Wednesday 30 April 2014

कविता-धर्मिता

स्वातंत्र्योत्तर काल की, हिन्दी कविता को नई कविता, अकविता, श्मशानीपीढ़ी की कविता, भूखी पीढ़ी की कविता, आज की कविता, अखबारी कविता आदि विशेषणों, नारों से सजाकर पाठकों के समक्ष रखा गया। परन्तु 65 वर्ष बीत गए, कविता स्वेच्छाचारी कवि की निजी संवेदना की दासी बनी रही। कविता की आत्मा की स्वच्छन्दता, भाषा सौष्टव, शिल्प-विन्यास, तटस्थ भाव, अभिव्यक्ति का अभाव बना रहा, ऐसी स्थिति इसलिए भी रही कि कविता, कवि, आलोचक के अहंभाव-बोध और एकांगिक नजरिए से बंधकर अपना प्रभाव खोने लगी। उसे वास्तुपरक विवेचना का छद्म जामा पहनाया जाने लगा। उसे रचनात्मकता से दूर तथाकथित मानसिक तनाव और आम आदमी की जिजीविषा के साथ जोड़ दिया गया। आदि काल से अब तक संवेदना के स्तर पर कविता आम आदमी और सामाजिक सरोकार की रचनात्मक विरासत रही है। उसे वाद-विवाद आत्मराग-विराग और पक्षधर चिन्तन की बैसाखियों पर नहीं चलाया जा सकता। कविता सदा से मुक्त रही है। स्वच्छन्द, आत्मपरक, समाजपरक।
हमें आज के सामाजिक, राजनैतिक, वैचारिक केऑस के बीच कविता को कविता के रूप में उसकी सर्जनात्मकता की विशिष्टता को नए सिरे से समझना होगा। कविता को सिर्फ कविता के रूप में स्वीकारना होगा।
              - स्वदेश भारती

Wednesday 23 April 2014

प्रजातंत्र का मजाक

तेरहवीं संसद के चुनाव में विसंगतिपूर्ण नई बातें सामने आ रही हैं। भारतीय जन मानस निम्नलिखित बातों के आइने में सोचें -

1) भारत के संविधान की प्रजातांत्रिक संसदीय प्रमाली की व्यवस्थाओं, नियमों को इतिहास में  पहली बार ताक पर रखकर पहले से प्रधानमंत्री की घोषणा कर जनता से उसके लिए वोट मांगना संघीय ढाचे के विरुद्ध है। यह असंवैधानिक  है।  ऐसा राष्ट्रपति-प्रणाली वाले देशों में होता है।

2) व्यक्तिगत आक्षेप-प्रत्याक्षेप की वाचालता से इस देश की सभ्यता और संस्कृति पर कुठाराघात करना और हमारी नई पीढ़ी के सामने भोंडा और भद्दा आचारण पेश करना भारतीय सभ्यता के विरुद्ध है।

3) भारतीय-जनतांत्रिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध भाषणबाजी करना और वोटखोरी के नीति पर चलना आज के परिप्रेक्ष्य में गलत है।

4) लोकहित, नवनिर्माण, विकास से अलग हटकर वोट की राजनीति करना प्रजातांत्रिक ढांचे को तोड़ना है।

5) हिन्दी को राष्ट्रभाषा, विश्वभाषा के रूप में देश तथा राष्ट्रसंघ में मान्यता देने के बारे में मौन साधना भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है।

                                                                                                                          - स्वदेभ भारती,
                                                                                                                                                                     साहित्यकार

Saturday 19 April 2014

स्वदेश भारती-चित्रावली

स्वदेश भारती के विभिन्न रूप-


                                           
हिन्दी साहित्य के युग पुरुष सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' के साथ कवि स्वदेश भारती (वर्ष 1987), कलकत्ता पुस्तक मेला।








अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन ऊटी 2-4 अक्टूबर 1992 के
 अवसर पर केन्द्रीय गृहमंत्री श्री एस. बी. चौह्वान, मुख्य अतिथि के साथ




महीयसी महादेवी वर्मा जयंती समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए कविवर स्वदेश भारती तथा
नीचे के तस्वीर में महादेवी वर्मा जयंती समारोह का उद्घाटन करते हुए ।





कविवार स्वदेश भारती अपने निवास पर पुस्तक पढ़ते हुए





  राष्ट्रीय हिन्दी अकादमी, रूपाम्बरा द्वारा बिड़ला तारामंडल, कोलकाता में 
वर्ष 14 सितम्बर 1986 में आयोजित काव्य संगोष्ठी में काव्य पाठ करते हुए। 
मंचासीन (बाएं से दाएं) डॉ. गंगा प्रसाद विमल, कलकत्ता विश्वविद्यालय हिन्दी विभागाध्यक्ष 
प्रो. कल्याणमल लोढ़ा, कविवर जगदीश चतुर्वेदी, श्री सक्सेना तथा अन्य।




कविवर स्वदेश भारती अपने निवास के पुस्तकालय में अध्ययनरत वर्ष 1986



हुगली का प्रवाह देखते हुए मैन आफ वार जेटी पर कवि स्वदेश भारती (वर्ष 1974)


Friday 18 April 2014

आत्म छलना-4

भागता है ऊद विलाव
जनतंत्र की बिल से निकलकर
जनादेश के लिए जन लुभावन रूप दिखाता
पक्ष-विपक्ष की सेनाओं के बीच
आत्म सत्ता का महाभारत-युद्ध रचता
बार बार अपने अहं के रथ पर बैठ
दूर दूर वार करता
किन्तु अविवेक से लड़ा गया युद्ध हारता
जनमत-संघर्ष में घायल
अपनी बिल में घुसकर बैठ जाता
ऊद बिलाव बार बार जीर्ण-शीर्ण,
जनतंत्र के गलियारे से चलकर
भव्य राजपथ पर पहुंच जाता
जिसके अंतिम छोर पर जल रहा आजादी का अलाव
पास में सत्ता की कुर्सी खाली पड़ी है
जो आदमी की आत्म-सत्ता से बड़ी है
और उसी के लिए तो भागता सरपट, झटपट रंग बदलता
और तरह-तरह से बदलता हाव-भाव
लोकतंत्र का ऊद विलाव

                                         - स्वदेश भारती
                                                         5 अप्रैल, 2014



आत्म छलना-5
अयोध्या के राम
आम-जन की बातें सुनते-सुनाते थे
और शिकायतों को सुलझाते थे
तब अपने व्यक्तिगत संबंधों के
विखरे ताने बाने को ठीक करते
किन्तु आज के आया राम, गया राम
कुर्सी के लिए आमजन का विश्वास तोड़ते
व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रदीप बुझाते
स्वार्थ और लोभ का अंधकार रचाते

प्रजातंत्र में अनैतिकता एक औजार है
जिसे प्रत्येक सत्ताधारी
अपनी सुरक्षा कवच के लिए इस्तेमाल करता है
उसे सदा अपने पास सहेजकर रखता है
उसके लिए आमजन, आमराय,
जनमत बहेलिए का खडयंत्र जनित
आखेटक खेल है
समय का तकाजा है कि
सत्ताधारी प्रदीप तब तक ही जलता है
जितना और जब तक उसमें आत्मलोभ का तेल है

                                          - स्वदेभ भारती
                                                           6 अप्रैल, 2014





Saturday 12 April 2014

आत्म छलना - 1

हम जीवन पर्यंत छलते हैं अपने को
अपने आसपास के संदर्भों को, संबंधों को
लोभ आत्म प्रवाह से
तोड़ते हैं सत्तता के अनुबन्धों को
किताबें, धर्मग्रन्थ, श्रुतियां कुछ भी कहें
हम स्वार्थजनित पूजते रहे कबन्धों को।

हमने बनाए कितने सारे विधान-वितान
ग्रहण किए, बांटे विविध ज्ञान-विज्ञान
किन्तु सतात्मग्रही नहीं हो सके
बार बार दोहराते रहे इतिहास के छन्दों को।

यूं तो हम सभी जानते हैं
सच क्या है, झूठ का अर्थ क्या है
किन्तु मनसा, वाचा, कर्मणा छलते रहे
आत्म-अनात्म के अंधेरे में अपने वन्दों को।

                              - स्वदेश भारती
                                          कोलकाता 2 अप्रैल, 2014


आत्म छलना - 2

सम्बन्धों का छलना मनुष्य को
जीवन में अराजक बना देती है
वह नहीं कर पाता
भले और बुरे का निर्णय
न्याय का अधिकार
मस्तिष्क की प्रवंचना के अंधेरे तल घर में
दुबक कर बैठ जाता है
अन्याय के घटाटोप अंधकार से अच्छादित करता है
ऐसे में व्यक्ति सिर्फ बोलता है
अकमर्णता के कगार से फिसलकर
गहरी खाई में गिरता है
सच्चाई के रंग में विष घोलता है
फिर भी अपने हृदय  में
वादा फरोशी के कई रंग मिलाता है
तब उसकी नियति खोट बन जाती है
मनुष्य कर्म और अकर्म का पैमाना है
व्यक्ति का समष्टि के प्रति सेवाभाव
बस एक बहाना है
वह अपनी अनीति धर्मा नीयत का आजन्म
विखराव सहता है
उसके लिए मानव धर्म
सिर्फ मानसिक ताना बाना है।


आत्म छलना - 3

आत्म छलना से लेकर
जन-मत गणना तक
एक अप्रीतिकर आवाज गूंजती है
दिशांत के आर पार सिवान से शहर
झोपड़ी से अट्ठालिका
पल्लि पथ से फुटपाथ,
सड़क से राज पथ तक
संसद, विधान सभा का बुर्ज का पता है
आजादी की बुढ़िया पथ-श्लथ ऊंघती है
बार-बार कई कई तरह से
आवाजें बदलती है
जनमत को आकर्षण-जाल में बांधने
साम, दाम, दंड, भेद की राजनीति
लोभ और स्वार्थ के दायरे में
चक्कर लगाती है
देश की सीमा के आर पार
जनमानस के ऊपर
छा जाता तमो गुणी अंधकार
सत्ताधारी अपनी लोलुप महत्वाकांक्षा
का कुटिल खडयंत्र रचता है
खंड-खंड हुए जनमत के सहारे
अराजकता की खाई में
गिरने से बचता है।


Thursday 10 April 2014

मतदान-प्रतिश्रुति का पंचनामा

1. मतदान वादों की प्रतिश्रुति है। आस्था है। प्रजातंत्र के बीज-वृक्ष का अमृत फल है।
मतदान स्वाधीन राष्ट्र का सुनहरा कल है।

2. मतदान के प्रति ईमानदारी राष्ट्रीय-संस्कृति है।

3. वही प्रजातांत्रिक देश विकासशील है, उन्नत और महान बनता है जिसके नागरिक मतदान की महत्ता को पहचानते हैं। अपने विवेक का उचित प्रयोग करते हैं

4. भारतीय लोकतंत्जोर के जागरूक नागरिक विश्रृंखल राजनीति की आंधी में ढहते नहीं बल्कि अपने को राष्ट्रीय अस्मिता का विशाल अक्षयवट की तरह स्थिर हरा भरा रखते हैं। वही देश की प्रगति के संवर्द्धक होते हैं। और राष्ट्र की अस्मिता को विश्वजयी बनाते हैं।

5. मतदान राष्ट्र और व्यक्ति विशेष के प्रति विश्वास की कसौटी है। उस कसौटी पर खरा उतरना प्रत्येक भारतीय का पुनीत कर्तव्य है।

Tuesday 8 April 2014

संसदीय जनमत-2014

सभी पार्टियों के शीर्ष नेतागण

कतिमय राजनीतिक पार्टियों ने अपने अपने घोषणा पत्र में बहुत सारे वादों के कारे कजरारे मेघों से भूमंडलीय-विकास के क्षितिजों को घटा घनघोर कर दिया। कहां कितना कुछ वादों का सावन बरसेगा यह तो समय ही बताएगा। फिलहाल कई पार्टियों ने उर्दू और मदर से के विकास के वादे किए हैं क्या राष्ट्रभाषा हिन्दी और देश भर के हिन्दी के जर्जरित अभावग्रस्त पाठशालों की ओर नजर नहीं जाती। यह कैसा विकास का एक तरफा धर्म सापेक्ष्य वादा है। कैसे कैसे नेता हैं। कैसे-कैसे लोक-लुभावन वादे हैं। जनता इसे सही तरह से समझ सकती है।
                                  - स्वदेश भारती

Monday 7 April 2014

मतदान- राष्ट्रीय अस्मिता के लिए

सभी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं देश के बुद्धिजीवियों से निवेदन

आपको इतना तो अवगत होगा कि किसी भी स्वाधीन, सार्वभौम, प्रजातांत्रिक राष्ट्र के चार प्रमुख संवैधानिक आधार होते हैं-

                           1. संविधान
                           2. राष्ट्रगान
                           3. राष्ट्रध्वज
                           4. राष्ट्रभाषा

65 वर्षों की आजादी के बाद भी देश को अभी तक चौथा आधार नहीं मिला जिसके कारण देश की एकता, अखंडता और गौरवशाली सांस्कृतिक परम्परा को नया आयाम नहीं प्राप्त हो सका।

अभी तक हमारी राष्ट्रभाषा जो राजभाषा हिन्दी है, वही विश्वभाषा है जिसे राष्ट्रसंघ की भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं हो सकी। यह हमारी  राष्ट्रीय प्रतिबद्धता के बिल्कुल विपरीत है। आज जब हम नई 12वीं संसद गठन के लिए चुनाव प्रक्रिया में व्यस्त हैं, सभी नेता अपने लिए जनता से वोट मांगने सड़क पर निकले हैं। तरह-तरह की मांगों, वादों, प्रतिश्रुतियों, विचारों से, बड़े-बड़े घोषणापत्रों से जनता को आकर्षित किया जा रहा है, वहीं राष्ट्रभाषा की अस्मिता और विश्व भाषा की गरिमा के बारे में सारी पार्टियां मौन है अथवा वे देश की सांविधिक जरूरतों और सार्वभौम, स्वतंत्र राष्ट्र के प्रमुख चार आधार को भूल चुके हैं।

जनता उन्हें ही वोट देगी जो राष्ट्र की प्रभुसत्ता और गौरवशाली परम्पराओं में विश्वास रखकर राष्ट्रभाषा को विश्वभाषा, राष्ट्रसंघ की भाषा के रूप में संसद गठन के बाद 2014 के अंत तक स्वीकृत कराने में सफलता प्राप्त करेंगे। राष्ट्रभाषा हिन्दी को राष्ट्रसंघ की विश्वभाषा बनाने हेतु लगभग 200 करोड़ रुपये का विशेष आवंटन करायेगे तथा लगभग 100 राष्ट्रों की अनुमति प्राप्त करेंगे।

राष्ट्रीय हिन्दी अकादमी 26 वर्षों से इस दिशा में कारगर कार्य करने के लिए कई अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलनों, अंतरराष्ट्रीय भाषा साहित्य सम्मेलनों तथा अन्य मंचों पर विविध प्रस्तावों द्वारा अपनी मांग भारत सरकार के पास भेजती रही हैं, परन्तु अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई।

हमारा प्रस्ताव है कि राष्ट्र के प्रति सच्चे प्रेमी और वफादार नेता तथा बुद्धिजीवी इस विषय में गम्भीर चिन्ता करें और भारत की जनता राष्ट्र की आकांक्षाओं को मूर्त रूप देने के लिए आगे आएं।