तीन समय-चित्र
(1)समय की धारा में
कितना सारा सारा जल
प्रवाहित होता रहा
संसृति का इतिहास-अस्तित्व
बनता रहा, खोता रहा
मनुष्य की कामना, लोभ का घटाधारी मेघ
घिरता रहा, गरजता रहा, बरसता रहा
मनुष्य की नियति को भिगोता रहा।
जो जाना सो आगे बढ़ता रहा
जो नहीं जाना पीछे छूटता रहा।
X X X X
(2)
हे पथिक, जरा रूक कर सोचना
समष्टि की समरसता का आत्मीय-जाल बुनना
अपने को गुनना, भीतर की आवाज सुनना
तब समय के साथ अभीष्ट की ओर बढ़ना।
X X X X
(3)
कर्म ही मनुष्य के उद्भव
विकास और प्रगति का आधार बनता है
कर्म से ही देशकाल, जीवन बदलता है
कर्महीन सदा अपने समय को छलता है।
-स्वदेश भारती
03-11-2017
उत्तरायण
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