इन्किलाब जिन्दाबाद, अन्ना तुम संघर्ष करो- हम तुम्हारे साथ हैं के नारों से सारा भारत गूंज रहा था। आजादी के बाद रामलीला मैदान, इंडिया गेट पर इतना बड़ा जन-सैलाब मैंने नहीं देखा था। और संसद को वाध्य होकर अन्ना की तीन शर्ते माननी पड़ीं। जनतंत्र को भ्रष्ट मुक्त स्वार्थ मुक्त बनाने के लिए यह आंदोलन की सिर्फ शुरुआत है। जिसे आजादी की दूसरी लड़ाई का नाम दिया गया है। 12 दिनों के बाद 74 साल के अन्ना ने अनशन तोड़ा जबकि संसद में उनकी तीन प्रमुख मांगे मान ली गईं।

साहित्य में दलवाद, जनवाद, जातिवाद के कींचड़ में धंसे फंसे साहित्यकारों को इस जन आंदोलन से सीख लेनी चाहिए और अपने मस्तिष्क को वन्धनमुक्त कर जनहित के लिए साहित्य रचना का प्रण लेना है। हिन्दी साहित्य का वर्गों में विभाजन करना भाषा साहित्य के प्रति भाषाद्रोह है, अन्याय है। इसलिए सर्जनात्मक रचना के लिए यह जरूरी है कि गुटों, खेमों, क्षेत्रीयता, जातीयता में बंटे लेखक राष्ट्रीय चेतना को नए परिवेश में अभिव्यंजित करें क्योंकि हिन्दी भाषा-साहित्य के लिए मुक्त आकाश और स्वतंत्र चिन्तन आज की जरूरत है।

भारतीय संविधान, संसद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

अन्ना के जन लोकपाल आंदोलन को आजादी की दूसरी लड़ाई के रूप में अपूर्व एवं अपार जनसमर्थन मिला। भारतीय जनतंत्र को मजबूत करने का यह ऐतिहासिक मिशन था। आम नागरिकों और मीडिया ने जिस प्रकार इस आंदोलन को अपना समर्थन दिया, वह अद्वितीय है। परन्तु सरकार तथा सांसदों को यह भय सता रहा है कि आगे चलकर कहीं यह आंदोलन उनके पांवों तले की जमीन न खिसका दे। लग रहा है वे अन्ना टीम पर तरह तरह की साजिश करने का मन बना लिया है। संसद में विशेषाधिकार हनन के अंतर्गत भारत के किसी नागरिक पर  अभियोग लगा कर विशेषाधिकार हनन के बतौर सजा देने की प्रक्रिया संविधान की आत्मा के अनुरुप नहीं है।
भारतीय संविधान में प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति का अधिकार मिला है। यदि कोई नागरिक किसी सांसद पर छींटाकशी करता है तो उसे किसी न्यायालय या हाईकोर्ट में उसके विरुद्ध मानहानि का मामला पेश करना चाहिए न कि संविधान अनदेखा कर आम नागरिक की छींटाकशी को संसद में विशेषाधिकार हनन का मामला बना कर उसे दंडित करना उचित नहीं।
विशेषाधिकार हनन का मसला संसदीय प्रणाली में संसद सदस्य के ऊपर लागू होना चाहिए न कि आम नागरिक की ऊपर। यदि ऐसा होता है तो यह संविधान की जन अभिव्यक्ति की धारा के विरुद्ध है।
मेरा प्रस्ताव है कि संसद इस बारे में एक जन-प्रक्रिया बनाए और आम नागरिक को संसद में दंडित न करें। बल्कि किसी कोर्ट में मामला दायर करें, इससे संसद का समय बर्बाद नहीं होगा और जनता के धन की व्यर्थता पर अंकुश लगेगा।

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