बहुत धीमे पग
घुसपैठिए की तरह
नव पल्लव-तूणीर में
फूलों का सर लिए
किसी भी क्षण
मन को संघान करने
रिक्त मनको सौन्दर्य-आनन्द से भरने
मन-धरती के ओरछोर
आ गया है नव-वसन्त धीमे पग
प्रेम-स्पंदन से करने सजग...
हवा भी शिशिर का आवरण उतार
कलियों का सुवास लिए माताल सी
वन प्रांतर, सिवान और शहर सीमा रेखा के आरपार
जगा रही मन में अभिसार
कर रही अनुतप्त क्षणों का दुखदैन्य
और मन की पीड़ा हमसे अलग
किस किस ओर से
आनन्दोत्सव मनाने
आ रहा वसन्त धीमे पग...
7. 02.2012
चार चक्र
।। सूरज, माटी, जल, आकाश
जीवन गढ़ता हवा-बताश।।
।। कर लें पंचत्त्व से यारी
जीते जन-मन, दुनिया सारी।।
।। जन का जन से साधे नाता
जन ही जन का विश्व विधाता।।
।। प्रेमनाव को मन-पतवार
ले जाती सागर पार।।
8. 02.2012
आत्मबंधन
मैं लहर हूं
समुद्र के क्रोधोन्माद से जन्मी
कभी धीरे,
कभी प्रचंड आवेग से सुनामी बन
रौंदती, जलमग्न करती तट
सर्जित करती जन-संकट ...
मैं लहर हूं
सागर के क्षोभ-विक्षोभ, दुःख-दावानल से जलती
हृदय की आग से झुलसती
सागर में जन्म लेती, पलती, हवा की ताल पर
नाचती, गाती, हुंकार भरती, लहराती
अथवा शांत होकर तट की बाहों में सो जाती...
मैं लहर हूं
जल से बनती, जल में मिटती
तट से अपना संबंध जोड़ती
तोड़ती सारे अवरोध तटबन्ध किन्तु रहती सीमाबद्ध
जल के साथ ही अपना पथ मोड़ती
महासागर की जल-शैय्या पर बनाती सप्तपदी अर्थवान
यौवन की उद्दाम केलि क्रीडा आनन्द से भरती अन्तर-मन प्राण...
मैं लहर हूं
लहराना मेरी प्रकृति है, ज्वार-तरंगों में
अनन्तकाल से निभा रही तट के साथ आत्मबंधन
जन-जन को देती सीख-सौगात आनन्द अनुरंजन
जोड़ती तट और लहर का अटूट शास्वत संबंध-बंधन
जीती हूं नियंत्रित कर तन मन
चलती महाकाल-प्रवाह की अनन्त यात्रा में क्षण प्रतिक्षण...
9. 02.2012
मानव-सत्ता
हे वन्धु!
समय का विक्षिप्त, व्यथित, आत्म-खंडित नर्तन देखो
कैसे लोग ठग रहे लोगों को, विक रहे अधिकार
निजता और लोभ की हो रही विजय-जयकार...
हे वन्धु,
मानव-मूल्यों की उड़ रही धज्जियां
सिवान में नगर तक
उड़ रही निराशा की धूल
अभावग्रस्तों की आशाएं हो रही निर्मूल...
हे वन्धु,
मनुष्य में जिस तरह लोभ और लभा की प्रवृत्ति,
धन-लिप्सा, जन अनादर, नफरत की तेज हवा बह रही है
उससे हमारी जड़ें छिन्न-भिन्न हो जाएंगी
मोहनजोदड़ों, हड़प्पा, सिंधु घाटी की आर्य सभ्यताओं का
समाप्त हो जाएगा इतिहास
मिट जाएगा ऊंचे उठने का विश्वास...
हे वन्धु,
तुम सुनो खंडित मानव की दर्प-हताशा,
टूटे विश्वास और आशा का करुण-अट्ठहास,
आत्म हत्याएं, चेतना के विनाश का आत्मदाही स्वर,
किस तरह मिट रही आत्म-सत्ता
आदमी इस माहौल में कैसे जिए निरुपाय, निहत्था...।
10. 02.2012
प्रेम-सगाई
ओ प्रियस्विनी,
तुम मेरे हृदय का लौह कपाट खोलकर
जब आ ही गई हो,
तो फिर लौटकर जाने का प्रश्न ही नहीं उठता
यूं तो आना-जाना इस जीवन की विकास-प्रक्रिया है
किन्तु हमने और तुमने जो शपथ लिया है -
कि रहेंगे हम सदा साथ-साथ
गहे हाथ में हाथ
प्रेम के अटूट बंधन में बंधे
ओ प्राणस्विनी
हम उस बंधन को कभी तोड़ें नहीं
एक दूजे से मुंह मोड़े नहीं
बने रहें दोनों एक इकाई
और कह दें जनजन से
जगत में सबसे ऊंची प्रेम-सगाई
11. 02.2012
अन्तिम क्षण का अहसास
जब रुक जाती सांस
खुल जाते बंधे हाथ
हो जाता प्राण विन तन अनाथ
छोड़कर चला जाता जीव
सब कुछ
सब कुछ और सबका साथ
तब बन जाता वर्तमान
स्मृतियों का इतिहास-
कितना कष्टकर होता अन्तिम क्षण का अहसास।
12. 02.2012
मनरेगा
गांव के गरीबों को रोटी देने का हुक्मनामा-मनरेगा
सड़कें, पुल, बांध बनाने की श्रमशक्ति-मनरेगा
पत्थर तोड़ने, जंगल साफ कर रास्ता बनाने का परिश्रम-मनरेगा
ग्रामीण विकास और नव निर्माण के लिए श्रम-मनरेगा
सत्ताधारियों का वोटखोरी के लिए आमजन को फुसलाने का शस्त्र-मनरेगा
अफसरशाही की तिजोरियां भरने का यंत्र-मनरेगा
मन.. रे.. गा, म.न...रे...गा - मनरेगा
सत्ता के जाल में उलझी भूख और रोटी-हायरे मनरेगा
उजड़ी झोपड़ी, रोते पल्लि-पथ,
सूखे सिवान, भूखे किसान पगश्लथ
13. 02.2012
प्रकृति का प्रकोप
जब आकाश से वर्फ बरस रही होती है
जब धरती, सागर, नदी, झील, बनजाती बर्फ
जब घर आंगन द्वार, जंगल, सभी बर्फ में जम जाता है
जब ठंडी वर्फीली हवा तूफान की बाहों में बाहें डाले
झकझोरती दिशाएं, उद्दीप्त उत्तप्त बदहवाश दौड़ती
निर्मूल करती घरबाड़ी जंगल वन
करती मानव जीवन भयाक्रांत, पंगु, अस्थिर
तोड़ती मकान, पुल, बिजली के खम्भे, खेलती विध्वंस का खेल
सर्जित करती जन कोलाहल, क्रन्दन
फिर भी मानव बचाता है अस्तित्व
रहता है जीवित प्रकृति की राक्षसी, उद्दाम, आतंकवादी
वज्राघात से बचता बचाता
प्रकृति के साथ जोड़ता जन्म-जन्मान्तर का नाता...।
14. 02.2012
घुसपैठिए की तरह
नव पल्लव-तूणीर में
फूलों का सर लिए
किसी भी क्षण
मन को संघान करने
रिक्त मनको सौन्दर्य-आनन्द से भरने
मन-धरती के ओरछोर
आ गया है नव-वसन्त धीमे पग
प्रेम-स्पंदन से करने सजग...
हवा भी शिशिर का आवरण उतार
कलियों का सुवास लिए माताल सी
वन प्रांतर, सिवान और शहर सीमा रेखा के आरपार
जगा रही मन में अभिसार
कर रही अनुतप्त क्षणों का दुखदैन्य
और मन की पीड़ा हमसे अलग
किस किस ओर से
आनन्दोत्सव मनाने
आ रहा वसन्त धीमे पग...
7. 02.2012
चार चक्र
।। सूरज, माटी, जल, आकाश
जीवन गढ़ता हवा-बताश।।
।। कर लें पंचत्त्व से यारी
जीते जन-मन, दुनिया सारी।।
।। जन का जन से साधे नाता
जन ही जन का विश्व विधाता।।
।। प्रेमनाव को मन-पतवार
ले जाती सागर पार।।
8. 02.2012
आत्मबंधन
मैं लहर हूं
समुद्र के क्रोधोन्माद से जन्मी
कभी धीरे,
कभी प्रचंड आवेग से सुनामी बन
रौंदती, जलमग्न करती तट
सर्जित करती जन-संकट ...
मैं लहर हूं
सागर के क्षोभ-विक्षोभ, दुःख-दावानल से जलती
हृदय की आग से झुलसती
सागर में जन्म लेती, पलती, हवा की ताल पर
नाचती, गाती, हुंकार भरती, लहराती
अथवा शांत होकर तट की बाहों में सो जाती...
मैं लहर हूं
जल से बनती, जल में मिटती
तट से अपना संबंध जोड़ती
तोड़ती सारे अवरोध तटबन्ध किन्तु रहती सीमाबद्ध
जल के साथ ही अपना पथ मोड़ती
महासागर की जल-शैय्या पर बनाती सप्तपदी अर्थवान
यौवन की उद्दाम केलि क्रीडा आनन्द से भरती अन्तर-मन प्राण...
मैं लहर हूं
लहराना मेरी प्रकृति है, ज्वार-तरंगों में
अनन्तकाल से निभा रही तट के साथ आत्मबंधन
जन-जन को देती सीख-सौगात आनन्द अनुरंजन
जोड़ती तट और लहर का अटूट शास्वत संबंध-बंधन
जीती हूं नियंत्रित कर तन मन
चलती महाकाल-प्रवाह की अनन्त यात्रा में क्षण प्रतिक्षण...
9. 02.2012
मानव-सत्ता
हे वन्धु!
समय का विक्षिप्त, व्यथित, आत्म-खंडित नर्तन देखो
कैसे लोग ठग रहे लोगों को, विक रहे अधिकार
निजता और लोभ की हो रही विजय-जयकार...
हे वन्धु,
मानव-मूल्यों की उड़ रही धज्जियां
सिवान में नगर तक
उड़ रही निराशा की धूल
अभावग्रस्तों की आशाएं हो रही निर्मूल...
हे वन्धु,
मनुष्य में जिस तरह लोभ और लभा की प्रवृत्ति,
धन-लिप्सा, जन अनादर, नफरत की तेज हवा बह रही है
उससे हमारी जड़ें छिन्न-भिन्न हो जाएंगी
मोहनजोदड़ों, हड़प्पा, सिंधु घाटी की आर्य सभ्यताओं का
समाप्त हो जाएगा इतिहास
मिट जाएगा ऊंचे उठने का विश्वास...
हे वन्धु,
तुम सुनो खंडित मानव की दर्प-हताशा,
टूटे विश्वास और आशा का करुण-अट्ठहास,
आत्म हत्याएं, चेतना के विनाश का आत्मदाही स्वर,
किस तरह मिट रही आत्म-सत्ता
आदमी इस माहौल में कैसे जिए निरुपाय, निहत्था...।
10. 02.2012
प्रेम-सगाई
ओ प्रियस्विनी,
तुम मेरे हृदय का लौह कपाट खोलकर
जब आ ही गई हो,
तो फिर लौटकर जाने का प्रश्न ही नहीं उठता
यूं तो आना-जाना इस जीवन की विकास-प्रक्रिया है
किन्तु हमने और तुमने जो शपथ लिया है -
कि रहेंगे हम सदा साथ-साथ
गहे हाथ में हाथ
प्रेम के अटूट बंधन में बंधे
ओ प्राणस्विनी
हम उस बंधन को कभी तोड़ें नहीं
एक दूजे से मुंह मोड़े नहीं
बने रहें दोनों एक इकाई
और कह दें जनजन से
जगत में सबसे ऊंची प्रेम-सगाई
11. 02.2012
अन्तिम क्षण का अहसास
जब रुक जाती सांस
खुल जाते बंधे हाथ
हो जाता प्राण विन तन अनाथ
छोड़कर चला जाता जीव
सब कुछ
सब कुछ और सबका साथ
तब बन जाता वर्तमान
स्मृतियों का इतिहास-
कितना कष्टकर होता अन्तिम क्षण का अहसास।
12. 02.2012
मनरेगा
गांव के गरीबों को रोटी देने का हुक्मनामा-मनरेगा
सड़कें, पुल, बांध बनाने की श्रमशक्ति-मनरेगा
पत्थर तोड़ने, जंगल साफ कर रास्ता बनाने का परिश्रम-मनरेगा
ग्रामीण विकास और नव निर्माण के लिए श्रम-मनरेगा
सत्ताधारियों का वोटखोरी के लिए आमजन को फुसलाने का शस्त्र-मनरेगा
अफसरशाही की तिजोरियां भरने का यंत्र-मनरेगा
मन.. रे.. गा, म.न...रे...गा - मनरेगा
सत्ता के जाल में उलझी भूख और रोटी-हायरे मनरेगा
उजड़ी झोपड़ी, रोते पल्लि-पथ,
सूखे सिवान, भूखे किसान पगश्लथ
13. 02.2012
प्रकृति का प्रकोप
जब आकाश से वर्फ बरस रही होती है
जब धरती, सागर, नदी, झील, बनजाती बर्फ
जब घर आंगन द्वार, जंगल, सभी बर्फ में जम जाता है
जब ठंडी वर्फीली हवा तूफान की बाहों में बाहें डाले
झकझोरती दिशाएं, उद्दीप्त उत्तप्त बदहवाश दौड़ती
निर्मूल करती घरबाड़ी जंगल वन
करती मानव जीवन भयाक्रांत, पंगु, अस्थिर
तोड़ती मकान, पुल, बिजली के खम्भे, खेलती विध्वंस का खेल
सर्जित करती जन कोलाहल, क्रन्दन
फिर भी मानव बचाता है अस्तित्व
रहता है जीवित प्रकृति की राक्षसी, उद्दाम, आतंकवादी
वज्राघात से बचता बचाता
प्रकृति के साथ जोड़ता जन्म-जन्मान्तर का नाता...।
14. 02.2012